कौन थे अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी? जिन्होंने ईरान में शुरू की इस्लामिक क्रांति
1978 बीतते-बीतते Mohammed Reza Shah Pehalvi ने 16 जनवरी, 1979 को ईरान छोड़ दिया. ईरानी अख़बारों ने छापा- ‘Shah Gone’.

जनवरी 1978 की बात है. ईरान में लोग अभी सुबह-सुबह जागे ही थे. अख़बार वाला अख़बार फेंककर गया, लोगों ने जिल्द खोली. सामने पन्ने पर जो दिखा, वो पढ़ते ही कुछ ने अख़बार फाड़कर फेंक दिया, कुछ ने अख़बार उल्टे पांव उठाकर बाहर फेंक दिया. और कई ऐसे थे, जो अगला-पिछला सोचे बिना सड़क पर उतर गए. इस एक सुबह के अख़बार ने दुनिया की सबसे बड़ी क्रांति में से एक छेड़ दी थी. तख़्तापलट की नींव रख दी थी. और नींव रख दी थी एक मुस्लिम राष्ट्र की. तो समझते हैं कि उस सुबह ईरान के अख़बार में क्या छपा था? कौन थे जो सड़क पर उतरे और किसके लिए? दुनिया की सबसे बड़ी ‘इस्लामिक क्रांतियों’ में से एक कैसे छिड़ी और कैसे बना ईरान, एक मुस्लिम राष्ट्र?
अख़बार का नाम था ‘एत्तेलाआत’. उन दिनों ईरान के बड़े अख़बारों में से एक. जो स्टोरी इसमें छपी, वो कह रही थी
अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी एक ब्रिटिश एजेंट हैं. उपनिवेशवाद की सेवा कर रहे हैं. खुमैनी की ईरानी पहचान पर भी सवाल है और उन पर अनैतिक जीवन जीने का आरोप है.

12 से 18 घंटे में बवाल भयंकर बढ़ चुका था. पुलिस ने शूट एट साइट का ऑर्डर दिया. देखते ही गोली मारो. कम से कम 20 लोग मारे गए. अख़बारों पर सेंसरशिप लग गई. तो साब फिर से सवाल आता है. कि जिस एक नाम के आने से इतना बवाल हुआ, वो अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी कौन थे? इस पूरे बवाल के बाद क्या हुआ और क्या है ईरान की इस्लामिक क्रांति की पूरी कहानी?
फारस, आज का ईरान और अतीत के पर्शियन साम्राज्य का इलाका. प्रथम विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन, पर्शिया को अपना प्रोटेक्टोरेट यानी संरक्षित राज्य बनाना चाहता था. लेकिन बात बनी नहीं. वजह, पर्शिया सेना के तमाम धुरंधर लड़ाके. इन्हीं में से एक था रेज़ा शाह, जिसने धीरे-धीरे सेना के भीतर अपने कद में इजाफ़ा किया था, अहम ज़िम्मेदारियां हासिल की थीं. रेज़ा का पहचानों पर बड़ा ज़ोर रहता था. अपनी ईरानी पहचान को पुख़्ता करने का एक जुनून था रेज़ा के सिर पर. और इसीलिए उसने अतीत की भाषा पहलवी को अपने नाम से जोड़ा, 1925 में ‘शाह पहलवी’ की उपाधि ली और यहां से नींव रखी गई पहलवी राजशाही की.
रेज़ा शाह पहलवी ने 1941 तक यानी 16 साल पर्शिया पर राज किया. राज ख़त्म होते-होते पर्शिया बदल चुका था. सबसे बड़ा बदलाव 1935 में हुआ. पर्शिया, ईरान बन गया. दरअसल, पर्शिया के लोग पहले इस इलाक़े को ईरान ही बुलाते थे. रेज़ा शाह ने बरसों बाद ये नाम ज़िंदा किया. रेज़ा की कोशिश ईरान को एक सेंट्रलाइज़्ड, वेस्टर्न, सेकुलर और प्रो-वुमन इमेज देने की थी. उदाहरण के लिए 1936 में रेज़ा शाह का बुर्के और हिजाब पर लगाया गया बैन.

