'कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता'
दुनिया भर की कमाल चीजें लिखकर राही मासूम रजा आज ही के दिन दुनिया छोड़ गए थे. उनके संघर्ष की कहानी भी कम नहीं है.
Advertisement

राही मासूम रज़ा ने महाभारत सीरियल की स्क्रिप्ट लिखी है.
''जनसंघ का सवाल है कि मुसलमान यहां के नहीं हैं. मेरी क्या मजाल कि मैं उसे झुठलाऊं! मगर यह कहना ही पड़ता है कि मैं गाज़ीपुर का हूं. गंगौली से मेरा संबंध अटूट है. वह एक गांव ही नहीं है. वह मेरा घर भी है. घर! यह शब्द दुनिया की हर बोली और भाषा में है और हर बोली और भाषा में यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है. इसलिये मैं उस बात को फिर दुहराता हूं. मैं गंगोली का हूं क्योंकि वह केवल एक गांव ही नहीं है. क्योंकि वह मेरा घर भी है. 'क्योंकि'... यह शब्द कितना मजबूत है. और इसी तरह के हज़ारों-हज़ार 'क्योंकि' और हैं और कोई तलवार इतनी तेज़ नहीं हो सकती जो इस 'क्योंकि' को काट दे! और जब तक यह 'क्योंकि' ज़िंदा है मैं सैयद मासूम रज़ा आब्दी गाज़ीपुर ही का रहूंगा चाहे मेरे दादा कहीं के रहे हों. और मैं किसी को यह हक नहीं देता कि वह मुझसे यह कहे, ''राही! तुम गंगौली के नहीं हो. इसलिये गंगौली छोड़कर, मिसाल के तौर पर रायबरेली, चले जाओ.'' क्यों चला जाऊं सहब मैं? मैं तो नहीं जाता.''
दुनिया भर की कमाल चीजें लिखकर राही मासूम रजा आज ही के दिन दुनिया छोड़ गए थे. उनकी कविताएं और उपन्यास तो पढ़ने ही चाहिए, उनके संघर्ष की कहानी भी कम नहीं है. उनका लिखा यह पीस इसी बारे में है. पढ़िए:
यहां (बंबई में) कई दोस्त मिले जिनके साथ अच्छी-बुरी गुजरी. कृष्ण चंदर, भारती, कमलेश्वर, जो शुरू ही में ये न मिल गए होते तो बंबई में मेरा रहना असंभव हो जाता. शुरू में मेरे पास कोई काम नहीं था और बंबई में मैं अजनबी था. उन दिनों इन दोस्तों ने बड़ी मदद की. इन्होंने मुझे जिंदा रखने के लिए चंदा देकर मेरी तौहीन नहीं की. इन्होंने मुझे उलटे-सीधे काम दिए और उस काम की मजदूरी दी. पर इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन लोगों के एहसान से कभी बरी हो सकता हूं. मुझे वह दिन आज भी अच्छी तरह याद है जब नैयर (पत्नी) होली फैमिली अस्पताल में थीं. चार दिन के बाद अस्पताल का बिल अदा करके मुझे नैयर और मरियम को वहां से लाना था. सात-साढ़े सात सौ का बिल था और मेरे पास सौ-सवा सौ रुपए थे. तब कमलेश्वर ने 'सारिका' से, भारती ने 'धर्मयुग' से मुझे पैसे एडवांस दिलवाए और कृष्ण जी ने अपनी एक फिल्म के कुछ संवाद लिखवा के पैसे दिए और मरियम घर आ गईं. आज सोचता हूं कि जो यह तीनों न रहे होते तो मैंने क्या किया होता? क्या मरियम को अस्पताल में छोड़ देता? वह बहुत बुरे दिन थे. कुछ दोस्तों से उधार भी लिया. कलकत्ते से ओ.