सितंबर 1997
दिल्ली दुरुस्त नहीं थी. और थी भी. बैठने वाले शंका से भरे थे. हमेशा की तरह. और जो नहीं बैठे थे वे साजिशें रच रहे थे. इसके लिए उनके पास संभावनाएं नाम का शब्द था. दो लोग ये सबद उन दिनों खूब जपते थे. एक अटल बिहारी वाजपेयी, दूसरे सीताराम केसरी.
वजह. नरसिम्हा राव के बाद केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष बने. उनकी पार्टी के समर्थन से संयुक्त मोर्चा की देवेगौड़ा सरकार चल रही थी. फिर केसरी का मन किया, ‘यदि होता प्रधानमंत्री मैं.’ मन की करने के लिए उन्होंने देवेगौड़ा सरकार गिरा दी. मगर अपनी नहीं बना पाए. सीपीएम महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत अड़ गए. झक मारकर केसरी को एक नए नाम पर सहमत होना पड़ा. इंद्र कुमार गुजराल का नाम. जिस दिन गुजराल ने शपथ ली, उसी दिन सब समझ गए थे कि जल्द चुनाव होंगे.

उधर बीजेपी थी. जो इस लोकसभा के शुरुआती 13 दिन सरकार चला चुकी थी. अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में. और ऊपर बताई सारी स्थितियों पर नजर बनाए थी. नजर पूरी दुनिया के लोगों की भी थी भारत पर. खासतौर पर राजनयिक हलकों के लोगों की. ये लोग समय समय पर मिलते रहते. बीजेपी के उन नेताओं से, जो अहम थे.
ऐसी ही एक मीटिंग हुई 18 सितंबर 1997 को. नई दिल्ली में. भारतीय जनता पार्टी के अशोक रोड स्थित दफ्तर में. पार्टी के संगठन महासचिव कोडिपकम नीलमेघाचार्य गोविंदाचार्य की. दो ब्रिटिश डिप्लोमेट्स से. बीएचयू से पढ़े और फिर आरएसएस के प्रचारक बने गोविंदाचार्य के लिए ये रुटीन सा था. 1988 में बीजेपी के साथ जुड़ने के बाद से ही वह हर वर्ग के लोगों से मिलते.

अब जब बीजेपी के सत्ता में आने की संभावनाएं प्रबल थीं, तब गोविंदाचार्य का काम और बढ़ गया था. वैसे भी वह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दोनों की आंखों के तारे थे. रामजन्मभूमि आंदोलन हो या फिर सोशल इंजीनियरिंग ( पिछड़ी जाति के नेताओं को पार्टी में आगे बढ़ाना) वह हमेशा आगे की देख चलते.
लेकिन इस आगे की राह में बीजेपी ने जिन अटल बिहारी वाजपेयी को अपना चेहरा बनाया था, वह गोविंदाचार्य को जमते नहीं थे. ये लगाव दोतरफा था. एक बानगी देखिए इसकी. 1992 में बीजेपी के एक अधिवेशन में बाकायदा नाम लेकर तंज कसते हुए वाजपेयी बोले थे, मेरे पास गोविंदाचार्य के लिए एक सवाल है. क्या एक नेता का सम्मान बढ़ाने के लिए दूसरे नेता का अपमान करना जरूरी है?

मगर वो साल दूसरा था. तब वाजपेयी ढलान पर थे. युग आडवाणी का था. लेकिन 1995 के आखिरी में एक बार फिर समता हो गई थी. मुंबई अधिवेशन में आडवाणी ने वाजपेयी को पार्टी का पीएम घोषित कर दिया था.
अब वापस लौटते हैं 1997 पर. गोविंदाचार्य की डिप्लोमैट्स से मुलाकात के कुछ दिनों बाद हिंदी अखबारों के गॉसिप कॉलम में एक खबर छपी. 6 अक्टूबर, 1997 को. मजमून कुछ इस तरह था कि पार्टी के एक ताकतवर महासचिव ने विदेशियों के दल से कहा. अटल पर फोकस मत करिए. आडवाणी पर करिए. अटल मुख नहीं मुखौटा हैं. इस खबर ने जल्द ही तेज सुर पकड़ लिए. पंजाब केसरी समेत कई अखबारों ने इसे पहले पन्ने पर छापा. अटल बिहारी वाजपेयी के खास पत्रकार भानु प्रताप शुक्ल ने दैनिक जागरण में अपने कॉलम में इसपर विस्तार से लिखा.

