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लोन पर ऐश करने की बात जिसने सबसे पहले कही, वो चार्वाक दर्शन आखिर है क्या

Personal Loan या Consumer Loan लेकर ऐश ओ आराम की ज़िंदगी बिताना आज आम है. मगर क्या आप जानते हैं कि कर्ज लेकर मौज करने का कॉन्सेप्ट करीब 2600 साल पहले आया था. तब 'ऋण' (कर्ज) लेकर 'घी' पीने (सुख सुविधा जुटाने) का सिद्धांत देने वाले थे ऋषि चार्वाक और उनके सिद्धांत तो दुनिया 'चार्वाक दर्शन' के नाम से जानती है.

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the history of charvaka philosophy explained 2600 year old philosophy
ये फिलॉसफी करीब 2600 साल पुरानी है. (फोटो-ए आई)
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आकाश सिंह
19 नवंबर 2024 (Updated: 19 नवंबर 2024, 13:10 IST)
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चल भाई… फिलॉसफी मत झाड़. अक्सर दोस्त ऐसा कह देते हैं. आपसे कहे तो कह दीजिए कि क्यों भइया, आपकी बात बात! हमारी बात फिलॉसफी? फिलॉसोफी को बहुत लोग बोरिंग मानते हैं. लेकिन इस राय की तस्वीर खींचे और इसका विश्लेषण करें तो इसकी भी अपनी एक फिलॉसफी है, चाहे अनजाने ही सही. फ्राइडे शाम की रतजगा हो, गले लगने की गर्मजोशी हो या किस्तों पर खरीदे गए आईफोन. इनके पीछे भी एक दर्शन है. एक दर्शन जो जावेद अख्तर पर तारी होता है तो वो लिखते हैं- “हर पल यहां जी भर जियो, जो है समा कल हो न हो”. हनी सिंह गाते हैं - “4 बोतल वोडका काम मेरा रोज का”.

इसी दर्शन का भूत जब किसी बिजनेसमैन या नेता पर चढ़ता है तो वो “रिस्क है तो इश्क है” वाली धुन में चल पड़ता है. दुनिया जीतने की चाहत, और उसके लिए बहुत कुछ ताक पर रख देने को तैयार. क्योंकि असल में इस दर्शन के मूल्य ही ऐसे है. - एंबीशन, मौज, और वर्तमान में जीना और इस वर्तमान को सबसे बेहतर बनाने की चुल्ल. ये सब एक ऐसे दर्शन के मूल्य हैं. जिसका जन्म हजारों साल पहले भारत में हुआ था. जिसे चार्वाक दर्शन का नाम दिया गया है.

चार्वाक दर्शन:इतिहास 

चार्वाक दर्शन को लोकायत दर्शन भी कहा जाता है. ऐतिहासिक अनुमान के हिसाब से इस दर्शन का जन्म करीब 2600 साल पहले हुआ था. ऋषि बृहस्पति को इस विचार का फाउंडर माना जाता है. “बृहस्पति सूत्र” इस दर्शन का मुख्य ग्रंथ यानी प्राइमरी लिट्रेचर है. लेकिन चार्वाकों की दुविधा देखिये. इनका ये प्राइमरी लिटरेचर आज के समय में मौजूद नहीं है. चार्वाक के बारे में जो कुछ भी पता है. वो इनके आलोचकों के जरिए. ख़ास तौर पर वेदांत, बौद्ध और जैन दर्शनों में चार्वाकों की निंदा की गई है. और इन्हीं के धर्मग्रन्थ हमें चावार्क दर्शन की बातें बताते हैं. क्या कहता है चार्वाक दर्शन?

“यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः"

यानी -जब तक जीवित रहें, सुखपूर्वक जिएं; चाहे उधार लेकर घी क्यों न पीना पड़े, क्योंकि मौत के बाद कोई पुनर्जन्म नहीं होता. ये श्लोक चार्वाक दर्शन का केंद्रीय विचार है. दरअसल चार्वाकों का उदय एक ऐसे दौर में हुआ जब भारत में गहरी दार्शनिक बहसें चल रही थीं. ये वही समय था जब उपनिषदों के विचार पनप रहे थे और बौद्ध व जैन जैसे नए धार्मिक आंदोलनों का जन्म हो रहा था. ये सब दर्शन आपस में भिन्न थे. लेकिन इन सबका ज़ोर ईश्वर, आत्मा और नैतिकता जैसी चीजों पर था. इनके इतर चार्वाकों ने एक अलग दृष्टिकोण पेश किया. कतई भौतिकवादी.