पी. टांटिया और राजस्थान से मेरी एक मुंहबोली बहन लनिला और अलीगढ़ से मेरे भाई मेहंदी रजा और दोस्त कुंवरपाल सिंह ने मदद की. कर्ज उतर जाता है एहसान नहीं उतरता. और कुछ बातें ऐसी हैं जो एहसान में नहीं आतीं पर उन्हें याद करो तो आंखें नम हो जाती हैं. जब मैं अलीगढ़ से बंबई आया तो अपने छोटे भाई अहमद रजा के साथ ठहरा. छोटे भाई तो बहुतों के होते हैं, पर अहमद रजा यानी हद्दन जैसा छोटा भाई मुश्किल से होगा किसी की तकदीर में. उसने मेरा स्वागत यूं किया कि मैं यह भूल गया कि फिलहाल मैं बेरोजगार हूं. हम हद्दन के साथ ठहरे हुए थे, पर लगता था कि अपने परिवार के साथ हमारे साथ ठहरे हुए हैं. घर में होता वह था जो मैं चाहता था या मेरी पत्नी नैयर चाहती थी. वह घर बहुत सस्ता था. जिस फ्लैट में अब हूं उससे बड़ा था. इसका किराया 600 दे रहा हूं. उसका किराया केवल 150 रुपए माहवार था. तो हद्दन ने सोचा कि वह घर उन्हें मेरे लिए खाली कर देना चाहिए. रिजर्व बैंक से उन्हें फ्लैट मिल सकता था, मिल गया. जब वह जाने लगे तो उन्होंने अपनी पत्नी के साथ साजिश की कि घर का सारा सामान मेरे लिए छोड़ जाएं क्योंकि मेरे पास तो कुछ था नहीं. जाहिर है कि मैं इस पर राजी नहीं हुआ. उन दोनों को बड़ी जबरदस्त डांट पिलाई मैंने. चुनांचे वह घर का सारा सामान लेकर चले गए और घर नंगा रह गया. मेरे पास दो कुर्सियां भी नहीं थीं. हम ने कमरे में दो गद्दे डाल दिए और वही दो गद्दों वाला वीरान कमरा बंबई में हमारा पहला ड्रॉइंग रूम बना... उन दिनों मैं नैयर से शर्माने लगा था. मैं सोचता कि यह क्या मुहब्बत हुई, कैसी जिंदगी से निकाल कर कैसी जिंदगी में ले आया मैं उस औरत को जिसे मैंने अपना प्यार दे रक्खा है... अपना तमाम प्यार. मगर नैयर ने मुझे यह कभी महसूस नहीं होने दिया कि वह निम्नमध्यवर्गीय जिंदगी को झेल नहीं पा रही है. हम दोनों उस उजाड़ घर में बहुत खुश थे. उन दिनों कृष्ण चंदर, सलमा आपा, भारती और कमलेश्वर के सिवा कोई लेखक हमसे जी खोल के मिलता नहीं था. हम मजरूह साहब के घर उन से मिलने जाते तो वह अपने बेडरूम में बैठे शतरंज खेलते रहते और हम लोगों से मिलने के लिए बाहर न निकलते. फिरदौस भाभी बेचारी लीपापोती करती रहतीं... कई और लेखक इस डर से कतरा जाते थे कि मैं कहीं मदद न मांग बैठूं. आप खुद सोच सकते हैं कि हमारे चारों ओर कैसा बेदर्द और बेमुरव्वत अंधेरा रहा होगा उन दिनों. नैयर लोगों से मिलते भी घबराती थीं, इसलिए मिलना-जुलना भी कम लोगों से था और बहुत कम था, कि एक दिन सलमा आपा आ गईं. इन्हें आप सलमा सिद्दीकी के नाम से जानते हैं. उस वक्त हम दोनों उन्हीं गद्दों पर बैठे रमी खेल रहे थे. सलमा आपा बैठीं. इधर-उधर की बातें होती रहीं. फिर वह चली गईं और थोड़ी देर के बाद उनका एक नौकर एक ठेले पर एक सोफा लदवाए हुए आया. हमने उस तोहफे को स्वीकार कर लिया, कि जो न करते तो सलमा आपा और कृष्ण जी को तकलीफ होती और हम उन्हें तकलीफ देना नहीं चाहते थे.