उमेश पंत की कताब आ रही है. ‘इनरलाइन पास’. यात्रा-वृतांत है. ये एक ऐसी ही जर्नी की कहानी है जो बाहर की दुनिया के साथ-साथ मन के भीतर भी चलती है. 18 दिनों में पूरी हुई लगभग 200 किलोमीटर की पैदल यात्रा एक्सपीरियंस हैं इसमें. हिंद युग्म प्रकाशन से आ रही है.
उमेश पंत पहाड़ों से हैं. उत्तराखंड के गंगोलीहाट पले-बढ़े, फिर दिल्ली. जामिया मिलिया इस्लामिया से मास कम्यूनिकेशन में एम.ए. की डिग्री ली। फिर बंबई शहर पहुंचे. बालाजी टेलीफिल्म्स में एसोसिएट राइटर हो अगये, एक साल काम किए. रेडियो वाले नीलेश मिसरा के लिए कहानियां लिखीं. अखबार-मैगजीन में भी आते रहते हैं. ‘गुल्लक’ नाम की एक वेबसाइट भी चलाते हैं. घुमक्कड़ी की लत लगी है, जो घूमता है उसके हाथ में DSLR भी होता है, और तस्वीरों को ढांप के धर लेने का शौक भी. पढ़िए उनकी आने वाली किताब का एक हिस्सा.
इस वक्त हम समुद्र तल से करीब-करीब पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर थे. पीले-पीले फूलों के सामने पार्वती झील थी और झील के सामने एकदम अनछुई ताज़ी बर्फ से ढंका, आकाश की ऊंचाइयों को छूंता आदि-कैलास. इससे खूबसूरत नज़ारा मैंने अपनी ज़िंदगी में पहले कभी नहीं देखा था.
करीब एक घंटा हम एक टीले पर बैठे आस-पास बिखरी दुनिया को निहारते सोचते रहे कि स्वर्ग अगर कहीं होगा तो वो और कैसा दिखता होगा? ये कौन सी ताकत थी जो हमें करीब सवा सौ किलोमीटर के पैदल सफ़र के बाद यहां ले आई थी? इतनी मेहनत करके हम क्यों चले आये थे यहां? वो कौन सी मनःस्थिति है जो अपने-अपने कम्फर्ट ज़ोन से खींचकर हमें देश और दुनिया में बिखरे ऐसे विरले कठिन रास्तों पर ले आती है?
इन सारे सवालों का मौन उत्तर देता हुआ सा एक रहस्यमय वातावरण था ये. सचमुच यहां एक ऐसा सम्मोहन था कि लौटने का मन नहीं कर रहा था. और फिर अचानक एक एहसास हुआ. एक अजीब सा एहसास.
ऊंचाई का एहसास.
जहां हम इस वक्त खड़े थे वहां बर्फ से ढंकी बड़ी-बड़ी पर्वत श्रृंखलाएं हमें खुद से नीचे दिखाई दे रही थी. ये वो जगह थी जहां इंसान नहीं बसते. दूर-दूर तक बस हवा की आवाज़. न पेड़, न पंछी, एक शांत सी झील मौनव्रत करती हुई. चारों तरफ नुकीले पहाड़ बर्फ पहने हुए. जैसे कोई अलौकिक सी दुनिया हो ये जहां न कोई बड़ी इच्छा है, न कोई डर, न घबराहट. जैसे सारी जिज्ञासाएं ख़त्म हो गई हों. मन धुल गया हो जैसे. यहां प्रकृति से कोई छेड़छाड़ नहीं थी. कुछ भी बनावटी नहीं था. बिना छेड़छाड़ के, बिना बनावट के, निहायती मौलिक हो जाना कितना खूबसूरत और मासूम हो सकता है ये क्यों नहीं समझ पाते हम?
