भागना एक नेगेटिव शब्द है. उल्टे पांव भागना. चप्पल छोड़कर भागना. मैदान छोड़कर भागना. भागने में डर और चोरी की भावना छिपी है. पलायन की भावना छिपी है. और जो लड़कियां घर से भाग जाती हैं, उनके लिए भागने में छिपी हैं बददुआएं, लांछन, निष्ठुरता और मां-बाप की नाक कटवा देने का आरोप.
मगर लड़कियां भागती हैं. ऐसी ही एक लड़की है हिमा दास. जिसका नाम बीते एक हफ्ते से सुर्ख़ियों में है. क्योंकि हिमा ने 20 दिनों के अंदर 5 गोल्ड मेडल जीते. और ये जीत ठीक उसी समय शुरू हुई जब सब इंडियन क्रिकेट टीम के वर्ल्ड कप से बाहर होने का शोक मना रहे थे.

हालांकि ये इवेंट अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत छोटे इवेंट थे. जिनकी कोई पहचान नहीं है. मगर देशभक्ति के इस दौर में हमें आदत है हर चीज को देश से जोड़ने की. इसलिए वो मेडल हमने देश के खाते में रखे. हम इंटरनेशनल पहचान के भूखे हैं. और एथलेटिक्स के बारे में जहालत से भरे हुए हैं. इसलिए हमने हिमा को ओलिंपिक जितनी बधाइयां दीं. खैर.
हिमा दास के जैसी ही एक लड़की है दुती चंद. कुछ समय पहले तक जिसके लड़की होने पर ही सवाल खड़े हुए थे. एक लड़की पीटी उषा भी हुई थी. जो तब स्वर्ण परी कहलाई जब उसने बिना ट्रेनिंग, बिना कोचिंग मेडल्स का अंबार लगा दिया.
जब ये लड़कियां मेडल जीतती हैं तो सब कहते हैं कि देश के लिए मेडल जीता. पर देश बहुत छोटा शब्द है. ये लड़कियां महज देश के लिए नहीं भागतीं. ये लड़कियां दुनिया की सभी लड़कियों के लिए भागती हैं. सभी गरीबों के लिए भागतीं हैं. हर उस व्यक्ति के लिए भागतीं हैं जो श्वेत नहीं, पुरुष नहीं, प्रिविलेज्ड नहीं. हर वो लड़की जो ‘लड़की जैसी’ नहीं. क्योंकि ये वो लड़कियां हैं जिनके लिए ‘गोल्ड’ का मतलब गहने नहीं होता.
क्यों जरूरी हैं हिमा दास
ओलंपिक, यानी दुनिया का सबसे बड़ा एथलेटिक इवेंट. इसमें मेडल जीतना तो दूर, क्वालीफाई करना ही किसी भी एथलीट के लिए बड़ी बात होती है. आज ओलिंपिक में कुल मेडल्स के 44 फीसद मेडल्स महिलाओं में बांटे जाते हैं. हां, बीते ओलंपिक्स तक भी लड़कियों के इवेंट्स की संख्या पुरुषों के लिए होने वाले इवेंट्स के बराबर नहीं पहुंची है. तब, जब ओलंपिक्स को शुरू हुए 120 साल से भी ज्यादा हो चुके हैं.
पहले आधुनिक ओलिंपिक गेम्स 1896 में हुए थे. साल 1900 में पहली बार ऐसा हुआ कि लड़कियां भी खेलीं. ये खेल थे लॉन टेनिस, नौकायन यानी नाव चलाना, घुड़सवारी, क्रोकेट (क्रिकेट और गोल्फ जैसा ही एक खेल) और गोल्फ. क्योंकि इन खेलों को लड़कियां आराम से खेल सकती थीं. उन्हें न तेज़ भागने की ज़रुरत थी न छोटे कपड़े पहनने की.

साल 1928 था, जब औरतों को एथलेटिक इवेंट्स में भाग लेने की इजाज़त मिली. और इसके बाद भी औरतों की संख्या कुल भाग लेने वालों में केवल 10 फीसद थी. यानी 90 फीसद लोग अब भी पुरुष थे.
ओलिंपिक खेलों में लड़कियां ठीक तरह से भाग ले सकें, इसमें कुल 32 साल लग गए. और आज भी हर इवेंट लड़कियों के लिए नहीं होता.
खेलों की दुनिया में लड़की होना अपने आप में एक डिसएडवांटेज के तौर पर आता है. उसे और बुरा बनाता है ऐसी लड़की होना जो श्वेत न हो. यानी ‘वाइट’ दुनिया से न हो.
वाइट लड़की न होना
मरिया शारापोवा ने अपने संस्मरण में सेरेना विलियम्स के बारे में लिखा है: ‘वो जैसी टीवी पर दिखती हैं, उससे भी ज्यादा भीमकाय हैं. उनकी बांहें, जाघें भारी और मजबूत हैं. उनसे डर लगता है. साथ में उनकी पर्सनालिटी और कॉन्फिडेंस की वजह से उनके सामने मुझे छोटी बच्ची की तरह महसूस होता है.’
इस तरह की नस्लभेदी सोच केवल सफ़ेद और छरहरी काया वाली मरिया शारापोवा की ही नहीं, लगभग सभी की है. जो महिला वजन में ज्यादा है, मजबूत है, उससे डरा जाना चाहए. क्योंकि वो फेमिनिन नहीं होती. बल्कि पौरुष से भरी होती है.