माने चार्वाकों ने कहा, ईश्वर आत्मा, पुनर्जन्म, सही गलत, स्वर्ग नरक, ये सब कुछ नहीं होता ब्रो. जो है यहीं है. -‘हैश टैग YOLO.’ चार्वाक यहीं नहीं रुके. उन्होंने वेदों को नकार दिया और धार्मिक रीति रिवाजों पर सवाल उठाने लगे. चार्वाक अपने समय के एथीस्ट थे. अपने समय के नास्तिक. इसलिए उन्होंने तमाम धर्मों से पंगा लिया. और लड़ाई का हथियार बनाया तर्क को. चार्वाकों ने कहा, ये जो आप नरक स्वर्ग, रीति रिवाज आदि की बात करते हो, इसका प्रमाण कित्थे है?

भारतीय दर्शनों में प्रमाण का बहुत महत्त्व हुआ करता था. माने आप किसी चीज को सही या गलत मानने का आपका आधार क्या है. आंखों देखी चीजों के लिए प्रत्यक्ष ही प्रमाण है. लेकिन ईश्वर,आत्मा आदि का क्या. बाकी दर्शन अनुमान का सहारा लिया करते थे. मसलन धुंए को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि आग जल रही होगी. चाहे आग प्रत्यक्ष नहीं भी हो. चार्वाक अनुमान लगाने के सख्त खिलाफ थे. चार्वाकों के तमाम तर्कों समझने के लिए एक कहानी की मदद लेते हैं. 

चार्वाक दर्शन 

ये कहानी है बनारस की. गंगा का किनारा, जहां व्यापारी, किसान, और कारीगर अपनी-अपनी दुनिया में मशगूल हैं. इन्हीं के बीच बैठा था एक बुनकर- अभिमन्यु. कई दिनों से उसके मन में एक सवाल था. एक शाम, जब सभी लोग पुराने बरगद के पेड़ के नीचे जमा हुए थे, अभिमन्यु ने अपने दोस्त अर्नव से पूछा,

 “तुम्हें सच में लगता है कि ये सारे कर्मकांड हमें मरने के बाद किसी स्वर्ग तक पहुंचा देंगे?”

अर्नव, जो कर्मकांडों में श्रद्धा रखता था, मुस्कुराया और बोला 

“धार्मिक पुस्तकें तो यही बताती हैं. आत्मा को शान्ति ऐसे ही मिलती है”. 

इस पर अभिमन्यु ने पूछा - 

“क्या तुमने कभी आत्मा को देखा है? या कोई है जो मर के वापस हमें बताने आया हो कि स्वर्ग वाकई है?”

इन दोनों की बातें सुनकर एक बूढ़ा व्यक्ति हंस पड़ा. वो थे रामेश्वर. रामेश्वर बोले

“क्या मैं भी बातचीत में शामिल हो सकता हूं?” 

अभिमन्यु ने हां कहा और रामेश्वर जी दोनों के बीच बैठ गए. उन्होंने कहा, तुम्हारे इन सवालों का जवाब मिलेगा चार्वाक दर्शन में.

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चार्वाक दर्शन पर चर्चा (PHOTO-AI)

 

जो देखा, वही सच

रामेश्वर जी ने शुरुआत की,

“चार्वाक मानते थे कि जो कुछ हम देख सकते हैं, सुन सकते हैं, छू सकते हैं, वही इस दुनिया का सच है. उनके अनुसार, ये दुनिया चार तत्वों—धरती, पानी, अग्नि, और वायु—से बनी है."

अर्नव ने पूछा,

 “लेकिन शास्त्रों में पांचवा तत्व, आकाश भी बताया गया है. उसका क्या?”

रामेश्वर ने जवाब दिया-

"जो चीज इन्द्रियों से महसूस नहीं हो सकती, चावार्क उसे नहीं मानते. अगर हम आकाश को देख, सुन, सूंघ या छू नहीं सकते, तो उसे वास्तविक क्यों मानें? जो सामने है, उसे मानो, जो नहीं दिखता, उस पर समय बर्बाद मत करो.”

आत्मा और चेतना: जैसे आग और लकड़ी

आत्मा का क्या? और चेतना? ये अभिमन्यु के अगले सवाल थे. रामेश्वर ने जवाब देना शुरू किया- पान के किसी हिस्से, कत्था चूना, सुपारी में लाल रंग नहीं होता. जैसे पान चबाने से लाल पीक पैदा होती है. ऐसे ही अलग अलग तत्वों में कोई चेतना नहीं होती, लेकिन जब वो मिलते हैं, तो चेतना पैदा करते हैं. रामेश्वर ने बात जारी रखी -

"चार्वाकों के अनुसार जैसे लकड़ी से आग निकलती है और जलने पर आग बुझ जाती है, वैसे ही चेतना शरीर से उत्पन्न होती है और शरीर के ख़त्म होते ही समाप्त हो जाती है.”

