मुंबई से पुणे की दूरी लगभग एक सौ पचास किलोमीटर है. गूगल वाली दीदी से पूछो तो बता रही हैं कि पौने तीन घंटे लगेंगे एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने में. मगर ‘रिचर्ड अंकल’ कह रहे हैं कि पंद्रह से पच्चीस मिनट में पहुंचा देंगे, बस छः-सात साल रुको. मतलब 2024 तक.
# वर्जिन – रिचर्ड ब्रैनसन
रिचर्ड अंकल को नहीं चीन्हते? अरे रिचर्ड ब्रैनसन. बहुत बड़के अमीर. इंग्लैंड के नागरिक. वर्जिन समूह के मालिक. ‘वर्जिन अटलांटिक’ एयरलाइंस भी इन्हीं का है. भारत में ‘वर्जिन मोबाइल’ लेकर आए थे. यू.एस. में एक पूरा आइलैंड खरीदे हैं.
ये समझ लीजिए कि रिचर्ड ब्रैनसन पूरी दुनिया में वर्ल्ड-फेमस हैं. न केवल अपने ढेर सारे पैसों के चलते बल्कि अपने मस्त-मौला मिजाज़ के चलते. जब इंडिया में फ्लाइट लेकर आए थे तो ढोल नगाड़ों के साथ.
लोग तो ये तक कहते हैं कि अपने विजय माल्या पूरी तरह से इनसे इंस्पायर्ड हैं और इसलिए ही ‘किंगफ़िशर एयरलाइंस’ का रंग, फॉर्मेट वगैरह ‘वर्जिन अटलांटिक’ से चुराया हुआ था. बहरहाल विजय माल्या, रिचर्ड ब्रैनसन से इंस्पायर्ड हैं या नहीं ये बात निश्चित तौर पर नहीं कही जा सकती. लेकिन एक बात जो निश्चित है, वो ये कि, रिचर्ड ब्रैनसन ने महाराष्ट्र सरकार के साथ एक फ्रेमवर्क-एग्रीमेंट साइन किया है – ‘हाइपर-लूप वन’ को लेकर.
होने को ठीक एक साल पहले उस वक्त के रेल मिनिस्टर सुरेश प्रभु ने हाइपरलूप को लेकर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया था. उनका कहना था – ‘हाइपरलूप को लेकर हम ‘हाइपर’ नहीं हैं, लेकिन इसे ‘लूप’ में लेकर चल रहे हैं.’
यानी अगर सब कुछ सही रहा तो पूरी दुनिया में ‘हाइपर-लूप’ सबसे पहले भारत में आएगी. अब ये क्या चीज़ है – ‘हाइपर-लूप’? और फिर ‘हाइपर-लूप वन’ क्या है? (ऊपर कहीं पर हम केवल ‘हाइपर-लूप’ लिख रहे हैं और कहीं पर ‘हाइपर-लूप वन’. ये डेलिब्रेट है.)
# रफ्तार के दो विलेन
हम लोग तेज़ से तेज़ गति से ट्रेवल करना चाहते हैं. लेकिन हमारी इस तेज़ी में हमारे दो विलेन हैं –
1) एयर-रेजिस्टेंस:
विज्ञान कहता है कि यदि बराबर ऊंचाई से एक भारी और एक हल्की चीज़ गिराई जाए तो दोनों बराबर समय पर गिरेंगी, क्यूंकि ‘ग्रेविटी’ को भार से फर्क ही नहीं पड़ता. लेकिन यदि ऐसा सही है तो फिर क्यूं लोहे का हथौड़ा ज़ल्दी ज़मीन पर पहुंच जाता है लेकिन कागज़ का टुकड़ा देर में?
क्यूंकि उस पर हवा का रेजिस्टेंस पड़ता है. यानी अगर ये हवा का रेजिस्टेंस नहीं होता तो दोनों ठीक एक समय पर नीचे गिरतीं. अब ये जो एयर-रेजिस्टेंस है वो केवल ऊपर से नीचे गिरने वाली चीज़ों पर ही नहीं पड़ता बल्कि – नीचे से ऊपर, आगे से पीछे और दाएं से बाएं – यानी जो भी चीज़ गतिमान है, उन सब पर लगता है.
