मैं सातवीं में था. शाम के वक्त एक दिन दोस्त के यहां गया तो देखा कि उसकी मम्मी बाहर के कमरे में बैठी हैं. मेरा उनके यहां आना-जाना था. तो दोस्त को देखने अंदर के कमरों की तरफ बढ़ गया. तब दिखा कि दोस्त, उसका भाई और उसके पापा किचन में खाना बना रहे थे. दोस्त को देखते ही मैंने हाथ से इशारा किया, ”क्या हुआ?” उसने कहा कि मम्मी का ”सर दुख रहा है.” मेरे लिए ये नया था. सर दुखने जितनी ‘माइनर’ प्रॉब्लम के लिए मम्मियां खाना बनाने से छुट्टी कहां लेती हैं? तो बाद में मैंने उससे इस बारे में खोद के पूछा. पर उसने बात यूं उड़ा दी कि अभी दो दिन बाद मम्मी ‘ठीक’ हो जाएगी. मैं और चकरा गया. मैंने बचपन से अपनी मां को महीने में पूरे दिन किचन में खाना बनाते देखा था. पूरे महीने. बिला नागा.
मैं अपने दोस्त के यहां के सिस्टम से कंफ्यूज़ हो गया था और मेरा दोस्त मेरे सवालों से. हम दोनों को उस वक्त ‘फुल्लू’ जैसी कोई फिल्म देखने की ज़रूरत थी जो हमें बताए कि पीरियड्स होते क्या हैं.
लेकिन तब वो बनी नहीं थी. अब बनी है. बावजूद इसके, मैं और मेरा दोस्त अगर आज सातवीं में होते तो ‘फुल्लू’ देख नहीं पाते. क्योंकि सेंसर बोर्ड ने इस फिल्म को ‘A’ सर्टिफिकेट थमा दिया है. 18 से कम उम्र के दर्शक इसे सिनेमा में नहीं देख सकते. टीवी पर ये फिल्म रात ग्यारह के बाद ही आएगी और वो भी बुरी तरह कट पिट कर.
और ये बात खबर न बनती अगर दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने पूछा न होता कि आखिर इस फिल्म में ऐसा क्या है जो सेंसर को ‘A’ सर्टिफिकेट देना पड़ रहा है.
गंदी बात पर गंदी फिल्म
अभिषेक सक्सेना की डायरेक्ट की ‘फुल्लू’ की कहानी कुछ-कुछ अरुणाचलम मुरुगनाथम की कहानी जैसी है. अरुणचलम मुरुगनाथम. वो आदमी जिसने अपना घर-बार, अपनी इज़्जत और अपनी शादी तक को दांव पर लगा कर एक ऐसी मशीन बनाई जिससे से हिंदुस्तान की करोड़ों औरतों के लिए सस्ते और करगर सैनिटरी नैपकिन बन सकते हैं. ये सेंसर बोर्ड को ‘अडल्ट कंटेंट’ लगता है. क्यों, वो नहीं बताता. और इस वाकये में सेंसर बोर्ड का ‘नहीं बताना’ ही वो बात है जो सबसे ज़्यादा कचोटती है.
क्योंकि इसका मतलब यही है कि ‘समाज’ के और लोगों की तरह ही सेंसर बोर्ड को भी पीरियड्स एक ‘गंदी बात’ लगती है. गंदी बात, जिस पर शर्म आनी चाहिए. जो छुपी रहनी चाहिए. इसलिए उसका ज़िक्र चुप्पे-चुप्पे ही होना चाहिए. उसका ज़िक्र या तो भद्दा है या तो हिंसक. उसे परदे पर नहीं होना चाहिए, टीवी पर भी नहीं.

‘साफ’ हिंदुस्तान में औरतों की जगह कहां है ?
पूरे हिंदुस्तान में एक इंसान ऐसा नहीं मिलेगा जो कह दे कि उसे प्रधानमंत्री के ड्रीम प्रोजेक्ट स्वच्छ भारत अभियान पर आपत्ति है. 2 अक्टूबर को क्या केंद्र क्या राज्य, मंत्री से लेकर संतरी तक झाडू लगाते हैं, दूल्हे के घर में संडास न होने पर बारातें लौटा दी जाती हैं, मानो पूरे ‘सवा-सौ करोड़ मानवी’ सफाई ही सफाई चाहते हैं. लेकिन इस ‘साफ’ भारत में औरतों के लिए कितनी जगह होगी, इस सवाल से हर कोई कतराता है. पैड्स न खरीद सकने वाली वो औरतें जब मजबूरी में कपड़ों की चिंदियों से काम चलाती हैं (कुछ औरतें इन कपड़ों / चिंदियों को धोकर दोबारा इस्तेमाल भी करती हैं.) तो वो अपने आप स्वच्छता के इस कुलीन कॉन्सेप्ट से बाहर हो जाती हैं.
