रतन नवल टाटा… पूरा नाम. वालिद, नवल टाटा. पैदाइश 28 दिसंबर, 1937. एक शख्स, जिसने जिंदगी भर सिर्फ बिजनेस किया. और कुछ नहीं. फैसले लेता गया और फिर उन्हें सही साबित करता गया. अपनी जिद से, जुनून से, लगन से. लेकिन आज बात बिजनेसमैन रतन टाटा की नहीं, बल्कि एक इंसान रतन टाटा की. उनकी निजी जिंदगी के किस्सों की, जिनका असर उनकी पेशेवर जिंदगी पर भी पड़ा. नोश फरमाइए.
# जब फोर्ड से लिया अपमान का बदला
बात 1999 की है. टाटा को इंडिका कार मार्केट में लाए एक साल हो रहा था. 1998 में लॉन्च हुई ये हैचबैक कार टाटा के लिए कोई खास फायदेमंद साबित नहीं हुई, इसलिए रतन इससे पिंड छुड़ाने का मन बना रहे थे. बात आगे बढ़ी और पहुंची अमेरिकी कंपनी फोर्ड के पास. फोर्ड टाटा का ये कार वेंचर खरीदने में इंट्रेस्टेड थी. मीटिंग्स का दौर शुरू हुआ. पहली मीटिंग मुंबई में हुई और दूसरी अमेरिका में फोर्ड के हेडक्वॉर्टर डेट्रॉयट में. रतन वहां गए.
शुरुआत में तो सब ठीक था, लेकिन डेट्रॉयट में फोर्ड के अधिकारियों का ऐटिट्यूड बहुत ही भद्दा था. उन्होंने ये जताया कि टाटा का कार वेंचर खरीदकर वो टाटा पर अहसान करने जा रहे हैं. एक फोर्ड अधिकारी ने ये भी कहा, ‘जब आपको पैसेंजर कार के बारे में कुछ पता ही नहीं है, तो आपने इस बिजनेस में कदम ही क्यों रखा? आपके कार बिजनेस को खरीदकर हम आप पर अहसान ही करेंगे.’ डेट्रॉयट से लौटते समय रतन उदास थे. जाहिर है, ये बात उन्हें दिल पर लगी. रतन ने न कह दिया और डील कैंसल हो गई.
इसके 9 साल बाद वो मौका आया, जब रतन ने अपने अपमान का बदला लिया. 2008 में फोर्ड दीवालिया होने की कगार पर पहुंच गई थी. अमेरिकी कार सेक्टर में उसकी हालत खराब थी. तब टाटा ग्रुप ने फोर्ड के सबसे बड़े ब्रांड्स में से जैगुआर और लैंडरोवर को खरीदने का फैसला किया. इस डील के बाद खुद बिल फोर्ड ने रतन से कहा था, ‘JLR खरीदकर आप हम पर अहसान कर रहे हैं.’
# जूट का थैला लेकर ग्वालियर पहुंचे रतन टाटा

ये अक्टूबर, 2016 की बात है. रतन को ग्वालियर के सिंधिया स्कूल में होने वाले एक फंक्शन में शरीक होना था. स्कूली बच्चों के साथ. स्कूल की तरफ से मैनेजमेंट के कुछ लोग और एक स्टूडेंट एयरपोर्ट पर टाटा को रिसीव करने पहुंचे. उस बच्चे ने बाद में बताया, ‘मुझे लगा था कि उनके साथ ढेर सारे लोग होंगे. मुझे लगा कि उनके साथ सेक्रेटरीज की फौज होगी. बॉडीगार्ड, बाउंसर्स और ढेर सारे बैग होंगे. मैं काफी देर तक इन सारी चीजों का इंतजार करता रहा, लेकिन कोई आया ही नहीं.’
असल में रतन टाटा अकेले आए थे. बिना किसी तामझाम के. बाद में एयरपोर्ट के एक कर्मचारी ने मैनेजमेंट के लोगों को जूट का एक बैग दिया और बताया कि रतन इतना ही सामान लेकर आए हैं. इस घटना के बाद से उस बच्चे के मन में रतन टाटा के लिए इज्जत और भी बढ़ गई.
# भारत-चीन युद्ध की वजह से नहीं हो पाई रतन की शादी
रतन टाटा ने शादी नहीं की. जिंदगी भर काम ही करते रहे. अब भी कर रहे हैं. वैसे तो उन्हें अपनी लव-लाइफ के बारे में बात करना अच्छा नहीं लगता, लेकिन एकाध मौकों पर उन्होंने अपनी जिंदगी का ये पहलू साझा किया. CNN इंटरनेशनल को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि अमेरिका में पढ़ाई के दौरान उन्हें एक लड़की से प्यार हुआ था. दोनों का रिश्ता काफी मेच्योर था और दोनों शादी के लिए तैयार भी थे, लेकिन लड़की इंडिया नहीं आना चाहती थी.

उसी दौरान भारत और चीन के बीच जंग छिड़ गई थी. उस समय के हालात देखकर रतन की प्रेमिका बहुत डर गई थीं. उधर भारत में रतन की दादी की तबीयत काफी खराब हो गई थी, जिसकी वजह से उन्हें भारत लौटना पड़ा. रतन भारत आ गए, लेकिन उनकी प्रेमिका नहीं आईं. कुछ दिनों बाद उन्होंने अमेरिका में ही किसी और से शादी कर ली. उस इंटरव्यू में रतन ने कबूल किया था कि चार बार उनकी शादी बस होते-होते रह गई.
# मुंबई अटैक के बाद होटल ताज के कर्मचारियों की मदद
26/11 के हमले ने मुंबई को हिलाकर रख दिया था. उस हमले में होटल ताज भी निशाना बना था, जहां कई पर्यटक मार दिए गए थे. NSG कमांडोज और पुलिस की मदद से जब ऑपरेशन खत्म हुआ, तब रतन टाटा की दरियादिली देखने को मिली थी. उनके होटल में जितने भी लोग घायल हुए थे, उन सभी का इलाज टाटा ने ही कराया था. हॉस्पिटल में इलाज के दौरान रतन उन लोगों का हाल-चाल लेने भी पहुंचे थे.
इसके अलावा होटल के आस-पास पाव-भाजी और मछली वगैरह का ठेला लगाने वाले जो लोग प्रभावित हुए थे, उन्हें भी रतन टाटा की तरफ से मदद मिली थी. इनमें से कुछ घायल हुए थे, जबकि गोलीबारी की वजह से कुछ लोगों के ठेले तबाह हो गए थे. क्रॉस-फायरिंग में एक ठेलेवाले की बच्ची भी घायल हुई थी. उसके शरीर में धंसी गोलियां निकालने का पूरा खर्च टाटा ने उठाया था. साथ ही, जितने दिन होटल बंद रहा, उतने दिनों तक होटल के सभी कर्मचारियों को पूरी सैलरी दी गई थी.
कहा जाता है कि टाटा कंपनी में नौकरी सरकारी नौकरी जैसी ही होती है. लोगों को सहूलियतें ही इतनी दी जाती हैं. हमले के दौरान ताज के कर्मचारियों ने भी पूरी जिम्मेदारी दिखाई थी. हमले के बाद कर्मचारियों ने भागने के बजाय होटल में मौजूद लोगों की मदद की थी और बाद में सुरक्षाकर्मियों की भी मदद की थी. ये बात इसलिए भी खास है, क्योंकि ताज हमले के प्रभावितों को महाराष्ट्र सरकार की तरफ मुआवजे के लिए लंबे समय तक भटकना पड़ा था.
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