जब हम काफी दूर निकल आएं और भविष्य पर एक तीखी-लोकतांत्रिक बहस को सेलिब्रेट करें, तो एक बार पीछे मुड़कर भी देखना चाहिए. दिमाग की किसी दराज़ में ये बात पड़ी रहे कि हमने शुरू कहां से किया था, तो संतुलन सधा रहता है. याद करते रहना चाहिए कि जब डेमोक्रेसी नहीं थी, तो एक इंसान के तौर पर हमारा अतीत कैसा था?
ये कहानी भारत की नहीं, चीन की है. जहां औरतों के खिलाफ ऐसी बर्बर परंपरा थी कि मानव इतिहास में बर्बरता के सब इंच-टेप छोटे पड़ जाएं. इस परंपरा की बात तो होती है, पर उसके पीछे जो असल वजह थी, उसे अकसर ‘सांस्कृतिक वैभिन्य’ या ‘अमानवीय इतिहास’ कहकर दबा-छिपा दिया जाता है.
जबकि यह पूरी तरह स्त्री विरोधी था. यह पुरुषों का सनकपन था. कसी हुई योनि की चाह का सनकपन.
हजारों साल पहले की बात. 10वीं सदी में चीन में सॉन्ग वंश का शासन था. उस वक्त चीन में कई बुरी चीज़ें रही होंगी. लेकिन उनमें सबसे बुरी थी लड़कियों के पंजों को ख़ास तरीके से बांधने की परंपरा. उन्हें जान-बूझकर आंशिक विकलांग बना देने की परंपरा. ताकि वे पुरुषों की ‘सुंदरता’ के तराज़ू पर खरी उतर सकें.
ये भौतिक सुंदरता नहीं थी. इसका रिश्ता योनि के कसाव से था.
पांव किस तरह मोड़े और बांधे जाते थे
आपको किस साइज का जूता आता है? उससे एक नंबर छोटा जूता जबरदस्ती पहनिए और काम पर निकल जाइए. शाम तक क्या हालत होगी? लेकिन ये दर्द, उस दर्द के मुकाबले कुछ नहीं है, जो आप आगे पढ़ने जा रहे हैं.
यांग जिंग के पांव. फोटो: जो फैरेल
उन दिनों चीन में बच्चियां जैसे ही चार-पांच साल की होती थीं, उन्हें इस परंपरा में झोंक दिया जाता. यह लंबी प्रक्रिया थी. उनके पांव किसी जड़ी-बूटी वाले गर्म पानी में डुबोए जाते. कुछ का दावा है कि इसके लिए किसी जानवर के खून का इस्तेमाल भी होता था, ताकि पांव मुलायम हो सकें. फिर अंगूठे के अलावा पैर की सारी उंगलियों को भीतर की तरफ मोड़ा जाता और उन्हें 10 फीट लंबे और 2 फीट चौड़े कपड़े से कसकर लपेट दिया जाता. कुछ इस तरह कि दोनों पंजे आगे से तिकोने हो जाएं. फिर कपड़े से लपेटे हुए पंजे के उभरे हिस्से की हड्डी को एक बड़े पत्थर से कुचल दिया जाता.
अब बच्चियों के दर्द का अंदाज़ा लगाइए.
ये एक दिन की प्रक्रिया नहीं थी. प्रकृति ने जैसे पांव दिए थे, यह उन्हें बदलने की कोशिश थी. इसलिए ये प्रक्रिया कुछ दिनों के अंतराल पर महीनों तक दोहराई जाती. हर दो दिन पर पट्टी बदली जाती, ताकि इनफेक्शन न हो और पस न पड़े. पर पट्टियां कम से कम दो सालों तक बंधी रहतीं. पैर के पंजे की काफी हड्डियां कुचल दी जातीं. दिन-रात उन्हें कपड़े में कसकर बांधे रखा जाता था, ताकि वो नुकीला शेप ले सकें.
फोटो: जो फैरेल
कई बार सड़ने से बचाने के लिए मांस के टुकड़े काटने पड़ते. कपड़ा नहीं बांधते तो पांव दोबारा बढ़ने लगता. ये काम मांओं से कराने से बचा जाता था, क्योंकि ममता उन पर हावी हो सकती थी और वे दया करते हुए पट्टियां ढीली बांध सकती थीं.
चीन के पुराने साहित्य में ये दुख इस तरह दर्ज है कि बच्चियां रो-रोकर अपनी मां से पांव की पट्टी खोलने के लिए गिड़गिड़ाती थीं और मांएं भी रो-रोकर अपनी मजबूरी जतातीं और कहतीं कि पट्टियां खोल दीं तो ये पैर उनकी जिंदगी बर्बाद कर देंगे.
