लाल, पीली और हरी के बाद चौथी ट्रैफिक लाइट आने वाली है?
ट्रैफिक सिग्नल्स में अभी तक आपने तीन रंग ही देखे होंगे. लेकिन अब एक चौथे रंग के इसमें शामिल होने की चर्चा है.

10 दिसंबर 1868 को लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर में दुनिया की पहली ट्रैफिक लाइट लगाई गई थी. तब सड़कों पर घोड़ा गाड़ियां चलती थीं. ये इतनी ज्यादा संख्या में हो गई थीं कि पैदल यात्रियों के लिए चलना मुश्किल हो गया था. उनकी सेफ्टी के लिए पहली बार दुनिया ने ट्रैफिक सिग्नल्स की व्यवस्था देखी. तब लाल और हरे रंग की बत्तियां गैस लाइट के जरिए रात में जलाई जाती थीं, जिनसे ट्रैफिक मैनेज होता था. इसके कई सालों बाद आज वाली ‘तीन रंगी’ इलेक्ट्रॉनिक ट्रैफिक लाइट्स बनाई गईं.
तब से अब तक 100 सालों के अपने इतिहास में लाल, पीली और हरी बत्तियों वाले ट्रैफिक सिग्नल सिस्टम को सारी दुनिया में यूज किया जाता है. लेकिन क्या आपको पता है. सिग्नल लाइट्स की फैमिली में एक मेंबर और बढ़ सकता है? इंटरनेट पर इसकी चर्चा है. विश्वविद्यालयों में भी इस पर शोध चल रहे हैं कि क्या अब समय आ गया है जब तीन रंगों वाले ट्रैफिक सिग्नल परिवार में चौथे की एंट्री कराई जाए? क्या होगा ये चौथा रंग? रिसर्च में और सोशल मीडिया पोस्ट्स पर अभी तो बात सफेद को लेकर चल रही है.
पहले क्लियर कर देते हैं कि भारत में यह व्यवस्था अभी बहुत सालों तक नहीं आने वाली है. क्योंकि, जिन गाड़ियों के लिए ट्रैफिक सिग्नल परिवार में ये बत्ती बढ़ाई जाएगी, वो भारत में तो चलती नहीं है. ड्राइवरलेस कारें. यानी वो कार जिसमें ड्राइवर की जरूरत नहीं होती है. गाड़ी खुद अपनी ड्राइवर होती है.
कैसे? चलिए पहले ये ही जान लेते हैं.
तकनीक बहुत तेजी से छलांग लगा रही है. पेट्रोल, डीजल वाली गाड़ियों से निकलकर दुनिया इलेक्ट्रॉनिक वाहनों तक आ गई है. इसी बीच संसार में एक अद्भुत चीज ने दस्तक दी है. AI यानी आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस. डेटा के जंजाल से मशीनों में भी कृत्रिम बुद्धि-विवेक पैदा किया जा रहा है. एकदम इंसानों की तरह. इसी तरह की दुनिया में ड्राइवरलेस कारें भी एक सच हैं, जिसमें आपको स्टीयरिंग ‘हांकने’ की जरूरत ही नहीं है. तमाम सेंसर, कैमरे, रडार और Artificial Intelligence (AI) की मदद से ये गाड़ी अब खुद चलेगी. खुद ही देखेगी कि किस रास्ते से जाना है, कैसे जाना है. किस स्पीड से जाना है.
तकनीकी भाषा में ऐसी गाड़ियों को Self-driving car या Autonomous car या Driverless car भी कहा जाता है. माना जाता है कि ये कारें सड़कों पर आ जाएंगी तो ट्रैफिक जाम-वाम पुरानी बातें हो जाएंगी. सड़क हादसों की संख्या एकदम से घट जाएगी.
अमेरिका और चीन जैसे देशों में ये गाड़ियां सड़कों पर दौड़नी शुरू हो गई हैं.
चलती कैसे हैं ये कारें?इस तरह की कारों को ड्राइविंग सिखाने के लिए डेवलपर्स Image recognition systems, Machine learning और Neural networks से जुड़े ढेर सारे डेटा का इस्तेमाल करते हैं. कारों में लगा Radar सड़कों पर दूरी मापने के काम आता है. Lidar यानी Light Detection and Ranging लाइट की मदद से चारों ओर की डिस्टेंस और चीजों का पता लगाता है. इसमें कैमरे भी लगे होते हैं, जो गाड़ी की आस-पास की चीजों को दिखाते हैं.