जब ये सब हो रहा था, तब अटल बुल्गारिया के दौरे पर थे. वह दिल्ली लौटे और आते ही दो चिट्ठियां लिखीं. पहली अपने पहले निजी सचिव रहे पुराने दोस्त, और मौजूदा पार्टी अध्यक्ष लाल जी को. हिंदी में. तीन पंक्तियों की-
विदेश यात्रा से वापस आने के बाद श्री गोविंदाचार्य का एक इंटरव्यू पढ़ा.
आपने भी जरूर पढ़ा होगा.
विजयादशमी की शुभकामनाएं.
संकेत साफ था. वध का समय आ गया था.

मगर चिट्ठियां तो दो थीं. दूसरी सीधे गोविंदाचार्य को भेजी गई. उनके बयान पर सफाई मांगी अटल ने. और इसके बाद बड़ी सफाई से अटल खेमे के लोगों ने ये दोनों खत मीडिया में लीक कर दिए. वाजपेयी इतने पर ही नहीं थमे. वह इस बार गोविंदाचार्य को ठिकाने लगाने के इरादे तय कर चुके थे. अगले रोज वह एक किताब के विमोचन समारोह में गए. यहां बीजेपी और संघ के कई वरिष्ठ नेता मौजूद थे. वाजपेयी मंच से तंज में बोले, मुझे अचरज होता है, जब कोई बोलने के लिए बुलाता है. आखिर एक मुखौटे को इतनी अहमियत क्यों.
ये संकेत था. प्रच्छन्न नहीं. स्पष्ट. संघ और बीजेपी दोनों को. कि बलि होकर रहेगी. वाजपेयी ने दो रोज बाद फिर मुंह खोला. तब तक देश की कई पत्र पत्रिकाओं में सर्वे पोल छप रहे थे. इनमें अटल बिहारी को बीजेपी से ज्यादा लोकप्रिय बताया जा रहा था. इसी समय वह भारतीय जनता युवा मोर्चा के एक अधिवेशन में पहुंचे. इस बार मुखौटे से आगे की बात बोली. वाजपेयी ने कहा,राजनीतिक दल प्रधानमंत्री नहीं बनाते हैं. जनता बनाती है. ये बात संगठन और समर्थन के संदर्भ में कही गई थी. लेकिन बिटवीन द लाइंस सबको अर्थ समझ आ रहा था. सब एक्शन में आ गए.

गोविंदाचार्य ने अपनी सफाई में मुखौटा वाले कमेंट से इनकार किया. वह बोले, अटल और आडवाणी, राम और लक्ष्मण की तरह हैं मेरे लिए. कोई अपने राम के लिए इस तरह की भाषा कैसे इस्तेमाल कर सकता है. आज तक न्यूज चैनल को दिए इंटरव्यू में गोविंदाचार्य एक कदम और आगे बढ़ गए. वह बोले, अटल जी मुझे प्यार करते हैं.
इस सफाई के बाद आडवाणी ने गोविंदाचार्य को साफ किया. अभी आपको नेपथ्य में जाना होगा. एक बार वह पीछे गए फिर आगे नहीं आ पाए. क्योंकि आ गए थे अटल बिहारी.
और चले गए थे गोविंदाचार्य. 2000 की शुरुआत में. अध्ययन अवकाश के लिए. और उसके बाद वापसी, वापसी की बाट जोहती रही.

(गोविंदाचार्य के इस प्रसंग के कई ब्यौरे सबा नकवी की किताब शैडोज ऑफ सैफ्रन (Shadows of Saffron, from Vajpayee to Modi) से लिए गए हैं. राजनीतिक पत्रकार सबा की ये किताब राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए अच्छा रीडिंग ऑप्शन है. इसे वेस्टलैंड पब्लिकेशन ने छापा है.)
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