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क्या बस हंसी-खेल नहीं है 10 इयर चैलेंज, क्या इससे बहुत बड़ा काम निपटाया जा रहा है?

जो फोटो आपने 10 इयर चैलेंज में डाली, जानिए उनसे क्या-क्या हो सकता है...

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फेसबुक पर लोगों ने 10-ईयर चैलेंज शुरू किया. इसमें लोग अपनी अब की फोटो और 10 साल पहले की फोटो डालने लगे. अब ये बात हो रही है कि इस चैलेंज के बहाने फेसबुक ने कितना सारा क्लियर कट डेटा जमा कर लिया है. ये मार्क जकरबर्ग की फोटो है.
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स्वाति
18 जनवरी 2019 (Updated: 18 जनवरी 2019, 08:20 AM IST) कॉमेंट्स
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क्या 'Facebook 10-year challenge' फेसबुक की कोई प्लानिंग है? क्या फेसबुक ने हमारा डेटा हासिल करने के लिए ये चैलेंज शुरू किया? तब और अब. तब माने 10 साल पहले. पिछले कुछ दिनों से फेसबुक की हमारी न्यूज़ फीड पर धड़ाधड़ ऐसी पोस्ट्स आ रही हैं. '10-year challenge' का हैशटैग लगाकर लोग अपनी फोटो डाल रहे हैं. इस चैलेंज का सवाल है कि बढ़ती उम्र आपको कैसे बदल रही है, बताइए. फोटो डालकर दिखाइए कि 10 साल पहले के आप और अब के आप में कितना फर्क आया है. क्या आम, क्या खास, लाखों लोग इस चैलेंज में हिस्सा ले चुके हैं. मगर अब इस चैलेंज के पीछे की मंशा पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं. क्या हैं सवाल? अमेरिका की एक मैगजीन है- वायर्ड. वेबसाइट भी है इसकी. 15 जनवरी को इसपर केट ओ नाइल का एक आर्टिकल आया. इसमें एक आशंका जताई गई. कि हो सकता है कि फेसबुक ने चेहरे से पहचान करने वाले आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (फेशिअल रेकगनिशन) के अल्गॉरिदम के लिए ये सारा डेटा जमा किया हो. लोगों ने कहा, ये डेटा तो फेसबुक के पास था ही. वो खुद ही लोगों की प्रोफाइल फोटो खंगाल सकते थे. फिर ये चैलेंज देने की जहमत क्यों करते? फेसबुक को सीधा और क्लियर डेटा मिल गया केट ने इसका एक जवाब ये दिया कि जरूरी नहीं लोगों ने उसी साल की, उसी समय की फोटो डाली हो. मतलब उन पुरानी तस्वीरों की कोई क्रोनोलॉजी हो, क्रम हो, ये पक्का नहीं. मगर इस चैलेंज से फेसबुक को साफ पता लग जाएगा. कि ये फलां आदमी की 10 साल पहले की फोटो है और ये आदमी/औरत अब ऐसा दिखता/दिखती है. मतलब साफ-साफ तब और अब की फोटो हासिल हो गई उसे. केट के मुताबिक, इस चैलेंज के बहाने अब फेसबुक के पास क्लियर डेटा है. 2008 की फोटो, 2018 की फोटो. 2009 में एक्स वाई ज़ेड और 2019 में एक्स वाई ज़ेड. अल्गॉरिदम को बेहतर बनाने के लिए ढेर सारा डेटा चाहिए इस आर्टिकल में फेसबुक का बयान भी था. कि ये ट्रेंड यूजर्स का शुरू किया हुआ है. फेसबुक ने न तो इसे शुरू किया, न उसे इससे कुछ मिलने वाला है. इसके जवाब में केट ने लिखा. कि कैंब्रिज ऐनालिटिका के बाद हम जानते हैं कि फेसबुक पर सोशल इंजिनियरिंग से जुड़े प्रयोग हुए. और उनके बहाने डेटा जुटाया गया. उस डेटा का राजनैतिक इस्तेमाल भी हुआ. फेसबुक के सहारे लोगों का वोट प्रभावित किया गया. केट का कहना था कि अगर फेसबुक उम्र के हिसाब से चेहरे में आने वाले अंतर को पहचानने की तकनीक, इसका अल्गॉरिदम दुरुस्त करना चाहता हो. इस ट्रेनिंग के लिए उसे ढेर सारे डेटा की ज़रूरत होगी. ढेर सारे लोगों की तस्वीर चाहिए होगी. दो तस्वीरों के सेट होंगे. एक अभी की फोटो, एक 10 साल पहले की. तो आर्टिफिशल तकनीक के पास ढेर सारे सैंपल होंगे. उम्र बढ़ने के साथ चेहरे में क्या और कैसा अंतर आता है, इसकी रिसर्च के लिए. इस ढेर सारे डेटा का इस्तेमाल करके वो खुद को बेहतर कर सकेगा. आज की तारीख में सबसे कीमती चीज है इंसानों से जुड़ा डेटा आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) पर दुनियाभर में बहुत काम हो रहा है. जानकारों का मानना है कि आने वाला वक़्त AI का ही है. खुद चलने वाली कारें हों या ऐमजॉन का एलेक्सा. या गूगल मैप्स ले लीजिए. या फिर ये बात कि आपने किसी ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट पर एक बैग देखा. मगर वो खरीदा नहीं. थोड़ी देर बाद आपको अपना फेसबुक स्क्रॉल करते हुए भी वो बैग दिखेगा. और भी बैग्स के विकल्प दिखेंगे. ये सब AI है. धीरे-धीरे इस पर हमारी निर्भरता बढ़ती जा रही है. इसकी एक मिसाल गूगल मैप ही है. आसान लगता है, मदद मिलती है, तो हम झट से गूगल मैप खोल लेते हैं. दुनियाभर की बड़ी-बड़ी कंपनियां AI पर प्रयोग कर रही हैं. इसे और बेहतर, और सटीक बनाने में लगी हैं. उनके लिए सबसे कीमती चीज है डेटा. फेशिअल रेकगनिशन के फायदे भी हैं फेशिअल रेकगनिशन अल्गॉरिदम के कुछ फायदे भी हैं. जैसे वायर्ड के लेख में दिल्ली पुलिस की मिसाल दी गई है. 