केजरीवाल ऑड ईवेन लाए. बीजेपी वालों ने कहा तुगलकी फरमान. कांग्रेस मोदी को तुगलक कहती है. इस तरह सब एकदूसरे को तुगलक बुलाते हैं. क्योंकि भारत में डेमोक्रेसी है. और तुगलक था बादशाह, उस वक्त प्रजातंत्र नाम की चिड़िया ने उड़ान नहीं भरी थी. तुगलक माने दिल्ली सल्तनत का सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक. इसने राज किया चौदहवीं सदी में. 1324 से 1351 तक. जिसे ‘भारतीय इतिहास का सबसे मूर्ख सुल्तान’, ‘भारत का सबसे बदकिस्मत सुल्तान’ और न जाने क्या क्या कहा गया है. ये बेचारा सुल्तान बदकिस्मत तो था लेकिन मूर्ख नहीं. पॉपुलर ट्रेडिशन में तो जनाब की इमेज बहुत ख़राब हो चुकी है. असलियत तो यह है कि तुगलक में कई अच्छी क्वालिटीज़ थीं. दर्शन, धर्मशास्त्र, calligraphy, इतिहास, सहित बहुत सारे विषयों में उसकी पकड़ काफी मजबूत थी. वह लीक से हटकर नयी योजनाएं लाने, और हर चीज़ को नए नजरिये से देखने में यकीन करता था. मोहम्मद बिन तुगलक जब सुल्तान बना तो आम जनता का पूरा समर्थन उसके साथ था. मगर धीरे धीरे जब एक एक कर उसकी सारी योजनाएं फ्लॉप होने लगीं तो जनता का विश्वास उठ गया. चलो बात करते हैं उन योजनाओं की, जिनके कारण तुगलक को नकारा सुल्तान कहा गया.
राजधानी बदलने की योजना
मोहम्मद बिन तुगलक की पहली योजना थी दिल्ली से बदल कर देवगिरी (जिसे बाद में दौलताबाद नाम दिया गया) को राजधानी बनाना. आमतौर पर ये माना जाता है कि आनन-फानन में लिए इस फैसले के बाद उसने पूरी पब्लिक को बिना सोचे-समझे दिल्ली से देवगिरी भेज दिया, जिसमें काफी लोग मारे गए. जबकि सुल्तान मोहम्मद ने यह फैसला बहुत सोच समझ कर और इकॉनमी गड़बड़ाने के कारण लिया था. दरअसल मुल्तान और सिंध से जुड़े दिल्ली के बिजनेस में भारी मंदी चल रही थी. दिल्ली से अलग एक पॉलिटिक्स और इकॉनमी का अड्डा बनाना जरूरी था. देवगिरी को ही चुनने कि ख़ास वजह यह थी कि साउथ स्टेट्स से बाकी प्रदेशों की दूरी ज़्यादा थी. सल्तनत बचाने के लिए वो दूरी खत्म करना बहुत जरूरी था. सुल्तान ने खास तौर पर राजनैतिक रूप से ऊंचा रुतबा रखने वालों को ही देवगिरी भेजा था. हाँ, भरी गर्मी में कुछ लोगों पर बसी बसाया घर परिवार छोड़कर जाने को मजबूर करना एक खतरनाक कदम था. सूफी संतों को वहां भेज कर सुल्तान साउथ के इलाकों को सांस्कृतिक रूप से नज़दीक लाना चाहता था लेकिन हुआ कुछ और ही. दिल्ली में सूफी संत आम लोगों के बहुत करीब आ चुके थे और उनका वहां न रहना दिल्ली को कतई मंज़ूर नहीं था. जब सुल्तान को लगा कि ये प्लान चौपट हो गया तो राजधानी बदलने के ऑर्डर्स वापस ले लिए.
आधुनिक करेंसी तुगलक ने चलाई थी
दूसरी बड़ी योजना थी टोकन करेंसी. सोने और चांदी के सिक्कों के ज़माने में टोकन मुद्रा के बारे में सोचना एक बहुत बड़ा कदम था. यह योजना अपने समय से बहुत आगे थी. टोकन करेंसी का मतलब तो समझते ही हो. जैसे आजकल के सिक्के और नोट. यानी जब सिक्के पर लिखा रेट उसके खुद के रेट से ज्यादा हो. ऐसी करेंसी शुरू करने के कुछ नियम व शर्ते होती हैं.
