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सोलर वेस्ट से होने वाले नुकसान सुनकर सोलर दूर की कौड़ी लगता है

CEEW, भारत में स्थित एक गैर-लाभकारी थिंक टैंक और नीति संस्थान है. इसकी रिपोर्ट के हिसाब से भारत में साल 2030 तक 600 किलो टन सोलर वेस्ट निकलेगा. पर ये सोलर वेस्ट क्या है?

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solar panel solar energy waste
सोलर पैनल (फोटो-एआई)
9 अप्रैल 2024
Updated: 9 अप्रैल 2024 11:50 IST
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खबर ऐसी है कि ग़ालिब होते तो कहते, 
 

दे के ख़त मुँह देखता है नामा-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
 

खत में क्या लिखा है

 CEEW, भारत में स्थित एक गैर-लाभकारी थिंक टैंक और नीति संस्थान है. इसकी रिपोर्ट के हिसाब से भारत में साल 2030 तक 600 किलो टन सोलर वेस्ट निकलेगा. सोलर वेस्ट, ये क्या है? सोलर फार्म में कई सारे सोलर पैनल लगाने पढ़ते है. अब इनकी भी एक उम्र होती है. जिसके बाद ये कूड़ा हो जाते हैं. इसी को कहते है सोलर वेस्ट. सोलर वेस्ट एक तरह का इलेक्ट्रॉनिक वेस्ट है. जिसे सही ढंग से रिसाइकिल न किया जाए तो खतरनाक हो सकता है.  कूड़े के बढ़ते ढेर के बीच इस 600 किलो टन कूड़े का हम क्या करेंगे, ये बड़ा सवाल है. लेकिन उससे पहले पैगामे ज़ुबानी बताते हैं आपको.
सोलर का ये कूड़ा भारत के लिए एक अच्छी खबर है. अच्छी न भी कहें तो ये छोटा नुकसान हमें बड़ा फायदा पहुंचाने वाला है. कैसे? चलिए विस्तार से समझते है
-कैसे ये खबर हमें बैंगलोर जैसे हालात से बचा सकती है?
-कैसे ये एक खबर मुम्बई को डूबने से बचा सकती है?      
 
भारत सरकार ने हाल ही में एक नई स्कीम शुरू की है, PM Surya Ghar: मुफ्त बिजली योजना. इसमें 1 करोड़ घर की छतों पर सोलर पैनल लगवाने की बात हुई है. और उन्हें 300 यूनिट बिजली फ्री भी मिलेगी. इसके पीछे सरकार की एनर्जी ट्रांज़िशन को लेकर एक महत्वांक्षी सोच है. एनर्जी ट्रांज़िशन यानी फॉसिल फ्यूल (जैसे पेट्रोल,डीज़ल, कोयले) की जगह उन एनर्जी के सोर्सेज से बिजली बनाना, जिनसे प्रदूषण न होता हो. जैसे सौर ऊर्जा. लेकिन इन सब चीज़ो के पीछे एक बड़ा कॉन्टेक्स्ट है. जिसका सम्बन्ध अर्थ, पर्यावरण और विश्व राजनीति से है. इसको तीन उदाहरणों से समझिये. 
पहला, यूरोप ने कहा है कि वो 2026 से भारत में बनने वाली चीजों पर कार्बन टैक्स लगाएगा.  मसलन स्टील या ऐसे प्रोडक्ट्स जिनमें कोयले का इस्तेमाल होता है. जिससे भारत के एक्सपोर्ट्स पर प्रभाव पड़ेगा.
दूसरा, भारत रूस से तेल खरीद रहा है. रूस यूक्रेन युद्ध के बीच. इस मामले में भारत पर कोई प्रतिबन्ध जैसी चीज नहीं  लगी है. लेकिन पूरी पश्चिमी दुनिया आंखें तरेर रही है 
तीसरा, जो सबसे जरुरी है, ग्लोबल वार्मिंग संकट है पूरी दुनिया के लिए एक संकट है. खतरा हम सबके लिए है. अगर आप अभी भी इसे हलके में ले रहे. तो दो रिपोर्ट आपकी नजर करते हैं.    
 

ग्लोबल वार्मिंग का हाल

WMO यानी वर्ल्ड मेट्रोलॉजिकल ऑर्गेनाइजेशन. ये संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है जो क्लाइमेट और मौसम से जुड़ी चीज़े पर काम करती है. इसकी रिपोर्ट में दो मुख्य बाते सामने आई हैं.
पहली - इतिहास में जबसे तापमान की रिकॉर्डिंग शुरू हुई. दुनिये के लिए साल 2023 सबसे गर्म वर्ष था. दूसरी बात -इसी साल लू, बाढ़, सूखा, और तेजी से बढ़ते cyclones की संख्या ने काफी तबाही मचाई. लाखों लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी अस्त-व्यस्त हो गई और कई अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ.