रात में थोड़ी देर के लिए इन पट्टियों को ढीला कर दिया जाता और नरम तली वाले जूते पहन लिए जाते. मर्द कभी इन पैरों को नंगा नहीं देख पाते थे. पट्टियां जब बदली जातीं तो उन्हें खोलते ही नष्ट स्किन की सड़ांध फैलने लगती. उससे भी ज्यादा तकलीफ उंगलियों के नाखूनों में होती थी. नीचे की तरफ मुड़े रहने से नाखून पीछे की तरफ बढ़ने लगते थे.
फोटो: जो फैरेल
ताकि पंजे छोटे और कमल के फूल जैसे बनाए जा सकें
इस हालत में बंधी पट्टियों के साथ लड़कियों को खूब चलाया जाता. लंबी-लंबी वॉक. ताकि पंजे की चाप टूट सके. समय के साथ पट्टियां और कस के बांधी जातीं और फिर बाद में खास तरह के छोटे जूते पहना दिए जाते. ये जूते दिखने में किसी बच्चे के जूते लगते थे और कमल के आकार के थे.
जूता सुंदर होता था, पांव नहीं.
कमल का आकार इसलिए क्योंकि वही आदर्श आकार था. पांवों को कमल जैसा बनाना ही मकसद था. रिश्ते की बात होती तो दूल्हे का परिवार पहले लड़की के पैरों का मुआयना करता. पांव का साइज देखकर ही सब तय होता. घर आई बहू की लंबी स्कर्ट उठाकर सास पहले उसके पांव देखती. बड़े पांव वाली बहुओं को अपमानित होना पड़ता. तीन इंच का पांव सौंदर्य श्रेणी में सबसे ऊपर था और उसके लिए शब्द इस्तेमाल किया जाता था- ‘सुनहरा कमल’. चार इंच के पांव की भी अच्छी मान्यता थी. लेकिन इससे बड़े पांव को लोग हिकारत से देखते थे.
बताते हैं कि ये परंपरा पहले राजा के दरबार की शाही नर्तकियों में शुरू हुई और फिर गरीब तबकों में भी फैल गई. सुनी-सुनाई बात ये है कि चीन का राजा लि यू एक बार डांस देखने पहुंचा था और एक डांसर के पांव देखकर लट्टू हो गया. उस डांसर ने अपने पांव कपड़े से बांध रखे थे. लेकिन इस कहानी में सेक्शुअल संदर्भ गायब है जो इस फूहड़ परंपरा की असल वजह था.
सू शी रॉन्ग का पांव. फोटो: जो फैरेल
पांवों को छोटा करके मिलता क्या था?
हर परंपरा की कोई वजह तो होती ही है. कई जगह लिखा है कि छोटे पांव उन दिनों सुंदरता के प्रतीक थे. इसलिए पुरुषों को लुभाने के लिए लड़कियों के पांव अप्राकृतिक और अमानवीय तरीके से छोटे किए जाते थे.
लेकिन ये सुंदरता असल में थी क्या? कई जगह लिखा है कि ये परंपरा अमीर घरानों की महिलाओं का प्रतीक थी, ये जताने के लिए कि उन्हें काम करने की जरूरत नहीं है. काम करने की जरूरत नहीं है इसलिए विकलांग कर दिया जाए? ये सब पर्दा डालने वाली बातें हैं. अधूरी बातें. असल में ये सब मर्दों की तीव्र सेक्शुअल फंतासियों से जुड़ा था.
क्षेपक
मशहूर टीवी सीरीज ‘लूथर’ के सीजन 3 का एपिसोड-2.
TV सीरीज लूथर का वो सीन
डिटेक्टिव चीफ इंस्पेक्टर जॉन लूथर एक विकृत दिमाग के अपराधी से पूछताछ कर रहे हैं. यह लंदन में औरतों की सिलसिलेवार हत्याओं के बारे में है, जिसमें हत्यारा महिलाओं के जूते चुराकर ले जाता था. उस हत्यारे का गुरु अस्पताल में भर्ती एक दिमागी तौर पर विकृत आदमी था. लूथर उससे पांवों के लिए इस सनकपन के बारे में पूछते हैं, तो वह बताता है,
‘जब मैं छोटा था तो मैंने एक मैगजीन में चीन में पांव बांधने की प्रथा के बारे में एक आर्टिकल पढ़ा. वे महिलाओं के पांव की उंगलियां अंदर की तरफ मोड़कर कपड़े से लपेट देते थे और हड्डियां तोड़ देते थे. इससे लड़कियों की चाल में एक खास विकृति आ जाती थी और कई सालों तक ऐसे चलने से उनके चूतड़ की पसली और वजाइना और गुदा के बीच का एरिया मजबूत हो जाता था. इससे वजाइना ज्यादा ‘मस्क्युलर’ हो जाती थी.’