बरसों से महिला एथलीट्स के औरत होने पर सवाल उठते रहे हैं. और ये केवल प्रोफेशनल स्तर पर ही नहीं है. पॉपुलर कल्चर में भी भारी कसरत करने वाली, मसल्स बनाने वाली लड़की को ‘लड़की टाइप’ नहीं मानते.
लगभग 5 साल पहले ऐसे ही सवाल दुती चंद पर उठाए गए. वजह, उनके टेस्टोस्टेरोन बढ़े हुए थे. टेस्टोस्टेरोन हॉर्मोन होता है. जो पुरुष और महिलाओं, दोनों में पाया जाता है. पुरुषों में ज्यादा पाया जाता है. उनकी दाढ़ी, भारी आवाज और अन्य मर्दाना ट्रेट्स का कारण होता है. टेस्टोस्टेरोन किसी भी लड़की का बढ़ा हुआ आ सकता है. आपका और मेरा भी. मगर दुती चंद को 2014 में, कुछ टेस्ट्स के बाद, कॉमनवेल्थ गेम्स के पहले बैन कर दिया गया. उनसे कहा गया कि जब वो औरत नहीं हैं तो दूसरी औरतों के साथ उनके खेल में कैसे भाग ले सकती हैं. इस वक़्त दुती की उम्र 18 साल थी. सामने पूरा करियर पड़ा था.

ये पहली बार नहीं हुआ था. अक्टूबर 2001 में युवा एथलीट प्रतिमा गांवकर का शव उनके घर के पास एक कुंएं से मिला था. प्रतिमा की उम्र 18 साल थी. कुछ ही समय पहले वो जूनियर एथलेटिक्स चैम्पियनशिप से सिल्वर मेडल जीतकर लौटी थी. स्विमिंग में. उसका सेक्स वेरिफिकेशन टेस्ट हुआ था जिसमें उसे पूरी औरत करार देने से मना कर दिया गया. पब्लिक में इस तरह अपने सेक्स पर बातें होती देख प्रतिमा बर्दाश्त नहीं कर सकी. और पांव में पत्थरों से भरी बोरियां बांध उसी पानी में छलांग लगा दी, जो उसका जीवन था.

2006 एशियन गेम्स में मेडल जीतने वाली पहली तमिल लड़की, शांति सुंदरराजन धावक हैं. उनका जीता हुआ मेडल उनसे छीन लिया गया, क्योंकि वो भी पूरी औरत नहीं निकलीं. शांति बेहद गरीब घर और पिछड़ी जाति से थीं. उन्हें मालूम नहीं था कि किस हॉर्मोन को मेंटेन रखने के लिए किस तरह का खाना खाना है. स्टेट लेवल पर पहचान बनाने के बाद ही उन्हें ढंग का खाना नसीब हो पाया था.

सेक्स टेस्ट में फेल होने के बाद शांति गांव वापस आईं और सीरियस डिप्रेशन का शिकार हो गईं. कोशिश उन्होंने भी की अपना जीवन ख़त्म करने की. ज़हर खा लिया. मगर एक दोस्त ने उन्हें उल्टियां करते हुए देख लिया और वो बच गईं.
कई साल न्याय के लिए लड़ती रहीं. मगर आज तक कुछ नहीं हुआ.
जानने वाली बात ये है सेक्स का टेस्ट करना कोई सामान्य या आम प्रक्रिया नहीं है. न ही ये कंपलसरी है. मगर जब भी इंटरनेशनल एसोसिएशन ऑफ़ एथलेटिक्स फेडरेशन यानी IAAF का जी करता है, वो ये टेस्ट कर सकता है.
दुती चंद ने हार नहीं मानी और कोर्ट फॉर आर्बिट्रेशन ऑफ़ स्पोर्ट यानी CAS में लेकर गईं और जीतकर वापस आईं. कोर्ट ने साबित किया कि टेस्टोस्टेरोन बढ़े होने का अर्थ मर्द या अपूर्ण महिला होना नहीं होता.
दुती चंद बताती हैं, ‘मैंने जो भी इज्जत कमाई थी, सब चली गई थी. सभी दोस्तों ने साथ छोड़ दिया.’
एथलेटिक्स की दुनिया का दोहरापन इस बात से पता चलता है. कि कुछ टेस्ट्स में दुनिया के स्विमिंग जीनियस माइकल फेल्प्स का लैक्टिक एसिड कम पाया गया. नॉर्मल लेवेल्स के मुकाबले. लैक्टिक एसिड से लोग थकते हैं. कम लैक्टिक एसिड आपको ज्यादा एनर्जी देता है. वही काम जो टेस्टोस्टेरोन औरतों में कर सकते हैं. मगर फेल्प्स पर आजतक कोई सवाल नहीं उठा, न ही उनके मेडल वापस लिए गए.
इंसानों की हर नस्ल अलग होती है. उनकी बनावट अलग होती है. मगर इंटरनेशनल लेवल पर आज भी वही मानक है, जो श्वेत खिलाड़ियों और एथलीट्स को सूट करता है. इस बात का सुबूत हैं कैस्टर सेमेन्या, वो अफ्रीकी धावक जो आज की डेट में खुद को औरत साबित करने की लड़ाई लड़ रही हैं.

