यूपी चुनाव खत्म होते-होते अखिलेश यादव ने एक ऐसी बात कर दी जो यूपी की राजनीति में अशोक स्तंभ बन सकता है. बीबीसी के साथ फेसबुक लाइव करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि जरूरत पड़ी तो बसपा के साथ भी जा सकते हैं. अगर किसी राजनीतिक पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है तो.
पर इसके बाद ही बात ये होने लगी कि क्या मायावती सपा के साथ आएंगी? क्या मायावती 2 जून 1995 की रात को भूल पाएंगी?
यूपी की राजनीति को फॉलो करने वाले लोगों को पता है कि ये वो रात थी जिसने उत्तर प्रदेश की वोट पॉलिटिक्स को नया आयाम दे दिया. 90 के दशक में मंडल और कमंडल की पॉलिटिक्स हो रही थी. पर अयोध्या मंदिर के मुद्दे पर मंडल पीछे रह गए और कमंडल लेकर भाजपा सत्ता में आ गई. पर बाबरी के मुद्दे पर बहुमत में आई कल्याण सिंह की सरकार को सत्ता गंवानी पड़ी.
इसके बाद आरक्षण वाली पॉलिटिक्स काम में आई. 1993 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का वोट तो बढ़ा पर सीटें सरकार बनाने लायक नहीं मिलीं. मुलायम की समाजवादी पार्टी भी ठीक-ठाक स्थिति में थी. 109 सीटें मिली थीं. पर कांशीराम और मायावती की बसपा सरप्राइज पैकेज थी. इस चुनाव से पहले इनको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी. पर इस बार मौका मिला था. 67 सीटें मिलीं.
दलित, ओबीसी और मुस्लिम वोट बैंक को साधने वाला गठबंधन बन गया था. सपा और बसपा ने मिलकर सरकार बना ली. कांशीराम का कहना था कि किसी तरह सत्ता में आना जरूरी है, तभी दलितों की लड़ाई लड़ पाएंगे. मुलायम मुख्यमंत्री बने. पर यूपी में दलित और ओबीसी समुदाय कभी एक नहीं रहा था. हरित क्रांति पर चढ़ते ओबीसी नये युग के जमींदारों की तरह हो रहे थे. वहीं दलितों के आत्मसम्मान और उनकी धमक बढ़ाने के लिए कांशीराम लगातार प्रयोग कर रहे थे.
मुलायम सिंह यादव को ये बात पसंद नहीं आई. अंबेडकर की मूर्तियों और अफसरों के ट्रांसफर को लेकर सपा-बसपा में खींच-तान बढ़ती गई. उधर भाजपा सत्ता से दूर नहीं रह पा रही थी. तो कांशीराम से उनकी बात भी होने लगी थी. इसी बीच 1 जून 1995 को कांशीराम ने मुलायम से समर्थन वापस ले लिया. समर्थन वापसी के अगले दिन 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के मीराबाई रोट पर स्थित वीआईपी गेस्ट हाउस में ठहरी थीं. मुलायम के कथित समर्थकों ने उस गेस्ट हाउस को घेर लिया. स्पेशली कमरा नंबर 1 को जिसमें मायावती थीं. बाहर से गालियां दी जा रही थीं, जान से मारने की धमकी दी जा रही थी. मायावती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया था. 9 घंटे तक ये चलता रहा. बाद में वहां के डीएम और एसपी ने दृढ़ता दिखाई. और लोगों को हटाया.
पर मायावती इस चीज को कभी भूल नहीं पाईं. इसके बाद वो सपा के लोगों को गुंडा ही कहकर संबोधित करती रहीं. बाद में सपा की इमेज भी गुंडों की पार्टी की बन भी गई थी. इस कांड के एक दिन बाद मायावती को भाजपा ने सपोर्ट कर दिया और वो यूपी की मुख्यमंत्री बन गईं.
अब बात करें अखिलेश की तो मायावती और अखिलेश में जितना स्नेह रहा है, उतना राजनीतिक लोगों में नहीं रहता. दोनों लोग एक दूसरे की इज्जत ही करते हैं. फिर मायावती अपने साथ हुए दुर्व्यवहार का जिम्मेदार मुलायम सिंह यादव और शिवपाल यादव को ही मानती हैं. पर अब रोचक बात ये है कि अखिलेश यादव की राजनीति को भी मुलायम और शिवपाल से ही दिक्कत थी. दोनों ही लोग सपा से लगभग अलग ही हैं. तो मायावती के पास नाराज होने के लिए अब ये वजह नहीं रही. बल्कि किसी का बहुमत ना आने की स्थिति में वो और अखिलेश यादव एक ही पायदान पर खड़े हैं.
इस बात का उदाहरण बिहार के चुनाव से मिलता है. 2015 में बिहार में भाजपा की जीत तय मानी जा रही थी. पर धुर विरोधी लालू और नीतीश कुमार एक साथ आ गए. नीतीश ने तो लालू के खिलाफ अपनी राजनीति ही खड़ी की थी. पर 2015 में वो बोल गए कि जब घर जलता है तो ये नहीं देखते कि किसके घर से पानी आ रहा है. वही नीतीश कुमार जो 1977 में जनता पार्टी के प्रत्याशी के रूप में चुनाव हार गए थे. कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने थे. लालू प्रसाद यादव का विधायक के रूप में आगमन हो चुका था. पर कर्पूरी ठाकुर के मंत्रियों पर आरोप लगने लगे थे. रोज कुछ ना कुछ निकल के सामने आता. ऐसा कहा जाने लगा था कि कर्पूरी का पतन निश्चित है.
संकर्षण ठाकुर लिखते हैं कि इंडिया कॉफी हाउस में नीतीश कुमार एक मेज पर सुरेंद्र किशोर के साथ बैठे थे. वो कर्पूरी ठाकुर से निराश हो गए थे. अब वो एक आलोचक बन गए थे. कहने लगे थे कि यह वह छुटकारा नहीं है जिसके लिए हमने संघर्ष किया था. किशोर के मुताबिक पता नहीं क्या बात हुई जाति या भ्रष्टाचार कि नीतीश एकदम उत्तेजित हो गए. मेज पर मुक्का मारा और किसी को संबोधित नहीं करते हुए ऐलान किया- सत्ता प्राप्त करूंगा, किसी भी तरह से, लेकिन सत्ता ले के अच्छा काम करूंगा. ये वो वक्त था जब नीतीश को राजनीति में बड़ा आदमी नहीं समझा जाता था.
ये तो दो वजहें हो गईं. सुप्रीम कोर्ट भी पहले के निर्णयों को देख के काम करता है. तो मायावती भी ये सोच सकती हैं. तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात है कि भाजपा धीरे-धीरे कांग्रेस सिस्टम बना रही है. जैसा आजादी के बाद था कि केंद्र और ज्यादातर राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हो रही हैं. ऐसे में यूपी में सरकार बनाना 2019 के लोकसभा चुनाव में भी भाजपा को शीर्ष पर ही रखेगा. तो विरोधी पार्टियों के लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल होगा. खास तौर से बसपा के लिए जो कि यूपी के बाहर कुछ खास प्रदर्शन नहीं कर पाई है. तो अब कल का इंतजार रहेगा कि क्या होगा यूपी की राजनीति में.
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