IPCC की रिपोर्ट में और भी ज्यादा चौकाने वाली बातें सामने आयी हैं. IPCC संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था है. ये क्लाइमेट चेंज की फील्ड में काम करती है. इसकी रिपोर्ट के अनुसार तबाही मचाने की बारी अब नेचर की है. कैसे?  पिछले पचास सालों में इतना कार्बन एमिशन हुआ है कि साल 1750 के मुकाबले धरती का तापमान 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है. इसकी वजह से ग्लेशियर पिघल रहे हैं और कुछ इलाकों में बारिश इतनी बढ़ गयी है की बाढ़ आ जाती है. ऐसी घटनाएं हालिया सालों में बढ़ रही हैं.   दूसरी बात ये सामने आयी कि साल 2100 तक 3 डिग्री सेलसियस बढ़ सकता है. अगर ये हो गया. तो दुनिया के सारे ग्लेशियर पिघल जाएंगे.  दुनिया की 50% आबादी को पानी नहीं मिलेगा. 14 % लोगों को भयानक लू का सामना करना पड़ेगा.   सारे द्वीप डूब जाएंगे.  और जानवरों और पेड़ पौधों की कई प्रजातियां नष्ट हो जाएंगी.        
 

तीसरी बात और भी अहम है. इस रिपोर्ट के हिसाब से भारत में और बड़ी दिक्कत होने वाली है-
जिस तरह से प्रदूषण हो रहा है, भारत में 2050 तक 40 फीसदी लोगो को पानी की किल्लत होने वाली है.  
साथ ही में समुंद्र के पानी का लेवल बढ़ने से मुंबई , कोलकाता , चेन्नई , गोवा और पुरी जैसी समंदर में समा जाएंगी.  
इन सब कारणों के चलते एनर्जी ट्रांज़िशन के रास्ते भारत को नेट जीरो कार्बन एमिशन की तरफ ले जाना जरुरी है. 
कैसे होगा ये? चलिए समझते हैं.   
 

नेट जीरो कार्बन एमिशन

नेट जीरो एमिशन का मतलब है कुल कार्बन उत्सर्जन शून्य करना.  यहां बात कार्बन एमिशन को ज़ीरो करने की नहीं हो रही है. वो संभव नहीं है. नेट ज़ीरो एमिशन का मतलब है, हम जितना कार्बन एमिट करें, उतना ही कार्बन हमारे देश में अब्सॉर्ब भी हो. यानी एमिशन कम करने के लिए एनर्जी ट्रांज़िशन करना जरुरी है और एमिशन अब्सॉर्ब करने के लिए फॉरेस्ट एरिया को बढ़ाना जरुरी है.  ताकि जितना कार्बन हमने निकाला है , और जितना बचाया है, उसका  कुल जमा योग शून्य आए.  नेट कार्बन उत्सर्जन शून्य करना इसलिए जरूरी है ताकि ग्लोबल वार्मिंग में कमी आये. लेकिन इस मामले में दुनिया को एकजुट  होना चाहिए था, लेकिन यहां तो दो बड़े ध्रुव बन गए हैं. कैसे?  
 

क्लाइमेट चेंज और वैश्विक राजनीति 

भारत को अभी तेज़ी से विकास करना है. ताकि वो पश्चिमी देशों के बराबर पहुंच सके. भारत का तर्क है कि विकसित देशों को खुद कार्बन उत्सर्जन पर तेज़ी से रोक लगानी चाहिए.  और भारत जैसे देशों को थोड़ा ज्यादा वक्त देना चाहिए.  साथ ही इन देशों को भारत और बाकी विकासशील देशों में इन्वेस्ट करना होगा ताकि विकास भी हो सके, और कार्बन एमिशन पर भी रोक लगे. 
दुनिया में कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए हर साल 400 लाख करोड़ रुपये के इन्वेस्टमेंट की जरुरत है. लेकिन विकसित देश महज 8 लाख 30 हज़ार करोड़ रुपये सालाना की बात कर रहे हैं. ये जरुरत का महज तीन फीसदी है. 
विकसित देशों ने अपना कार्बन एमिशन जरूर कम किया है, लेकिन इसके लिए तरीका ये अपनाया है कि अपना सारा प्रोडक्शन चीन, भारत जैसे विकासशील देशों शिफ्ट कर दिया है. अमेरिका यूरोप और चीन कार्बन एमिशन के सबसे बड़े कसूरवार हैं. भारत आज एक बड़ा कार्बन एमिटर जरूर है. लेकिन ये सिर्फ पिछले दो तीन दशकों में ही कार्बन एमिशन में इजाफा कर रहा है. जबकि ये तीन लगभग आधी सदी से कार्बन निकाल रहे हैं.अमेरिका और यूरोप के मामले में तो ये ड्यूरेशन एक सदी से भी ज्यादा हो जाती है. भारत बड़ी चुनोतियों से गुजर रहा है लेकिन साथ ही कार्बन एमिशन को कम करने के लिए कदम उठा रहा है. भारत इस मामले में इन्वेस्टमेंट के लिए पॉलिसी भी बना रहा है और साथ ही विकसित देशों पर क्लाइमेट फंडिंग को बढ़ाने का प्रेशर भी बना रहा है. 
 