रेज़ा के बाद 1941 में उनके बेटे मोहम्मद रेज़ा पहलवी ईरान के शाह बने. बाप-बेटे ने मिलाकर क़रीब 53 साल तक ईरान पर शासन किया. इसमें 1925 से 1953 तक एक संवैधानिक राजतंत्र के रूप में काम किया गया. यानी स्टेट हेड के तौर पर एक प्रधानमंत्री और एक सुप्रीम कमांड. सुप्रीम कमांड का पद रेज़ा अपने हाथ में रखते थे. 1953 में ईरान में एक नया अध्याय शुरू हुआ. अगुआ बने मोहम्मद रज़ा पहलवी. फिर 1960 में श्वेत क्रांति. ज़मीन के कानून बदले. शिक्षा-स्वास्थ्य सुधार लागू हुए. महिलाओं के अधिकारों में वृद्धि हुई. औद्योगिकरण (Industrialization) जैसे सुधार हुए. लेकिन इसने आर्थिक असमानता को घटाने की बजाय बढ़ा दिया. अमीर और अमीर होने लगे. कुछ वर्गों में असंतोष जन्मा. श्वेत क्रांति से हुए आधुनिकीकरण ने सामाजिक विस्थापन पैदा किया. बेरोजगारी और महंगाई इसके बायप्रोडक्ट बनकर सामने आए.

तो जब समाज में असंतोष पनपा तो इतिहास में जैसा होता आया है, वैसा ही हुआ. एक नए नायक का उदय. अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक खुमैनी का नाता भारत से रहा है. इनके दादा ‘सैय्यद अहमद मुसवी हिन्दी’ उत्तर प्रदेश के बाराबंकी से ताल्लुक रखते थे. अहमद हिन्दी, इमाम अली की दरगाह पर माथा टेकने ईरान के नज़फ़ गए थे. खोमैन शहर में रुके और यहीं के हो कर रह गए. वंशावली अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी तक पहुंची, जो उलेमा थे और जिनका 60-70 के दशक में कई मदरसों में अच्छा प्रभुत्व था. 1964 में सरकार के विरोध में बिगुल फूंका गया. खुमैनी इसमें आगे रहे.