थर्ड वर्ल्ड औरतें
अक्सर इंडिया के एथलीट पढ़े-लिखे घरों से नहीं आते. गरीबी, सुविधाओं की कमी, कोच न होना, थेरेपिस्ट न होना लगभग हर एथलीट की कहानी है. पीटी उषा ‘स्क्रॉल’ को दिए हुए एक इंटरव्यू में बताती हैं कि जब पहली बार जहाज़ में उड़ीं तो उल्टियां होती रहीं. विदेशी होटल में वेलकम ड्रिंक मिली तो बिना समझे-जाने उसे पी लिया. बाद में चक्कर आने लगे. जब पीटी उषा ने अंतर्राष्ट्रीय दौड़ों में भाग लेना चालू किया था तो न उनके पास कोई डाइट एक्सपर्ट था, न फिजियो, न सप्लिमेंट और न ही कोई मसाज करने वाला.

हिमा दास खेतों में काम करती हुई बड़ी हुई हैं. खेतों में रोपाई और कटाई करती थीं पिता के साथ. तीन क्विंटल अनाज साइकल पर लादकर घर ले जाया करती थीं.
दुती के पास आज इतने संसाधन थे कि वो केस लड़ सकीं. मगर करियर शुरू करते वक़्त वो BPL यानी बिलो पॉवर्टी लाइन परिवार से थीं. ऐसा परिवार, जिसमें खाने के लाले थे. फल-मीट-दूध तो दूर की बात है. एक और लड़ाई थी जो वो साथ-साथ लड़ रही थीं. अपनी लैंगिक स्वीकार्यता की लड़ाई. वो समलैंगिक हैं, ये बात उनका परिवार कभी नहीं अपना सका. न आज अपना पाया है.
दौड़ने को हम नहीं अपना पाते
चूंकि औरतों की सॉफ्ट माना जाता है, दौड़ना उनके जेंडर रोल में फिट नहीं होता. हमारे मिडिल क्लास घरों में एक उम्र के बाद लड़कियों को भागने से मना कर दिया जाता है.
दौड़ना एक आउटडोर क्रिया है और औरत घर से कदम बाहर रख दे तो पितृसत्ता की नानी मरती है. इसलिए लड़कियों को तमाम चीजें बताई गईं. ऐसी चीजें जिनके कोई लिखित सबूत नहीं हैं. लेकिन दिमाग में पीढ़ी दर पीढ़ी बैठा दिया गया है. कि भागोगी तो कुंवारापन ख़त्म हो जाएगा यानी हायमन टूट जाएगा. ये बताया जाता है कि चूंकि औरतों के पास स्तन और भारी कूल्हे होते हैं, भागने से उनके घुटनों पर ज्यादा वजन पड़ता है. और उनके घुटने कमजोर हो जाते हैं. कहा जाता है कि पीरियड में भागेंगी को ज्यादा खून बहेगा.
दौड़ने में हमेशा स्त्रीत्व खोने का खतरा रहता है. केवल दौड़ने ही नहीं, ट्रैकपैंट या लोअर पहनने से भी. फीते वाले जूते पहनने से भी.