भारत का प्रदर्शन 

साल 2015 की बात है. पैरिस में COP 21 सम्मलेन हुआ था. इस सम्मलेन में भारत ने कुछ चीजों पर काम करने की बात कही थी. पहली, 2030 तक 450 गीगावॉट बिजली रिन्यूएबल एनर्जी से बनेगी.  जैसे सोलर और विंड से. इस मामले में भारत ने कुछ कदम उठाएं हैं. 2015 से 2023 के बीच भारत में रिन्यूएबल एनर्जी प्रोडक्शन में 400 प्रतिशत की बढ़त हुई है. कैपेसिटी के हिसाब से भारत दुनिया में चौथा सबसे बड़ा रिन्यूएबल एनर्जी देश बन गया है. भारत में अभी लगभग 170 गीगावाट बिजली रिन्यूएबल एनर्जी की कैपेसिटी है. सोलर से 70 गीगावॉट, विंड से 45 गीगावॉट और 53 गीगावॉट हाइड्रोइलेक्ट्रिक तरीकों से यानी नदियों पे बांध बनाकर पैदा के जा रही है.  रिन्यूएबल एनर्जी का 2030 का जो लक्ष्य तय किया गया था, 2023 में भारत ने उसका लगभग 38 फीसदी हिस्सा पूरा कर लिया है. 2015 में भारत ने दूसरा बड़ा वादा किया था, 2030 तक हम अपनी कुल जरुरत की 40% बिजली रिन्यूएबल सोर्सेस से बनाने लगेंगे.  2010 तक हम बिजली उत्पादन का सिर्फ 15 प्रतिशत रिन्यूएबल सोर्सेस से बनाता था.  2023 में ये आंकड़ा बढ़कर 23 फीसदी से ऊपर हो गया है. बहरहाल नेट ज़ीरी स्थिति हासिल करने के लिए भारत ने जो लक्ष्य रखा था. वो अभी दूर है.
 

कितना खर्च?    

एशिया सोसायटी पॉलिसी इंस्टिट्यूट ने 2022 में एक रिपोर्ट पेश की थी. ‘गेटिंग इंडिया तू नेट जीरो’. इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने के लिए लगभग 10.1 ट्रिलियन डॉलर खर्च आएगा यानी 800 लाख करोड़ रुपये. ये रकम भारत के वर्तमान जीडीपी की ढाई गुना है. ये रकम किन कामों में खर्च होगी?
·    670 लाख करोड़ रुपये का खर्च रिन्यूएबल एनर्जी से बिजली बनाने और उसके वितरण और ट्रांसमिशन के इंफ्रास्ट्रक्चर को बनाने में खर्च होगा.  
·    वहीं लगभग 130 लाख करोड़ रुपये हाइड्रोजन के उत्पादन के लिए चाहिए होगा.  
अब बढ़ा सवाल. ये पैसा आएगा कहां से?
इसके लिए फॉरेन इन्वेस्टमेंट, सरकार की तरफ से कंपनियों को प्रोडक्शन का इंसेंटिव, इंफ्रास्ट्रक्चर, और खुद सरकारी कंपनियां जैसे ONGC को बड़े स्तर पर फंडिंग करनी होगी.  इसके अलावा प्राइवेट-पब्लिक पार्टनरशिप को बढ़ावा देना होगा.  एक और तरीका है, ग्रीन बांड्स का. जिनके जरिये कंपनियां इस सेक्टर में इन्वेस्टमेंट के लिए मार्किट से फंड जुटा सके. उनको भी बढ़ावा देना होगा.  
सरकार ने रिन्यूएबल एनर्जी सेक्टर जो बढ़ावा देने के लिए कुछ स्कीम्स शुरू भी कर दी है. दो योजनाओं के बारे में आपको बताते हैं.
 