फिर एक और एहसास कि यहां वही पहुंच पाते हैं जो ज़िंदगी के रोज़मर्रापन में थोड़ा कम यकीन रखते हैं. जो कुछ समय के लिए ही सही उन बेड़ियों को तोड़ पाते हैं जो आपको ज़िंदगी के बहुत क़रीब आने से रोक देती हैं. इतना क़रीब कि आप ये जानने लगें कि आपकी धड़कनें वायुमंडल का कितना दबाव सह सकती हैं? आपके पैर कितने मील चलकर डगमगाने लगते हैं? आपका चेहरा कितना थककर पसीने से नहा जाता है? आप कितनी ठंड सहन कर सकते हैं? किसी अजनबी की मुस्कराहट देखके आप कितने खुश हो सकते हैं या फिर बिना किसी पुराने रिश्ते के आप पहली बार किसी के दुःख को देखकर कितना दुखी हो सकते हैं? ऊंची पहाड़ी से गिरता कोई झरना, किलोमीटरों तक पहाड़ उतरती जाती कोई पगडंडी, अपनी ही धुन में छलछलाती चलती चली जाती कोई नदी आपकी भावनाओं में क्या फर्क डालती है?
मुझे इस वक्त उस चरवाहे तस्वीर की वो इच्छाशक्ति याद आ रही थी जो इतनी दुरूह जगह पर बस इसलिए महीने गुजार सकता है कि भेड़ें चराकर कमाए पैसे से अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में पढ़ा सके. वो मां याद आ रही थी जिसने मान लिया था कि उसके लिए मेरी बेटी मर गई है, क्यूंकि उसने एक परदेसी से प्यार कर लिया है. कुहू की वो आंखें याद आ रही थी जो उसके नन्हे हाथों में कैमरा आ जाने से कौतूहल से चमक उठी थी. क्षतिग्रस्त रास्तों की मरम्मत करने वाला वो मजदूर याद आ रहा था जो बर्फ के ग्लेशियर के किनारे सूखी ज़मीन पे बैठा अपनी चोट के बारे में बताते हुए आकाश से भी गहरी उदासी उस सन्नाटे में बिखेर रहा था. उस खच्चर के चेहरे की वो तनती नसें याद आ रही थी जो भारी बोझ लादे खडंजा चढ़ रहा था.
मुझे वो मैं याद आ रहा था जो यात्रा शुरू करने से पहले इन अजनबी लोगों, जीवों और दृश्यों से नहीं मिला था. जिसने ज़िंदगी में इससे पहले कभी भोजपत्र के पेड़, जंगली भरल, झुप्पू और ग्लेशियर नहीं देखे थे. जो नहीं जानता था कि पांच हज़ार मीटर की ऊंचाई पर खड़े होकर दुनिया को अपने क़दमों के नीचे महसूस करना कैसा होता है?
और फिर अचानक सामने खड़े बर्फ की सफेदी से चमक रहे उस आकाश को करीब करीब छू लेते उस आदि कैलास पर्वत पर नज़र गई तो अपने अदनेपन को भी तुरंत महसूस कर लिया मैंने. इतनी पड़ी प्रकृति के एक बिंदु मात्र हिस्से सा मैं. आंखें बंद की. पूरी दुनिया उस अंधेरे में एक पल को कहीं खो गई. फिर चेहरे पर पड़े ठंडी हवा के तेज़ झोंके ने जैसे सारे ख्यालों को मांझ दिया हो. आंख में पानी की एक हल्की सी लकीर उस मिटाए हुए को धोने चली आई.
अपना पुराना ‘मैं’, आदि कैलास पर्वत की उन ऊंचाइयों में छोड़ दिया था मैंने. जो यहां आता है वो नया होकर लौटता है. पर लौटता है वहीं जहां से वो पुराना सा चला आया था. अपने पुरानेपन में नया होकर लौटना था मुझे.
लौटना था मुझे.
ये लौटना यात्राओं का एक ऐसा सच है जिसे चाहे-अनचाहे हमें अपनाना तो होता है. ऐसी यात्राओं के बाद जहां हम लौट रहे होते हैं, जिसे हम घर कहते हैं उसकी अवधारणा ही बहुत अर्थहीन लगने लगती है. पैसा हासिल करने के लिए नौकरी नहीं बल्कि अनुभव हासिल करने के लिए यात्राएं अगर जीवन का सच बन जाती तो ज़िंदगी कितनी हसीन होती. है ना?
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