1: करेंसी जारी करने वाली संस्था सोना और चांदी अपने पास रिज़र्व रखे.
2: जो करेंसी उसने बनाई है उसे खुद भी उसी कीमत पर स्वीकार करना होगा.
3: नोट या सिक्के ऐसे हों जिनकी नकल न की जा सके. नहीं तो घर घर नोट छपेंगे.
आज के समय में पूरी दुनिया यही तरीका अपना चुकी है. जिसका पहली बार जुगाड़ किया था तुगलक ने. सुल्तान के ऐसा करने की वजह थी. मार्केट में सोना और चांदी बहुत कम बचा था. अगर उससे ही बिजनेस किया जाता तो इकॉनमी का सत्यानाश हो जाता. इस समस्या से निपटने के लिए ये तरीका बहुत कारगर था लेकिन लोग इसके लिए तैयार नहीं थे. उनको पता ही नहीं था कि इस स्कीम का कॉन्सेप्ट क्या है. कुछ खामी सिक्के बनाने वालों से हुई. मार्केट में नकली सिक्कों की बाढ़ आ गई. उस दौर में सोने या चांदी के सिक्कों की भी जांच की जाती थी. लेकिन पब्लिक ने इन सिक्कों को परखने का जरा भी रिस्क नहीं उठाया. फिर वही हुआ जो नए नवेलों के साथ होता है. तुगलक को सिक्के वापस लाकर अपने खजाने में जमा करने पड़े और उसी रेट पर सोने चांदी से बिजनेस करने की मजबूरी गले आ पड़ी. इकॉनमी की बधिया बैठ गई.
सूखे में जनता के लिए खाना मुफ्त कर दिया था
इसके कुछ समय बाद ही सल्तनत का बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में आ गया. माना जाता है कि सुल्तान ने इस स्थिति में ही दोआब इलाके में टैक्स बढ़ा दिया. लेकिन बात इतनी सीधी नहीं है. तुगलक के सुल्तान बनते ही पिछले सुल्तान के वक़्त से चली आ रहीं मुश्किलें और अंदरूनी खींच- तान खुले तौर पर सामने आने लगीं. एक के बाद एक राज्य बगावत होने लगी. जिनसे जूझने के लिए चुस्त दुरुस्त फौज की जरूरत थी. फौज को बढ़ाने और तकनीकी से लैस करने में खाजाना खतम हुआ जा रहा था. मुश्किल ये थी कि इस स्थिति में अर्थव्यवस्था संभाली कैसे जाए. लेकिन सुल्तान ने हिम्मत नहीं हारी. सूखे से परेशान प्रजा को को कुछ समय के लिए अनाज और अन्य ज़रुरत की चीज़ें मुफ्त या कम दाम में बांटी थी.
इतनी सारी राजनीतिक और आर्थिक समस्याओं के बीच और योजनाएं फेल होने के बावजूद तुगलक सल्तनत को कंट्रोल करने में कामयाब रहा. दिल्ली के किसी दूसरे सुल्तान ने अपने जीवन के इतने साल जंग के मैदान पर नहीं बिताये जितने इस बदकिस्मत सुल्तान ने. कार्यकाल बहुत विवादित रहा तुगलक का, लेकिन फिर भी इतिहास लिखने वालों ने उसकी दूरदृष्टि और समझदारी की खूब तारीफ की है. तो अब किसी भी ऊटपटांग आदमी को तुगलक कहने से पहले सोच लेना.
ये स्टोरी हमारी टीम के साथ इंटर्नशिप कर रहीपारुल ने लिखी है. आपके पास भी हिस्ट्री से जुड़े मजेदार किस्से हों, या इतिहास के किसी अनोखे इंसान के बारे कुछ जानकारी हो या जानकारी चाहते हों तो हमें मैसेज करें.