नहीं नहीं! ‘लूथर’ के इस सीन को सबूत की तरह नहीं, संदर्भ की तरह लीजिए. यह एक मेडिकल सत्य है कि पांव बांधने की जो प्रक्रिया ऊपर बताई गई, उससे जांघों के अंदरूनी हिस्से और पेल्विक मसल में असामान्य कसाव आ जाता था.
जाहिर है, योनि का कसाव पुरुषों की पसंद था. स्पष्ट वजहों से छोटे पांव वाली बहुएं खोजी जाती थीं. सुंदर बात है कि छोटे स्तर पर ही सही, आज चेहरे से सुंदरता तय करने को भी कुछ लोग ठुकरा रहे है. लेकिन उस दौर में चेहरा मायने ही नहीं रखता था. स्त्री का सौंदर्य सिर्फ उसकी योनि के कसाव में था. और उसके लिए एक कष्टकारी व्यवस्था बना ली गई थी.
फुट बाइंडिंग से होने वाली विकृति का एक्स-रे. फोटो: Corbis
इसलिए इस परंपरा को सिर्फ अमानवीय कहकर मत ढंकिए. अमानवीय तो बहुत चीज़ें हैं. ये उससे ज्यादा ग़लीज़ चीज़ थी. इसके पीछे औरतों का स्पष्ट ‘ऑब्जेक्टिफिकेशन’ था. 5 साल की उम्र से स्त्री को तैयार किया जाता था कि वो जवान होकर पुरुष को उत्कृष्ट किस्म का आनंद दे सके. इसके लिए चौथाई उम्र तक वो असहनीय दर्द सहती थी और ताउम्र कुछ लंगड़ाकर चलती थी.
मर्यादा और गरिमा! कनफ्यूशनिज्म! अच्छी पत्नी का धर्म पति की सेवा. अरमान, बच्चा पैदा करना. खुशी, पति और उसके परिवार के लिए समर्पण. समर्पण साबित करने के लिए, जान देने तक को तैयार. पांव बांधने की परंपरा, उसमें नत्थी दर्द और इससे होने वाली शारीरिक विकृति, महिलाओं के लिए कन्फ्यूशनिज्म के लिए समर्पण की मिसाल ही तो है. देखो, उसने भावी पति के लिए कितना कष्ट सहा! इधर से आह! उधर से वाह!
और लोग कितने कूढ़मगज थे कि उन्हें पता ही नहीं कि उन्होंने खुद को कितना पीछे धकेल दिया. समाज ही नहीं, अर्थव्यवस्था से भी स्त्री को बाहर कर दिया. उसके पांव बांधकर उसे आर्थिक तौर पर ‘अनप्रोडक्टिव’ ही बनाए रखा गया. उसके जीवन के तीन ही मकसद बचे. अपनी विकलांग चाल से अपनी वजाइना में असामान्य कसाव लाना. खूबसूरत दिखना और बच्चे पैदा करना.
सू शी रॉन्ग. फोटो: जो फैरेल
जिस घर में पांव बंधाई हुई महिलाएं ज्यादा होतीं, उन्हें अमीर समझा जाता था. कि देखिए कितनी महिलाओं का बैठे-बिठाए पेट भर रहे हैं. कैसा मूर्ख दौर था.
अंतत:
1911 में आखिरकार चीन में क्रांति हुई. राज्य सत्ता को उखाड़ फेंका गया. पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना वजूद में आया. राजशाही खत्म होने के साथ ही औरतों के पांव बांधने की प्रथा को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया गया. लेकिन लोग कहां आसानी से मानने वाले थे.