नेशनल हाइड्रोजन मिशन

  सरकार की पहली बड़ी योजना है, नेशनल हाइड्रोजन मिशन
·       ये पॉलिसी साल 2022 में बनी थी. 
·       इसका उदेश्य 2030 तक हर साल 5 मिलियन टन ग्रीन हाइड्रोजन बनाना है
·       सरकार की माने तो इससे 2030 तक भारत के तेल आयात के खर्चे में 1 लाख करोड़ रूपये की कमी आएगी और 6 लाख नए रोजगार बनेंगे
·       इस मिशन के तहत 2030 तक हम 125 गीगावॉट बिजली बनाने के लिए हाइड्रोजन का इस्तेमाल होगा.  जिससे भारत के 500 गीगावॉट बिजली प्रोडूस करने के लक्ष्य को पूरा करने में बड़ी मदद मिलेगी. 

प्रधानमंत्री-कुसुम योजना

ये योजना सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए है.  
·       इसमें कृषि में इस्तेमाल होने वाले वाटर पंप सोलर एनर्जी से चलाए जाएंगे. 
·       किसानों को सोलर पैनल लगाने के लिए  60 % की सब्सिडी दी जा रही है. 
·       किसानों को 30 % क़र्ज़ बैंको से भी मिलेगा.  
·       इस योजना के तहत किसान अपने खेत में 1 मेगावॉट तक का सोलर प्लांट लगा सकते है.
·       इससे किसानों को सस्ती बिजली भी मिलेगी.  और एक फायदा ये भी होगा कि बची बिजली सरकार खरीद लेगी

नेट जीरो के फायदे 

·    ‘गेटिंग इंडिया तू नेट जीरो’ रिपोर्ट के अनुसार अगर 10 ट्रिलियन डॉलर का इन्वेस्टमेंट करने में भारत सफल हो जाता है. तो GDP ग्रोथ में सालाना 4.5 प्रतिशत का इजाफा होगा.  इस मुहीम से 2047 तक डेढ़ से दो करोड़ नये रोजगार पैदा होंगे.  
·       भारत लगभग 15 लाख करोड़ का कच्चा तेल इम्पोर्ट करता है. नेट जीरो एमिशन हासिल करने से भारत अपनी सारी ऊर्जा खुद बनाएगा.  इससे हमारा तेल और कोयले के आयात का खर्च कम होगा.    
·       कच्चे तेल के इम्पोर्ट के चलते, भारत वैश्विक तेल राजनीति में नुकसान में रहता है. अगर देश आत्म निर्भर हो जाये, तो ग्लोबल डिप्लोमेसी में फायदा होगा.      
फायदों के बाद अब चुनौतियों की बात भी कर लेते हैं

अभी दिल्ली दूर है 

मिशन नेट ज़ीरो एमिशन 2070 पूरा करने में सबसे बड़ी दिक्कत है फाइनेंस की. दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं इस क्षेत्र में भारत में इन्वेस्ट करने से कतरा रही हैं. अभी तक रिन्यूएबल एनर्जी के सेक्टर में लगभग ६ लाख 40 हज़ार करोड़ रुपय का इन्वेस्टमेंट हो चुका है. और 20 लाख करोड़ रुपये के इन्वेस्टमेंट होने के कयास है. लेकिन ये रकम अभी भी बहुत कम है.  
दूसरी बड़ी दिक्कत है टेक्नोलॉजी की. भारत में जबसे सोलर एनर्जी पर फोकस शुरू हुआ है, तबसे सोलर पैनल्स का इम्पोर्ट बढ़ गया है. इम्पोर्ट सबसे ज्यादा चीन से हुआ है. सरकार ने सोलर पैनल्स की मैन्युफैक्चरिंग के लिए PLI स्कीम्स शुरू की हैं. लेकिन अभी भी काफी हद तक सोलर पैनल्स आयात करने पड़ रहे हैं.    
·       तीसरी समस्या है शुरुआती खर्च की. सोलर प्लांट लगाने के लिए जो शुरुआती खर्च आता हैं वो बहुत ज्यादा है. इस वजह से प्रधानमंत्री-कुसुम योजना जैसी स्कीम का फ़ायदा पूरी तरह से नहीं हो पा रहा है. 
·       चौथा और एक बड़ा कारण है इंफ्रास्ट्रक्चर.  अगर आपको सोलर से बिजली बनाकर सरकार को सप्लाई करनी है. उसके लिए एक अलग बिजली की लाइन और पावर स्टेशंस लगाने पड़ते है. ये बात भी प्रधानमंत्री-कुसुम योजना जैसी स्कीम के लिए चुनौती बन रही है.

सोलर वेस्ट का जिक्र तो हमने शुरुआत में किया ही था. 
इन सब चुनौतियों के बावजूद भारत की कोशिश जारी है. ये कोशिश सिर्फ भारतीयों के लिए नहीं है. इंसानियत के लिए है. क्योंकि धरती के  हिसाब से देखें तो अंत में हम सभी के पास सिर्फ एक प्लेनेट है. हम अपने अपने देश नहीं बचा सकते. अंत में हमें धरती को बचाना होगा.

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