इसका मतलब तो यही हुआ कि जितना इस एयर-रेजिस्टेंस को कम से कम कर दिया जाए, उतना तेज़ कोई चीज़ चलेगी.
तो इसी के चलते – विमान की बनावट कैसे हो, उनके पंख कैसे हों, गाड़ियों (ख़ास तौर पर रेसिंग कारों) की बनावट कैसी हो, इसके लिए ‘एरोडायनामिक्स’ का बाकायदा अध्ययन किया जाता है. लेकिन सोचिए अगर कहीं पर हवा हो ही न – न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी.
और जहां पर हवा नहीं होगी, वहां पर निर्वात होगा.
2) फ्रिक्शन:
एक बच्चा एक पत्थर को धक्का देता है, बिल्कुल सीधी सड़क पर.
अब पत्थर को तब तक नहीं रुकना चाहिए, जब तक कोई उसे फोर्सफुली न रोके – ये विज्ञान के सबसे बेसिक नियम में से एक है.
लेकिन हम तो देखते हैं कि पत्थर थोड़ी देर लुढ़क या फिसल कर खुद-ब-खुद रुक जाता है. है न?
क्यूं? क्यूंकि दो सर्फेस के बीच में जो लगता है वो फ्रिक्शन या घर्षण कहलाता है.
और ये हमेशा गति की विपरीत दिशा में ही लगता है. यानी यदि आप पत्थर को लेफ्ट से राइट धक्का दें या राइट से लेफ्ट, दोनों ही दशा में घर्षण उसे रोक देगा.
अब एक बात पर गौर करें – यदि बच्चा उसी सड़क पर अबकी एक गोले को धक्का दे – गोला जो उसी पत्थर का बना है, गोला जिसका भार भी उसी पत्थर के बराबर है. फिर भी सब कुछ सेम होने के बावजूद गोला ज़्यादा दूर जाकर रुकेगा. क्यूं? क्यूंकि गोला, किसी भी अन्य जियोमेट्रिक शेप की तुलना में जमीन से सबसे कम टच करता है. और जितना कम जमीन से टच करेगा उतना कम घर्षण. और जितना कम घर्षण, उतनी तेज़ स्पीड.
तो एक पहिए के बाद कोई ऐसा शेप नहीं जो सर्फेस को कम से कम छुए. बशर्ते…
…बशर्ते वो सर्फेस को छुए ही न!
अब यदि एक ऐसी चीज़ का निर्माण किया जाए जिसमें एयर-रेजिस्टेंस और फ्रिक्शन न हो तो वो दुनिया का सबसे तेज़ चलने वाला यंत्र/मशीन या वाहन होगा. और ऐसा ही होने जा रहा है हाइपर-लूप में.
आइए, आसानी से समझते हैं.
# मैग्नेटिक लेविटेशन:
मैगनेट में दो पोल होते हैं – नॉर्थ पोल और साउथ पोल. अब दो मैगनेट्स को पास लाया जाए तो नॉर्थ पोल – साउथ पोल एक दूसरे को खींचते हैं मगर नॉर्थ पोल – नॉर्थ पोल एक दूसरे को और साउथ पोल – साउथ पोल एक दूसरे को धक्का देते हैं. सोचिए यदि ऐसे मैग्नेटिक छल्ले बनाए जाएं जिसमें केवल साउथ पोल हो और उन ढेर सारे छल्लों में से एक दूसरा ऐसा मैगनेट पास किया जाए जिसमें भी केवल साउथ पोल ही हो. तो जो मैगनेट पास हो रहा है छल्लों में से वो कभी भी छल्ले को नहीं छुएगा. यानी पूरी यात्रा के दौरान घर्षण वाली समस्या नहीं रहेगी.
इसे चुम्बकीय प्रोत्थापन का एक तरीका कहा जा सकता है.
होने को चुम्बकीय प्रोत्थापन (मैग्नेटिक लेविटेशन) को और स्पेसिफिकली यूं समझा जा सकता है कि गुरुत्वाकर्षण बल और अन्य बलों को इस तरह से चुंबकीय बल के बराबर कर देना कि कोई चीज़ जहां रखी हो वहीं रह जाए. न नीचे गिरे, न दाएं-बाएं जाए.