इन सेंसरों से मिले डेटा से कार का AI ट्रैफिक लाइट, पेड़, फुटपाथ, पैदल यात्री, रोड सिग्नल जैसी चीजों को पहचानना सीखता है. टेक टारगेट नाम का वेब पोर्टल Waymo कंपनी की सेल्फ ड्राइविंग कार के सिस्टम के बारे में बताते हुए इसकी फंक्शनिंग को ऐसे समझाया हैः
इनके लिए ही चाहिए अलग सिग्नल– इन कारों को चलाने के लिए पैसेंजर सबसे पहले डेस्टिनेशन तय करता है. इसके बाद कार का सॉफ्टवेयर वहां पहुंचने का रास्ता निकालता है.
– कार की छत पर घूमने वाला Lidar सेंसर करीब 60 मीटर तक का इलाका स्कैन करता है. चारों तरफ का 3D नक्शा बनाता है.
– पीछे के बाएं पहिए पर लगा सेंसर कार की साइड की हलचल मापता है ताकि पता चले कि कार 3D नक्शे के हिसाब से कहां है.
– आगे और पीछे लगे रडार सिस्टम ये मापते हैं कि कार से बाधाएं कितनी दूरी पर हैं.
– कार का AI सॉफ्टवेयर सारे सेंसरों से जानकारी लेता है. साथ ही Google Street View और कार के अंदर लगे कैमरों से भी डेटा जोड़ता है.
– यह AI इंसान की तरह सोचने और फैसले लेने के प्रोसेस की नकल करता है और फिर स्टीयरिंग, ब्रेक जैसी चीजों को कंट्रोल करता है.
– कार का सॉफ्टवेयर Google Maps से जानकारी लेकर पहले से ट्रैफिक लाइट, साइन और लैंडमार्क पहचान लेता है.
– सबसे अंत में, अगर जरूरत पड़े तो इंसान ड्राइवर कभी भी कंट्रोल अपने हाथ में ले सकता है.
इन्हीं कारों के लिए सफेद लाइट सिग्नल की जरूरत पड़ेगी, क्योंकि इंसान और ड्राइवरलेस कारें (autonomous cars) लाइट्स को अलग-अलग तरीके से समझती हैं. जैसे इंसानों के लिए रंगों का बदलना या ब्लिंक करना असरदार होता है. वैसे ही ड्राइवरलेस कारों के लिए एक ही रंग की लाइट की जरूरत होती है. तभी ट्रैफिक लाइटों में चौथा रंग सफेद जोड़ने का सुझाव दिया जा रहा है. ऐसी कारों के लिए सिग्नल पर इस लाइट के जलने का मतलब होता है कि आगे बढ़ते रहो. जब तक कि कोई नया सिग्नल नहीं मिलता है.
हालांकि, दुनिया के किसी भी कोने में अभी इस लाइट को ट्रैफिक सिस्टम का हिस्सा नहीं बनाया गया है. अभी सिर्फ शोध के स्तर पर ये बातें चल रही हैं.
स्टडी में चल रही बातदरअसल, साल 2023 में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट यूनिवर्सिटी (NCSU) ने फरवरी 2023 में इस पर एक स्टडी प्रकाशित की. टीओआई की रिपोर्ट के अनुसार, यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अली हाजबाबाई (Ali Hajbabaie) की अगुआई में रिसर्चर्स ने एक सिमुलेशन (simulation) तैयार किया है, जिसमें ट्रैफिक लाइट सिस्टम में एक एक्स्ट्रा सफेद लाइट फेज जोड़ने का प्रस्ताव दिया गया. इस रिसर्च में बताया गया कि जब सड़कों पर Autonomous Vehicles (AVs) की संख्या बहुत ज्यादा हो जाएगी तब ये सफेद सिग्नल ट्रैफिक जाम को कंट्रोल करने में मदद करेगा. क्योंकि, ये AV गाड़ियां आपस में और ट्रैफिक कंट्रोल सिस्टम के साथ लगातार कम्युनिकेशन करती हैं ताकि वाहन एक-दूसरे की गति और दिशा को ठीक से Coordinate कर सकें.