इसी तरह मानो एक मिट्टी का घड़ा जिसमें पानी है. उसके पानी में सूरज का प्रतिबिंब चमकता है, लेकिन अगर घड़ा टूट जाए तो वो प्रतिबिंब भी खत्म हो जाता है. चार्वाक के लिए चेतना उसी प्रतिबिंब की तरह थी, जो केवल तब तक है जब तक शरीर है.

ईश्वर और धर्म

चौपाल में उस रोज़ चल रही बहस में अब सबसे बड़ा सवाल आने वाला था. जिसका सुनने वाले बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे. सवाल अभिमन्यु ने पूछा - 

“रामेश्वर जी, चार्वाक ईश्वर के बारे में क्या कहते थे?”

रामेश्वर ने जवाब दिया, 

“चार्वाकों का मानना था कि ईश्वर का विचार लोगों को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया है. अगर कोई सर्वशक्तिमान और दयालु ईश्वर है, तो दुनिया में इतनी तकलीफ, गरीबी और बीमारियां क्यों हैं?”

ये सुनकर भीड़ में खामोशी छा गई, कुछ चौंक गए.

“सोचो, एक राजा जो कहा जाए कि बहुत ही शक्तिशाली और दयालु है, लेकिन उसका राज्य दुखों से भरा है. क्या तुम उसकी दया पर विश्वास करोगे? चार्वाक का तर्क था कि अगर ईश्वर होते और फिर भी लोग दुखी होते, तो या तो वो इतने दयालु नहीं हैं, या फिर शायद उनका अस्तित्व ही नहीं है.”

कर्म और पुनर्जन्म

अभिमन्यु ने पूछा.

“तो फिर कर्म और पुनर्जन्म का क्या?” 

इस सवाल के जवाब में रामेश्वर बोले-

“चार्वाकों का मानना था कि कर्म और पुनर्जन्म की ज़रूरत ही नहीं है. उनके अनुसार, जीवन एक जलती हुई लौ की तरह है जो एक बार जलकर बुझ जाती है. एक बार समाप्त हो गई, तो वो वापस नहीं आती.”

उन्होंने एक उदाहरण दिया, 

“सोचो एक क्रिकेट खिलाड़ी एक ही मैच खेलता है, उसे पता है कि यही उसका एकमात्र मौका है. तो क्या वो किसी अगले मैच की चिंता करेगा? चार्वाकों का कहना था कि हमारे पास एक ही जीवन है—कोई रिटर्न नहीं, कोई दूसरा मौका नहीं.”

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चार्वाक दर्शन कहता है उधार लेकर घी पियो (PHOTO-AI)

आज में जीना

अर्नव ने पूछा, “तो क्या चार्वाक भोगी थे? क्या वो बिना किसी लगाम के जीने की बात करते थे?”
“नहीं,” रामेश्वर ने जवाब दिया. उन्होंने बच्चों के एक समूह की ओर इशारा किया जो आपस में मिठाइयां बांट रहे थे. “सोचो एक बच्चे को मिठाई दी जाए. अगर वो सारी एक ही बार में खा ले, तो पेट दर्द हो जाएगा. चार्वाक ने इसी समझदारी से भोग का उपदेश दिया था.”
चार्वाक की इस सोच पर हालांकि कुछ लोग सवाल उठाते हैं. भोग के विषय ऊपर चार्वाक दर्शक का एक श्लोक काफी फेमस है

“पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा, यावत् पतति भूतले. उत्थाय च पुनः पीत्वा, पुनर्जन्म न विद्यते.”

यानी - पियो और खूब पियो, तब तक पीते रहो जब तक गिर ना जाओ. फिर हिम्मत करके उठो और फिर से पियो, क्योंकि मनुष्य का जन्म दोबारा नहीं मिलता. 

ये श्लोक चार्वाकों के भोगवादी रवैये को दर्शाता है. हालांकि चूंकि ये बात भी उनके आलोचकों ने लिखी है. इसलिए ये कहना मुश्किल है कि चार्वाक कितने भोगवादी थे. फिर भी सरलता के लिए माने कि अगर चार्वाक सिर्फ सुख को वरीयता देते थे. तो ये आलोचक इसकी व्याख्या भोगवाद के रूप में कर सकते हैं.