# वैक्यूम
और दूसरी तरफ यदि छल्लों को निर्वात (वैक्यूम) के अंदर बंद कर दिया जाए तो एयर-रेजिस्टेंस भी ज़ीरो. वैक्यूम बोले तो – जब कहीं पे कुछ नहीं भी नहीं था – वही था, वही था!
यानी किसी भी चीज़ की अनुपस्थिति, हवा की भी, को निर्वात (वैक्यूम) कहा जाता है. इसे क्रियेट करना बहुत मुश्किल है.
# हाइपर-लूप
तो ऐसा ही होता है हाइपर-लूप में भी. एक वैक्यूम का सिलेंडर होता है. उसके अंदर ढेर सारे मैगनेट के लूप (लूप मतलब गोले या छल्ले.) इसमें से हाइपर-लूप ट्रेन पास की जाती है. सिंपल!
सिंपल? कहावत है कि – ‘कहना बहुत आसान है, करना मुश्किल.’ वरना कॉन्सेप्ट में तो हम टाइम मशीन भी बना चुके हैं. लेकिन इस हाइपर-लूप ट्रेन को बनाने में काफी दिक्कतें भी हैं.
सबसे पहले तो वो दिक्कतें जो टेक्निकल हैं लेकिन सॉल्व हो जाएंगी, या आलरेडी सॉल्व हो चुकी हैं. जैसे कि – ऐसे बड़े-बड़े मैग्नेटिक लूप बनाना, ऐसे वैक्यूम का निर्माण करना जिसके अंदर ट्रेन दौड़ेगी (लेकिन उस वैक्यूम सिलेंडर के अंदर इंसान ट्रैवल करेंगे तो फिर वैक्यूम के अंदर हवा का होना – हवा, वैक्यूम, हवा की ट्रिपल लेयर या सैंडविच), ब्रेकिंग सिस्टम, पावर सप्लाई आदि आदि…
आपको पता है न कि जमीन में कई जगह सोना डिटेक्ट होता है लेकिन फिर भी वहां पर खुदाई करके उसे नहीं निकाला जाता क्यूंकि जितने मूल्य के सोने के निकलने की अपेक्षा होती है उससे ज़्यादा तो सोने की खुदाई, सफाई आदि में खर्च हो जाता है. कहने का मतलब ये कि इस हाइपर-लूप प्रोजेक्ट में भी फंडिंग बहुत बड़ी दिक्कत होगी. अभी भी, और बन चुकने के बाद भी. क्यूंकि लोग, जिन्होंने पैसा लगाया है वो, श्योर नहीं कि उनका पैसा वापस आएगा या नहीं?
# अर्गोनॉमिक्स
और बाकी सारी दिक्कतों के अलावा अर्गोनॉमिक्स सबसे बड़ी दिक्कत है. अर्गोनॉमिक्स बड़ी मज़ेदार चीज़ है. ये इंसान की शारीरिक (और कई मामलों में मानसिक) संरचना कितने एक्सट्रीम तक जा सकती है, इसका अध्ययन करती है और इस पूरी स्टडी को प्रोडक्ट के निर्माण और उसके विकास में यूज़ करती है. और ज़्यादा स्पेसिफिकली कहें तो – जब किसी डिवाइस का निर्माण किया जाता है तो बाकी फीचर के अलावा ये भी देखा जाता है कि किसी इंसान के लिए उसे यूज़ करना कितना आसान होगा.
मतलब यदि अर्गोनॉमिक्स न होती तो गिटार में पचास तार होते, मोबाइल दो हाथ लंबा होता और शायद कीबोर्ड एक मीटर लंबा. अब आप कहेंगे कि ये तो पागलपन है, ऐसा नहीं होता, और इसके लिए किसी अर्गोनॉमिक्स- वॉमिक्स की ज़रूरत नहीं. ये तो देख के ही पता चल जाता है.