सफेद ही क्यों?सफेद सिग्नल की चर्चा तब ज्यादा तेज हुई, जब इसके बारे में चीजें इंटरनेट पर वायरल होने लगीं. यहां लोगों ने कहना शुरू किया कि जल्द ही सिग्नल के तीन रंगों के साथ चौथा रंग भी जुड़ने वाला है. लेकिन सच ये है कि दुनिया के किसी भी देश में फिलहाल सफेद ट्रैफिक लाइट के लिए न तो कोई सरकारी ट्रायल हुआ है. न इससे लागू करने की कोई योजना ही घोषित की गई है. इस पर सिर्फ 2023 से शोध चल रहा था. इस शोध के ‘कर्ता-धर्ताओं’ का कहना है कि सिग्नल के नए रंग के लिए सफेद होने की कोई बाध्यता नहीं है. सफेद रंग तो सिर्फ एक प्रतीकात्मक चुनाव है. अगर कोई दूसरा, अलग और साफ दिखने वाला रंग भी इस्तेमाल किया जाए तो वह भी वही संकेत दे सकता है कि Autonomous Coordination एक्टिव है.
चुनौतियां भी होंगीहालांकि, नई सिग्नल लाइट का विचार भले ही अभी अच्छा लग रहा हो, लेकिन इसके साथ ढेर सारी चुनौतियां भी आने वाली हैं. जैसे-
- अभी तक जो लाल–पीला–हरा लाइट सिस्टम 100 सालों से इस्तेमाल हो रहा था, उससे दुनिया का हर ड्राइवर वाकिफ था. लेकिन अगर इस व्यवस्था में बदलाव हुआ तो इसका मतलब होगा, दुनिया के हर देश में फिर से नए नियम-कानून बनाना और ड्राइवरों को फिर से ट्रेनिंग देना.
- दूसरा, भले ही Self-driving cars तेजी से आगे बढ़ रही हों, लेकिन आने वाले कई सालों तक सड़कों पर इंसानों द्वारा चलाई जाने वाली और स्वचालित (autonomous) दोनों तरह की गाड़ियां साथ-साथ रहेंगी. ऐसे में अगर बहुत जल्दी एक नया रंग जोड़ दिया गया तो ड्राइवर उससे भ्रमित हो सकते हैं. ऐसे में सिक्योरिटी रिस्क और बढ़ जाएगा.
ट्रैफिक लाइट्स का इतिहासअब आते हैं 10 दिसंबर 1868 को लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर में लगी पहली ट्रैफिक लाइट की यात्रा पर. यानी ट्रैफिक लाइट्स के इतिहास पर.
अल जजीरा की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इन ट्रैफिक लाइट्स में ऊपर एक क्रॉस जैसी आकृति वाला खंभा होता था, जिसमें सेमाफोर सिग्नल आर्म्स यानी हाथ से इशारा देने वाले हिस्से लगे थे. ये आर्म्स ऊपर-नीचे होते थे और इसी से निर्देश मिलता था कि गाड़ियों को कब रुकना है और कब चलना है. इस सिग्नल में सिर्फ रात में लाल और हरी गैस लाइटें जलती थीं. ये सिस्टम रेलवे सिग्नलिंग सिस्टम पर आधारित था और इसे चलाने के लिए एक पुलिसकर्मी की जरूरत पड़ती थी. गैस पाइप के जरिए नीचे से गैस दी जाती थी ताकि लाइटें जल सकें. लेकिन, एक बार ऐसा हुआ कि गैस पाइप में लीकेज की वजह से विस्फोट हो गया और वहां तैनात ट्रैफिक पुलिसकर्मी बुरी तरह से घायल हो गया.
इसके बाद इस सिस्टम को खतरनाक मानकर हटा दिया गया और अगले 60 सालों तक ट्रैफिक लाइट्स पर बैन भी लग गया.
फिर साल 1921 में मिशिगन के डेट्रॉयट में जब विलियम पॉट्स ने तीन रंगों वाली स्ट्रीट लाइट्स बनाईं, तब 1929 में ब्रिटेन की सड़कों पर ट्रैफिक लाइट्स की वापसी हुई. साल 1923 में एक अफ्रीकी-अमेरिकी वैज्ञानिक गैरेट मॉर्गन ने पहली इलेक्ट्रिक ट्रैफिक लाइट बनाई. इस तरह से 100 साल में सड़क यातायात का यह त्रिरंगी सिस्टम पूरी दुनिया में फैल गया है.
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