हमारे यहां औरतों से जुड़ी हर चीज़ में एक तरह का पोर्नोग्रैफिक सुख ढूंढने का चलन है. उसके कपड़े, उसका शरीर सब कुछ मर्द को उद्वेलित (प्रोवोक) करने वाला माना जाता है. कोई साधारण सी तस्वीर जिसमें किसी औरत के होठों पर चॉकलेट लगी हो, कामुक होने का टेस्ट पास कर जाती है. ऐसी हमारी कंडिश्निंग है. मेंस्ट्रुएशन एक ऐसी प्रक्रिया है जो किसी लड़की या औरत को असहज भी कर सकती है. उसे तकलीफ दे सकती है. लेकिन मर्द की सोच में वो कामुक आनंद (प्लेज़र) से जुड़ी हुई चीज़ है. औरत के शरीर से जुड़े मुद्दे पर बनी एक फिल्म को ‘अडल्ट’ सर्टिफिकेट देकर इसी तरह की सोच को पक्का किया है.
मर्द सड़क पर खड़े होकर पेशाब कर सकता है, थोड़ा किनारे पर होकर ‘दो नंबर’ भी कर सकता है. ये व्यवहार सभ्याता के हिसाब से अपवाद में आता है लेकिन फिर ये देख कर फिल्म में हंसा जा सकता है. बावजूद इसके, एक औरत का मासिक धर्म हर 28 दिन आने के बाद भी हमारे दिमाग में ‘रुटीन’ का हिस्सा नहीं बन पाया है.

इस पूरे वाकये में राहत देने वाली सिर्फ एक बात है. वो ये कि मनीष सिसोदिया ने खुल कर ऐसी किसी बात पर अपनी राय रखी है जिस पर बोलने से लगभग सारे नेता कतराते हैं. पीरियड्स या पीरियड्स से जुड़ी किसी बात को ‘शर्म’ से न जोड़ने वाला नेता एक असल रिस्क उठाता है. हमारे यहां लोगों की सामूहिक चेतना थोड़े से ही में चोटिल हो जाती है और राजनीति इस थोड़े से का ही खेल है. मनीष का इस से ऊपर उठना कलेजे को कुछ ठंडक देता है. बता दें कि मनीष के ही राज्य दिल्ली में सैनिटरी नैपकिन पर सबसे कम ( 5% ) टैक्स है. वन नेशन – वन टैक्स का राग रट कर बनाए GST के तहत ये 13 % रहने वाला है.
सेंसर बोर्ड की इस हरकत का गहरा असर होने वाला है. अभिषेक सक्सेना कह चुके हैं कि ‘A’ की वजह से उन्हें फिल्म के प्रमोशन में काफी दिक्कतें आ रही हैं. सोशल मीडिया के अलावा वो अपनी फिल्म को खुल के प्रोमोट नहीं कर पा रहे. दिल्ली सरकार के कैबिनेट को फिल्म दिखाने के पीछे उनका मकसद यही था कि किसी तरह फिल्म को ‘U/A’ सर्टिफिकेट दिला दिया जाए. ‘A’ सर्टिफिकेट के चलते अगर ये फिल्म पिट जाती है तो आइंदा कोई भी डायरेक्टर-प्रोड्यूसर मेंस्ट्रुएशन या उसकी तरह के ‘टैबू’ पर फिल्म बनाने से कतराएगा. सेंसर बोर्ड एक फिल्म को ही नहीं दबा रहा है. वो एक पूरे डिस्कोर्स के दरवाज़े बंद कर रहा है.
मैं इस उम्मीद में हूं कि सेंसर बोर्ड अब भी अपने फैसले पर विचार कर ले. क्योंकि मेरे जैसे कई लड़के हैं, जिनके लिए ये फिल्म बहुत ज़रूरी है.
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