बेशक बड़े स्तर पर तो देख के ही पता चला जाता है इसलिए मोबाइल दो हाथ लंबे नहीं होते, लेकिन गाड़ियों में ब्रेक कहां पर लगाने हैं, एक्सीलेटर कहां पर, स्टीयरिंग कहां पर और टीवी का स्टैंड कहां पर और ऐसी ही छोटी-छोटी चीज़ों के लिए अर्गोनॉमिक्स बड़े काम की चीज़ है. और धीरे धीरे इसे फाइन ट्यून करने इंसान के लिए सबसे ‘यूज़र फ्रेंडली’ चीज़ का निर्माण किया जाता है.
तो इसी ‘अर्गोनॉमिक्स’ की दिक्कतें हाइपर-लूप के साथ भी हैं. मानव कितनी तेज़ गति को सहन कर सकता है, वैक्यूम का उस पर क्या फर्क पड़ेगा. शून्य से एक हज़ार किलोमीटर के लगभग की रफ्तार और फिर से शून्य तक पहुंचने में क्या दिक्कतें आ सकती हैं, आवाज़ और सन्नाटे से क्या दिक्कत आ सकती है, इस सब का अध्ययन करना बहुत ज़रुरी है, लेकिन ये सब अध्ययन इतने आसान भी नहीं हैं, एक दिन में नहीं होंगे. महीनों तक टेस्ट रन ही होते रहेंगे और शायद तब भी हम निश्चित तौर पर न कह पाएं कि क्या दूरगामी नुकसान होंगे.
अब हमने शुरू में ‘हाइपर-लूप’ और ‘हाइपर-लूप वन’ दो शब्दों को अलग अलग यूज़ किया था. ‘हाइपर-लूप’ तो हमने आपको बता ही दिया क्या होता है. अब ‘हाइपर-लूप वन’ के बारे में बताते हैं.
‘हाइपर-लूप वन’ दरअसल कंपनी है – रिचर्ड ब्रैनसन की. ये कंपनी सबसे ज़्यादा सीरियस है हाइपर-लूप नाम के सपने की तामीर करने के लिए.
एलन मस्क ने 2013 के लगभग में…
…चलिए पहले आपको बताते हैं, शॉर्ट में, कि एलन मस्क कौन है.
# एलन मस्क
एलन मस्क टेस्ला कंपनी के मालिक हैं. टेस्ला अमेरिका की कुछ बहुत तेज़ी से उभरती कंपनियों में से एक है. बैटरी और बैटरीचलित कारें बनाने में इस कंपनी का कोई सानी नहीं. शायद पिछले कुछेक सालों की सबसे इनोवेटिव कंपनी. अभी अपना रॉकेट स्पेस में भेजा था. उसमें कार भी लगी थी. कार स्पेस में कहीं खो गई.
लेकिन फिर भी रिचर्ड अंकल (वही वर्जिन अटलांटिक वाले) ने कहा कि वो एलन मस्क से जलते हैं.
क्यूं – क्यूंकि स्पेस में अपना रॉकेट भेजना – ये काम किया ही कितनी प्राइवेट कंपनियों ने आज तक?
हां, तो एलन मस्क ने 2013 के लगभग में एक वाइट पेपर रिलीज़ किया जिसमें उन्होंने चिंता जताई थी कि –
जब कैलिफोर्निया की ‘हाई-स्पीड’ रेल को मंजूरी दी गई तो मैं काफी निराश था और जैसा कि मुझे पता है कुछ और लोग भी (निराश) थे. यह कैसे संभव था कि सिलिकॉन वैली और जेपीएल का घर – जो ऐसी-ऐसी कमाल की चीज़ें कर रहा है – जैसे कि दुनिया की जानकरी की इंडेक्सिंग और मंगल पर रोवर भेजना – एक ऐसी ट्रेन का निर्माण करेगा जो दुनिया की सबसे महंगी और दुनिया की सबसे धीमी ट्रेनों में से एक हो.
इस सत्तावन पन्नों के श्वेत-पत्र (वाइट पेपर) के बाद, जिसमें हाइपर-लूप के बारे में सब कुछ बताया गया था, जो शुरुआत करने के लिए काफी था, पूरी दुनिया में हाइपर-लूप को लेकर एक उत्सुकता और उत्तेजना का संचार हुआ और ये आग फैल कर भारत तक और आज महाराष्ट्र तक पहुंच गई है. चलिए, फिंगर क्रॉस्ड!
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