लेकिन मेडिकल साइंस का बहाना देकर बताई गई फर्जी बातें भी लड़कियों को रोक नहीं पातीं.
क्रिस्टीन पेम्बरटन विदेशी महिला हैं. इंडिया में रहती हैं. दिल्ली में. दिल्ली की कुछ और महिलाओं के साथ रोज़ सुबह 5 बजे उठकर दौड़ने जाती हैं. क्विंट नियॉन ने बात करते हुए कहती हैं: ‘मुझे दबोचा गया है, घूरा गया है, छेड़ा गया है, मेरे ऊपर थूका गया है.’ मगर ये महिलाएं नहीं रुकतीं. पहले लेगिंग्स, फिर शॉर्ट्स, फिर और छोटे शॉर्ट्स और फिर स्पोर्ट्स ब्रा पहनने की हिम्मत इन्हें कहां से मिलती है? खुद से. दौड़ना इन्हें हर दिन और मजबूत बनाता है.
जब लड़की दौड़ती है
बीते दिनों हिमा का एक वीडियो वायरल हुआ. ये वीडियो उनकी फाइनल रेस का बताया गया. यानी उनके पांचवे गोल्ड का. मगर वो वीडियो पुराना है. तब का, जब हिमा ने अंडर-ट्वेंटी इंटरनेशनल चैंपियनशिप में गोल्ड जीता था.
And this is how Him Das became the first Indian woman to win an #IAAFworlds title pic.twitter.com/0Zhx0QuxZI
— IAAF (@iaaforg) July 12, 2018
हिमा धीरे-धीरे भागती हैं और फिर तेज होती जाती हैं. छोटे से इस क्लिप में वो हवा से बात करती हुई दिख रही हैं. इस विडियो पर वरिष्ठ पत्रकार मनीषा पांडेय लिखती हैं:
‘वो हिमा दास का हवा की तरह उड़ना, वो इतनी मजबूती और भरोसे से उसके पैरों का जमीन पर पड़ना. दौड़ खत्म होने के बाद हिमा के चेहरे पर वो चमक, वो सौम्यता, वो हंसी. वो तिरंगे को लेकर दौड़ती और उसे बदन से लपेटती दुबली-पतली, लेकिन मजबूत भुजाओं वाली लड़की. उसके चेहरे, उसके हाथ, उसकी उंगलियों के हर उतार-चढ़ाव से झांक रही पतली हड्डियां, लेकिन उन हड्डियों में असीम बल. वो जब दौड़ रही थी तो उसके पैरों की गति, उसकी जांघों का बल मानो स्त्रीत्व की नई परिभाषा गढ़ रहे थे. जब वो दौड़ती है तो ऐसी लगती है कि आप उसके मोहपाश में बंधे बिना नहीं रह पाएंगे. स्पोर्ट्स में आपकी कोई गति न हो, तब भी.’
हिमा को देखते हुए आलोकधन्वा की पंक्तियां याद आती हैं:
लड़की भागती है
जैसे फूलों गुम होती हुई
तारों में गुम होती हुई
तैराकी की पोशाक में दौड़ती हुई
खचाखच भरे जगरमगर स्टेडियम में
बीते साल का एक वीडियो है. जिसमें हिमा मेडल लेने के लिए खड़ी हैं. एक नंबर वाले खाने पर. राष्ट्रगान बज रहा है. हिमा की आंखों से आंसू झड़ रहे हैं.

देशप्रेम का ये नमूना गुंडों की समझ से परे है. वो गुंडे जो राष्ट्रगान पर खड़े न होने वालों को पीट देते हैं.
मेडल स्वीकारती हिमा, हिमा नहीं. वो जादुई यथार्थवाद का एक बिंब है. वो एक ही वक़्त में अपना गांव, अपनी मिट्टी, अपना बचपन, अपने संघर्ष, अपनी चमड़ी का रंग, अपने माथे की बिंदी और अंततः अपना देश बन चुकी है.
‘तीसरी दुनिया’ की लड़कियां जबतक भागती रहेंगी घरों से और स्टेडियम में, तबतक दुनिया में उम्मीद रहेगी. वो उम्मीद जो खुद को औरत साबित करने की लड़ाई लड़ रहीं अफ्रीकी धावक कैस्टर सेमेन्या के शब्दों से मिलती हैं: ‘मैं मोक्गादी कैस्टर सेमेन्या हूं, मैं औरत हूं और तेज़ हूं.’

वो उम्मीद जो सऊदी अरब की हिजाबी धावक ने 2016 में दिखाई थी. ओलंपिक की 100 मीटर स्प्रिंट के क्वालीफ़ायर में हिस्सा लेकर.

नीचे जो तस्वीर है, उसमें दिखने वाली महिला सोफी पावर हैं. इनके नाम 106 मील यानी लगभग 170 किलोमीटर मैरेथॉन दौड़ने का रिकॉर्ड है. ये 170 किलोमीटर चढ़ाई वाली रोड पर तय किए थे. 46 घंटों के भीतर सोफी ने ये मैरेथॉन पूरा किया है. इस दौरान उनके साथ उनका दुधमुंहा बच्चा था. जिसको वो रुक-रुककर दूध पिलाती थीं.

वीडियो देखें: