‘नोटबंदी पर इतना कन्फ्यूजन है कि फिलहाल जनता न इसके पक्ष में है, न विपक्ष में, वो तो कतार में है.’ ये जिस किसी ने भी कहा है सुना जाना चाहिए. मेरे लिए सुनना और जरूरी हो जाता है क्योंकि गर्लफ्रेंड ने कहा है. कतार में लगना हमें बुरा लगता है, लेकिन कतार में लगना अच्छा होता है. कतार में लगा हर आदमी एक सिस्टम को मानता है. उस पर भरोसा रखता है, उसे उम्मीद होती है, इस लाइन के अंत तक पहुंचकर सब ठीक हो जाएगा. विडंबना देखिए उसी सिस्टम की वजह से वो उस कतार में लगा होता है. कतार में खड़े हर आदमी का गुस्सा जायज होता है. वो कतार में भीड़ नहीं बढ़ाता, सिस्टम में भरोसा शो करता है.
अगर आप ये तय करने बैठे हैं कि कौन इस वक़्त नोटबंदी के खिलाफ है और कौन पक्ष में तो आपको दोनों किस्म के लोग मिलेंगे. पक्ष वाले वो होंगे जिनने या तो अपने पुराने नोट ठिकाने लगा दिए होंगे, या नए निकाल लिए होंगे. हर आदमी जो खुश है, उसका जुगाड़ लग गया है. आम आदमी आज दो तरह का हो गया है, या तो जिसके नोट निकल आए हैं, या तो जिसका दम निकल गया है. फिर हम तीसरी तरह के लोगों को देखते हैं.
ये वो नहीं है जिसके बार-बार आंसू निकल रहे हैं, ये वो है जो कतार में नहीं लगा. वो हाथ में थैली लिए घर लौटता है. आज की तारीख में छोटी खरीददारी का बड़ा महत्व है. नई पॉलीथीन में सौ-पचास की चीज लेकर घर लौटता आदमी अमीर होता है. वही असली मिडिल क्लास है. वो ऊपर बताए दोनों से अलग है. किसी कतार में नहीं लगा, भीड़ नहीं बढ़ाई, सिरदर्द नहीं बना. ये वो आदमी है, जो नहीं नजर आ रहा इसलिए सरकार की मुसीबत नहीं बना. उसके प्रति सरकार का क्या कर्तव्य है?
सरकार को चाहिए कि उसका नागरिक अभिनंदन करे, 26 जनवरी पर हाथी पर बैठाकर जुलूस निकलवाए. ऐसे लोग भी ज्यादा नहीं होंगे. ऐसे लोगों का जब सम्मान किया जाएगा तो संदेश जाएगा. लाइन में मत लगो. सरकार को चाहिए ऐसे लोगों को खोजे और उन पर डाक टिकट जारी कर दे, क्योंकि ऐसे लोग उसी तरह कम हो रहे हैं जैसे चिट्ठी लिखने की आदत. कम से याद आया, उन्हें चाहें तो विलुप्तप्राय: जीवों की कैटगरी में भी डाल दें, संरक्षित प्राणी घोषित आकर दे. इससे होगा क्या कि सरकार को आराम हो जाएगा, ये कहते बनेगा कि वो भी तो है जो लाइन में नहीं खडा है, तुम्हारे बीच का है. हमारे बीच का कोई लाइन में न खडा हो तो उसके बहाने हमारे तर्कों का गला घोंटा जा सकता है. उसी तरह जैसे हमारे लिए कोई बॉर्डर पर खड़ा है, कहकर.
सरकार चाहे तो उन्हें सरकारी विज्ञापनों का चेहरा बना सकती है. हम मुकेश हराने से हार चुके हैं. सरकार ऐसे लोगों को परमवीर चक्र भी दे सकती है, विषम परिस्थितियों में अदम्य साहस का परिचय देने के लिए. हर साल भारत रत्न के लिए बवाल होता है, सरकार ऐसे लोगों को वो भी तो दे सकती है. उनके नाम पर सड़कें हों सकती हैं, सड़क नहीं तो गलियों के नाम ही रख दे. संदेश होगा इनके दिखाए रास्ते पर चलो, वो भी नहीं तो उनके रास्ते पर ही चल लो. उन्हें नौकरियों में 12% वरीयता दी जाएगी, उनके पोतों का 45 साल बाद स्कूल एडमिशन आसानी से होगा. जिस तरह से स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों को वरीयता मिलती थी ऐआ कुछ इन्हें भी कंसीडर किया जाएगा.
लेकिन सरकार ऐसा कुछ न करेगी. सरकार ऐसे तमाम लोगों के घर पर छापा मरवाएगी. पता करना चाहिए पैसे का ऐसा कौन सा स्त्रोत है इनके पास, इतनी महंगाई में कोई कैसे इतने दिन बिना पैनिक के आराम से रह सकता है. कितनी मेहनत पड़ती है, कितने तरीके लगते हैं, लोगों को परेशान करने के लिए. आरबीआई ने इतनी बार गाइडलाइंस बदलीं, वित्तमंत्री खुद खोए रहे. प्रधानमंत्री बार-बार रो दिए, राहुल गांधी को लाइन में लगना पड़ा. इस सबके के बावजूद एक आदमी मजे से अपने घर बैठा है. ये तो बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.