चार्वाक आलोचना

इस तमाम बहस से आप चावार्क दर्शन का मूल समझ गए होंगे. चार्वाक अनीश्वरवादी थे, जो कर्मकांडो का विरोध करते थे. अब स्वाभाविक है कि इस बात पर उनका धार्मिक पक्ष से पंगा होना था. इसी कारण चार्वाकों की खूब आलोचना हुई. चार्वाक के खिलाफ क्या क्या तर्क दिए गए. एक-एक कर समझते हैं. 

सबसे पहले बात नैतिक आलोचना की. चार्वाक सुख भोग को बढ़ावा देते हैं. इसमें नैतिकता पर जोर नहीं है. चार्वाकों के अनुसार व्यक्ति को केवल अपने सुख की प्राप्ति की चिंता होनी चाहिए, लेकिन अगर कोई व्यक्ति ऐसा करे तो समाज चल नहीं पाएगा. इंसानों और जानवरो के बीच मूल अंतर ही यही है कि हम दूसरे इंसानों की मदद के लिए दुःख उठाने के लिए तैयार रहते हैं.  

चार्वाकों की दूसरी आलोचना है, आध्यात्मिकता को खारिज करना: चार्वाक का आत्मा, कर्म और पुनर्जन्म को नकारना भी विवाद का कारण है. विरोधी दर्शन मानते हैं कि चार्वाक इन सब पहलुओं को नकारते हैं, लेकिन अगर ये सब न हों तो इंसान महज एक बायोलॉजिकल मशीन है.  

तीसरा पॉइंट है कि धर्मों ने चार्वाकों की खूब आलोचना की. इसका एक बड़ा कारण ये है कि वे श्रुति से इंकार करते हैं. चार्वाक दर्शन शास्त्रों या दूसरों की कही हुई बातों पर भी भरोसा नहीं करता, ख़ासकर उन चीज़ों पर जो प्रत्यक्ष अनुभव में नहीं आ सकतीं. उनका मानना है कि अगर किसी चीज़ को खुद महसूस न कर सकें, तो उसे सच मानने का कोई आधार नहीं है.
यानी अगर कोई कहे कि मंदिर जाने से समृद्धि आएगी, तो चार्वाक इसे बकवास मानेंगे. उनके अनुसार, मेहनत और कड़ी मेहनत से ही हासिल होने वाली चीज़ें असली हैं. मंदिर जाकर सुख-समृद्धि मिलेगी, ये प्रत्यक्ष अनुभव नहीं है.

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चार्वाक दर्शन किसी भी तरह से खुश रहने की वकालत करता है (PHOTO-AI)

चार्वकों के खिलाफ चौथा और सबसे बड़ा पॉइंट है - अनुमान को खारिज करना. अंग्रेज़ी में बोले तो इन्फेरेंस. चार्वाक के अनुसार, वे केवल इन्द्रियों के अनुभव को सही मानते हैं. मसलन अगर किसी सुबह रोड में पानी भरा हो, तो हम कह सकते हैं - रात में बारिश हुई होगी. लेकिन चार्वाक इससे साफ़ इंकार कर देते हैं. उनके अनुसार ऐसे किसी अनुमान से सच नहीं जाना जा सकता. चार्वाकों की बाकी बातें चाहे जितनी सही प्रतीत हों, यहां वे थोड़ा कमजोर पड़ जाते हैं. क्योंकि आज अगर चार्वाक होते तो वो एटम, इलेक्ट्रान, ब्लैक होल, ग्रेविटी सब को खारिज कर देते. क्योंकि ये सब असल में प्रत्यक्ष प्रमाण से नहीं पता लगाए जा सकते. मॉडर्न साइंस इनफरेंस का इस्तेमाल करती है. और इस मामले में चार्वाक की एपिस्टेमोलॉजी यानी ज्ञान मीमांसा कमजोर पड़ जाती है.

एक फिल्म है आंखों देखी. संजय मिश्रा ने कमाल का अभिनय किया है. उसमें संजय मिश्रा का किरदार भी सिर्फ उसी पर यकीन करता है, जिसे वो देखता है. और फिर एक वो एक पहाड़ी से कूद पड़ता है, ये कहते हुए कि ‘कुछ अनुभव अभी भी बाकी है, जो कि सिर्फ सपनों में भोगे थे. जैसे कि ये सपना जो बार-बार मुझे आता था, कि मैं हवा में तैर रहा हूँ, नहीं, उड़ रहा हूँ. लेकिन ये सपना नहीं है. ये हवा जो मेरे चेहरे को छू रही है, साएं साएं की आवाज, ये सच है.’ चार्वाक दर्शन अपनी कई मान्यताओं के मामले में शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का अपोजिट है. खास तौर पर सच और प्रमाण की डेफिनेशन के मामले में. 

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