2018 में दिल्ली पुलिस ने फेशिअल रेकगनिशन तकनीक की मदद से करीब 3,000 गुमशुदा बच्चों को खोज निकाला. बस चार दिन के भीतर. बच्चों का चेहरा बहुत तेजी से बदलता है. ऐसे में एक भरोसेमंद फेशिअल रेकगनेशन अल्गॉरिदम बहुत मददगार साबित हो सकता है. वो कैलकुलेट कर सकता है, अनुमान लगा सकता है कि बच्चा इतने दिनों बाद कैसे दिखता होगा. ...और नुकसान भी हैं क्या नुकसान हो सकते हैं, इसका भी ज़िक्र है वायर्ड के लेख में. एक मिसाल है हेल्थ पॉलिसी और इंश्योरेंस. मान लीजिए कि कंपनियों के पास डेटा मौजूद हो. कि किसी इंसान की शक्ल पर उम्र का असर ज्यादा दिख रहा है. मतलब वो अपने साथ वालों की तुलना में जल्दी बूढ़ा हो रहा है. तो हो सकता है कि हेल्थ पॉलिसी देने वाली कंपनी या इंश्योरेंस कंपनी उसकी प्रीमियम का पैसा बढ़ा दे. उनको लगे कि इस आदमी को पॉलिसी देने में जोखिम है. हो सकता है कि कवरेज भी न दें वो. ये सब मुमकिन होगा डेटा के कारण. ऐसा भी तो मुमकिन है मान लीजिए आप निकारागुआ में रहते हैं. वहां तानाशाही है. राष्ट्रपति को हटाने के लिए आम लोग विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. राष्ट्रपति हिंसा से इसे दबा रहे हैं. मान लीजिए कि निकारागुआ की इस तानाशाही सरकार के पास फेशिअल रेकगनिशन डेटा आ जाए. ढेर सारे नागरिकों का. उसका कितना बेजा इस्तेमाल कर सकती है सरकार. मतलब डेटा का इस्तेमाल कहां हो रहा है, किस काम के लिए हो रहा है, इसकी जानकारी रखना ज़रूरी है. और इसके लिए ज़रूरत है जागरूकता की. डेटा को लेकर जागरूकता बेहद ज़रूरी है वायर्ड के आर्टिकल में ऐमजॉन का ज़िक्र है. ऐमजॉन ने 2016 में रियल टाइम फेशिअल रेकगनिशन सेवा शुरू की थी. उन्होंने सरकारी एजेंसियों और पुलिस डिपार्टमेंट को ये सर्विस बेची. ऐमजॉन की इस तकनीक के कारण डिपार्टमेंट न केवल अपराधियों को ट्रैक कर सकता है. बल्कि बेगुनाहों को भी ट्रैक कर सकता है. जैसे- कोई प्रदर्शनकारी. कोई विसल ब्लोअर. ऐसी ही चिंताओं के कारण ऐमजॉन की इस सर्विस पर सवाल उठे. फिर अमेरिकन सिविल लिबर्टीज यूनियन ने ऐमजॉन से ये सर्विस बंद करने को कहा. ये जागरूकता की वजह से ही तो मुमकिन हुआ. ये एक चैलेंज, किसी एक ट्रेंड का सवाल नहीं है वायर्ड के इस आर्टिकल का कहना था कि ज़रूरी नहीं कि इस 10 ईयर चैलेंज का कोई नुकसान हो. या इसके पीछे कोई बुरी मंशा छुपी हो. मगर तकनीक के मामले में हमें सावधानी बरतनी चाहिए. हम क्या डेटा बना रहे हैं, इसका क्या असर हो सकता है, इसका क्या इस्तेमाल हो सकता है, इन सबके बारे में सोचना चाहिए हमें. क्योंकि हम नहीं जानते कि कौन सी तकनीक कैसे इस्तेमाल हो रही है. कि ये किसी एक ट्रेंड का सवाल नहीं है. वायर्ड इस आर्टिकल में उठाए गए सवाल पर फोर्ब्स ने भी आर्टिकल छापा है. इसमें भी ये सवाल दोहराए गए हैं. हमारा डेटा कंपनियों के मुनाफे का ईंधन है AI के जमाने में हमें एक बात पक्के से मालूम है. कि इंसान और उनसे जुड़ा ब्योरा सबसे कीमती डेटा है कंपनियों के लिए. क्योंकि इंसान ही हैं जो असली और डिजिटल की दुनिया के बीच का लिंक हैं. जैसे कार को चलाने के लिए उसमें ईंधन डालना होता है. वैसे ही हम इंसानों से जुड़ा डेटा कंपनियों के लिए ईंधन है. ये डेटा उनके सिस्टम को, AI को और बेहतर करता है. और जो जितना बेहतर होगा, वो उतने प्रॉफिट में रहेगा. इसीलिए हमें अपने डेटा को लेकर सजग रहना चाहिए. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में इस डेटा का बहुत अहम रोल रहा. दुनियाभर में इसपर बहस हो रही है. ज़रूरत है कि हम भी इसको लेकर गंभीर हों.
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