कुछ लोग चोरी-छिपे अपने घरों में लड़कियों के पांव बांधते रहे. चीनी प्रशासन बरसों तक लोगों के घरों की तलाशी लेता रहा. अपनी लड़कियों के बंधे पांव छिपाने के लिए लोग हथकंडे अपनाने लगे. लेकिन प्रशासन की मेहनत रंग लाई. ये कहा जा सकता है कि 1930 के दशक के बाद चीन में लोगों ने ये काम बंद कर दिया. कमल के आकार के जूते बनाने वाली फैक्ट्रियां बंद हो गईं. लेकिन चीन के ग्रामीण इलाकों में आज भी छोटे पंजों वाली महिलाएं मिल जाएंगी. 2013 में हान किआयोनी नाम की 102 साल की एक महिला सामने आई और दावा किया गया कि वह ऐसे पांव वाली आखिरी महिला थी. लेकिन बहुत सारे लोग आखिरी होने के दावे पर यकीन नहीं करते.
हान किआयोनी, जिन्हें फुट बाइंडिंग की शिकार आखिरी महिला कहा गया.
ये तस्वीरें जो आप देख रहे हैं, वे हॉन्गकॉन्ग में रहने वाली ब्रिटिश फोटोग्राफर जो फैरेल के लेंस से निकली हैं. जो ने चीन के कई गांवों में घूमकर फुट-बाइंडिंग की शिकार 50 से ज्यादा महिलाओं से बात की और उनमें से कुछ की तस्वीरें लीं. तस्वीरें उनकी वेबसाइट www.jofarrell.com से साभार हैं.
सोचिए कि उन हजार सालों में जब यूरोप की महिलाएं छिटपुट कारोबारी तौर-तरीके सीख रही थीं, चीनी महिलाओं की ऊर्जा और सामर्थ्य तीन इंच का पांव पाने में लगा था. एक अप्राकृतिक शारीरिक ‘परफेक्शन’ की सनक, जिसने चीन को कितना पीछे धकेला है, ये बताने के लिए किसी समाजशास्त्री की जरूरत नहीं है.
जुंग चांग ने अपनी किताब ‘वाइल्ड स्वॉन्स’ में इस बारे में डिटेल में लिखा है. उन्होंने अपने परिवार की तीन पीढ़ियों की कहानी लिखी है. इसमें उनकी दादी, मां और खुद वो शामिल हैं. चीन में ये किताब बैन की गई, इसके बावजूद इसकी 1 करोड़ से ज्यादा कॉपी बिकीं.
अब ज़रा सोचिए!
हम कितना आगे आए हैं. आज हम बुरका प्रथा पर बहस करते हैं. करवा चौथ के स्त्रीविरोधी होने या न होने पर जिरह करते हैं. ये दोनों परंपराएं अपने मूल में स्त्री विरोधी हों या न हों, लेकिन इतने बर्बर तो नहीं हैं. यहां आप मेरी राय जानना चाहते हों तो मैं दोनों के ही पक्ष में नहीं हूं. लेकिन अच्छी बात है कि हम बेहतर को बेहतर बनाने में जुटे हैं. ‘रिफाइंड’ को ‘रिफाइन’ कर रहे हैं. बीती हुई दुनिया औरतों के लिए कितनी खराब थी. कितना कुछ था बदलने के लिए. कितना कुछ हमने बदला है.
सू शी रॉन्ग, उनके पति और एक पालतू मुर्गा. फोटो: जो फैरेल
और ये क्या शब्द इस्तेमाल होता है? परंपरा! पहले मैंने चाहा कि ऊपर जहां-जहां ‘परंपरा’ लिखा है, उसे ‘रूढ़ि’ कर दूं और परंपरा की सकारात्मक छवि को चालाकी से बचा ले जाऊं. कई परंपराएं आने वाले समय-काल तक अपने प्रवाह से बहती रहती हैं. कई रूढ़ियां हो जाती हैं. लेकिन ये छवियों के विखंडन का दौर है. अच्छा ही है कि इसके लिए वही शब्द इस्तेमाल किया जाए, जो पहले किया जाता था. परंपरा के अर्थ में यदि मलिनता शुमार है, तो उसे शुमार रहने दिया जाए. शब्दकोश बनाने वाले इससे नाराज़ हों तो होते रहें.
और अब जब आप कहें कि उसे चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए. या उसे पत्थर मार-मार के निपटा देना चाहिए, तो हमारा अतीत याद कीजिएगा. जो बेहतर रास्ता है, वो मुश्किल रास्ता है. जहां से आगे बढ़ने में हमने बरसों खपाए हैं, वहां क्षण भर के लिए भी क्यों लौटना?
आज हमारे ज़ेहन खुले हैं तो डेमोक्रेसी की वजह से ही. वरना कोड़े लगवाने के बाद भी जय-जयकार करते हुए घूम रहे होते. वैसे कुछ लोग आज भी ऐसे घूम ही रहे हैं.