जनता के असंतोष के बीच खुमैनी ने जनता को शिया इस्लाम का हवाला दिया. उनको तमाम धर्मगुरुओं क साथ मिला. दूसरी तरफ, मोहम्मद रेज़ा शाह के अमेरिका और इज़रायल से अच्छे संबंध बन रहे थे. इजरायल के पहले प्रधानमंत्री डेविड बेन गुरियन का मानना था कि इजरायल की अरब देशों से बैर के चलते ईरान से दोस्ती बहुत क्रूशल है.
26 अक्टूबर 1964 को, खुमैनी ने शाह और अमेरिका दोनों के ख़िलाफ़ एक बड़ा कदम उठाया, निंदा की. ईरान में तैनात अमेरिकी सैन्य कर्मियों को कुछ राजनयिक छूट यानी डिप्लोमेटिक इम्युनिटी मिली हुई थी. इसके तहत ईरान में तैनाती के दौरान किसी आपराधिक आरोप का सामना कर रहे अमेरिकी सैनिकों पर ईरानी अदालत में नहीं, बल्कि अमेरिकी कोर्ट में मुकदमा चलाया जाना था. खुमैनी ने इसका विरोध किया. नवंबर 1964 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया, 6 महीने तक हिरासत में रखा गया.
रिहाई के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री हसन अली मंसूर के सामने पेश किया गया. उन्होंने खुमैनी से कहा- माफ़ी मांगो. खुमैनी ने मना कर दिया. ग़ुस्से में मंसूर ने उन्हें तमाचा मार दिया. 2 महीने बाद मंसूर की संसद जाते समय अज्ञात हमलावरों ने हत्या कर दी. इसे खुमैनी के समर्थक गुट, जिसे सरकार उग्रवादी मानती थी, उसका काम माना गया. 4 लोगों को सज़ा-ए-मौत दी गई. खुमैनी अज्ञात जगह चले गए, 14 साल गायब रहे.
दूसरी तरफ, मोहम्मद रेज़ा शाह ने एक खुफिया सुरक्षा बल तैयार किया ‘सवाक’. दबी ज़बान कई लोग कहते थे कि सवाक को अमेरिका की बैकिंग थी. खुमैनी समर्थक उलेमाओं ने जनता के बीच ये बात स्थापित की, कि सवाक देश के हालात बिगाड़ने में, लोगों की आवाज़ दबाने में ज़िम्मेदार है. शाह-विरोधी भावनाएं और प्रदर्शन भड़के. अगस्त 1978 में आबादान में एक आगजनी की घटना हुई. 450 लोग मारे गए. सरकार ने सितंबर में मार्शल लॉ लगा दिया.
8 सितंबर, 1978 को तेहरान के ‘जालेह स्क्वायर’ में धार्मिक प्रदर्शन चालू था. कहते हैं कि इन लोगों को हाल ही में लगे मार्शल लॉ के बारे में पता नहीं था. सवाक घटनास्थल पर पहुंची और फायर खोल दिया. 100 से अधिक लोग मारे गए. इस दिन को ‘ब्लैक फ्राइडे नरसंहार’ के नाम से जाना जाता है. इसी बीच एत्तेलाआत अख़बार ने वो लेख भी छाप दिया, जिसका ज़िक्र हमने शुरू में किया था. इस लेख ने भी खुमैनी के पक्ष में और सत्ता के विरोध में भावनाओं को भड़काया.
1978 बीतते-बीतते सरकार इस दबाव को झेलने में अक्षम नजर आने लगी. इसी बीच, मोहम्मद रेज़ा शाह पहलवी ने 16 जनवरी, 1979 को ईरान छोड़ दिया. ईरानी अख़बारों ने छापा- ‘शाह चला गया’. शाह गए और अपने पीछे शापूर बख्तियार नाम के एक कमज़ोर नेता को छोड़ गए. और इधर खुमैनी 14-15 साल के वनवास के बाद ईरान लौटे. तेहरान में लाखों लोग उनके स्वागत के लिए पहुंचे. मौका देख ईरान के सशस्त्र बलों ने अपने गुटनिरपेक्षता को ज़ाहिर कर दिया. अब जब सशस्त्र बलों का भी साथ मिल गया तो खुमैनी की अगुवाई में ईरान में एक इस्लामी गणराज्य की स्थापना की गई. इसे ही ‘ईरान की इस्लामी क्रांति’ का नाम दिया गया.
1979 में ईरान में रेज़ा शाही के पतन के बाद, खुमैनी के नए नेतृत्व ने इस्लामी गणराज्य की स्थापना के लिए तेज़ी से कदम उठाए. मार्च 1979 में जनमत संग्रह हुआ. 98 फीसदी मतदाताओं ने इस्लामी गणराज्य में बदलाव को मंजूरी दी. जनादेश का नतीजा रहा इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान. नए संविधान का मसौदा बना, जिसमें खुमैनी सर्वोच्च नेता के रूप में उभरे. दिसंबर 1979 में अपनाए गए संविधान ने खुमैनी के ‘विलायत-ए-फ़कीह सिद्धांत’ को शासन के आधार के रूप में स्थापित किया. मतलब सभी लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं सुप्रीम कमांडर और गार्डियन काउंसिल में समाहित हो गई.
नागरिक जीवन में इसका सबसे ड्रास्टिक इफेक्ट महिलाओं के अधिकारों पर पड़ा. काम करने, अपने लिए वकालत करने, तलाक लेने जैसे मामले तो सीमित हुए ही. यहां तक कि, हिजाब को अनिवार्य कर दिया गया. शादी की उम्र घटा दी गई. यूनीवर्सिटीज़ और पब्लिक बस-ट्रेन में भी भेदभाव के बदलाव दिखे. महिलाओं को पेशेवर भूमिकाओं से बर्खास्त कर घरेलू कामों तक सीमित कर दिया गया.
ईरानी क्रांति ने ईरान की अंतरराष्ट्रीय स्थिति को मौलिक रूप से बदला और मिडल ईस्ट की पॉलिटिक्स को नया आकार दिया. क्रांति के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका, इजरायल और अन्य पश्चिमी देशों के साथ संबंधों में खटास बढ़ी. शाह ने ईरान छोड़ा तो सत्ता बदली. इसी साल शाह इलाज़ के लिए अमेरिका गए लेकिन खुमैनी गुट ने इसे शाह की वापसी की अमेरिकी साजिश के रूप में देखा. 1979 को आतंक समूह ने तेहरान में अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर लिया. 52 अमेरिकी राजनयिकों को 444 दिनों तक बंधक बनाकर रखा.

ईरान की नई सरकार और विदेश नीति का एक और मुख्य सिद्धांत था इजरायल को खत्म करने का संकल्प. नया ईरान फिलिस्तीनी आंदोलन के समर्थन में खड़ा हुआ. तबसे आज तक ईरान और इजरायल की ठनी ही हुई है. इसके सबूत समय-समय पर हमें मिलते आए हैं. और दोनों देशों के बीच तनातनी इसी क्रांति से उपजी है.
वीडियो: तारीख: कौन थे अयातुल्लाह रूहुल्लाह खुमैनी जिनकी इस्लामिक क्रांति ने ईरान का चरित्र बदल दिया