The Lallantop
Advertisement

हाईकोर्ट ने क्यों कहा हिजाब इस्लाम में अनिवार्य नहीं?

कर्नाटक हाईकोर्ट ने अम्बेडकर और क़ुरान के हवाले से बताया, इस्लाम में हिजाब ज़रूरी नहीं है

Advertisement
Hijab
कर्नाटक हाईकोर्ट ने अम्बेडकर और क़ुरान के हवाले से बताया, इस्लाम में हिजाब ज़रूरी नहीं है
pic
अभिनव पाण्डेय
15 मार्च 2022 (Updated: 15 मार्च 2022, 06:43 PM IST) कॉमेंट्स
font-size
Small
Medium
Large
font-size
Small
Medium
Large
whatsapp share
शिक्षण संस्थानों में हिजाब को लेकर हुए विवाद पर आखिरकार कर्नाटक हाईकोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया. अदालत ने कहा कि हिजाब पहनने को इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं माना जा सकता. अदालत ने कर्नाटक सरकार के उस आदेश को भी सही माना है, जिसके तहत उन शिक्षण संस्थानों में हिजाब की मनाही हो सकती है, जहां यूनिफॉर्म का प्रावधान है. प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज माने इंटर की कक्षाओं में हिजाब पहनने को लेकर विवाद हुआ. विवाद कर्नाटक हाईकोर्ट में पहुंचा. 11 बार की सुनवाई के बाद 25 फरवरी को फैसला सुरक्षित किया गया. और आज 129 पन्नों की शक्ल में ये फैसला कागज पर उतर आया. जब से फैसला आया है, बहसबाज़ इन दो बिंदुओं को लेकर उलझ गए हैं. इसीलिए ज़रूरी है कि इन बिंदुओं तक अदालत कैसे पहुंची, ये समझा जाए. विवाद की शुरुआत हुई 1 जनवरी 2022 को. जब कर्नाटक के उडुपी ज़िले के प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज की छह छात्राओं ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की. इन छात्राओं की शिकायत थी कि इन्हें हिजाब पहनकर क्लास अटेंड नहीं करने दी जा रही है. शुरुआत में ज़्यादा हंगामा नहीं हुआ. कॉलेज ने कहा कि छात्राएं यूनिफॉर्म के नियम जानती हैं. और उन्होंने पहले इनपर सहमति भी जताई थी. हिजाब कैंपस में पहना जा सकता है. लेकिन कक्षा के भीतर नहीं. धीरे धीरे इस आंदोलन से और छात्राएं जुटती गईं. ये आंदोलन कर्नाटक के दूसरे इलाकों तक भी पहुंचा. और इस सब के पीछे नाम आया कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया का. अब तक ये मामला दो पक्षों के बीच था. सरकार और छात्र, जिन्हें कैंपस फ्रंट का समर्थन मिला हुआ था. कैंपस फ्रंट ऑफ इंडिया, पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया PFI का छात्र संगठन है. लेकिन फिर इस आंदोलन के खिलाफ एक दूसरा आंदोलन शुरू हो गया. कि अगर मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहन सकती हैं तो फिर हिंदू छात्र भी भगवा गमछा डालकर क्लास में बैठेंगे. इन छात्रों को हिंदू जागरण वेदिके जैसे संगठनों का समर्थन मिलने की बात सामने आई. यहां से मामला त्रिपक्षीय हो गया. प्रशासन, मुस्लिम छात्राएं और हिंदू छात्र. ढेर सारे वीडियो आए जिसमें दोनों पक्षों के बीच तनाव हुआ. और तटीय कर्नाटक का माहौल खराब हुआ. 31 जनवरी को ये मामला कर्नाटक हाईकोर्ट पहुंचा. जहां छात्राओं ने संविधान के अनुच्छेद 14, 19 एवं 25 के तहत कक्षा में हिजाब पहनने की अनुमति मांगी. अनुच्छेद 14 से कानून के समक्ष समानता का अधिकार मिलता है. अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है. और अनुच्छेद 25 धार्मिक स्वतंत्रता से ताल्लुक रखता है. पहली याचिका मुस्लिम छात्राओं की तरफ से लगी और फिर याचिकाओं की लिस्ट लंबी होती गई. 5 फरवरी को कर्नाटक सरकार की तरफ से एक आदेश निकाला गया. इसमें सरकार ने कहा कि 1983 के कर्नाटक शिक्षा कानून की धारा 133 के तहत लोक व्यवस्था बनाए रखने के मकसद से सरकार स्कूल और कॉलेजों को निर्देश दे सकती है. साथ ही Karnataka Board of Pre-University Education के तहत आने वाले कॉलेजों के लिए College Development Committee ड्रेसकोड की अनुशंसा कर सकती है. 8 फरवरी तक तनाव इतना बढ़ गया कि कर्नाटक सरकार ने तीन दिन की छुट्टी का ऐलान कर दिया. सुरक्षा बलों ने फ्लैग मार्च निकालने शुरू कर दिए. 10 मार्च को हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश देकर यथास्थिति को बनाए रखने का आदेश दे दिया. अदालत के अंतिम आदेश से दो चीज़ें तय होनी थीं - कि क्या संविधान में निहित अधिकारों के तहत हिजाब पहनने को भी एक अधिकार की तरह देखा जा सकता है. और ये, कि क्या कर्नाटक सरकार का 5 फरवरी वाला आदेश विधि सम्मत है? इस मामले की सुनवाई की कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रितु राज अवस्थी, न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित और न्यायमूर्ति जेएम खाजी की पीठ ने. लंबी लंबी दलीलें हुईं, जिन्हें कर्नाटक हाईकोर्ट के आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर लाइव प्रसारित भी किया गया. आज आए फैसले से पहले कर्नाटक सरकार ने लंबी चौड़ी तैयारी की थी. राजधानी बेंगलुरू में भारी पुलिस बंदोबस्त तैनात कर दिया गया था. स्कूल कॉलेज बंद कर दिये गए थे और लोगों के जुटने पर रोक लगा दी गई थी. आज सुबह फैसला आया, और फैसले के साथ ही आई एक तस्वीर. कर्नाटक के यादगिर की सुरापुरा तालुका के केम्बावी शासकीय कॉलेज में परीक्षा चल रही है. न्यायालय के फैसले के विरोध में कई छात्राओं ने परीक्षा का बहिष्कार कर दिया. तस्वीर में गौर करने वाली बात ये है कि ज्यादातर छात्राएं बुर्के में थी, ऊपर से हिजाब डाल रखा था. कॉलेज की प्राचार्य शकुंतला ने इन छात्राओं से हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने को कहा. छात्राएं नहीं मानीं और परीक्षा कक्ष से बाहर आ गईं. इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि यूनिफॉर्म से शुरू हुआ विवाद कहां तक पहुंच गया है. खैर, हम फैसले पर लौटते हैं. लेकिन उससे पहले एक राइडर. न्यायालय का फैसला अंग्रेज़ी में होता है. और बहुत विस्तृत होता है. उसके पूरे विस्तार को बुलेटिन में समेटना संभव नहीं है. इसीलिए हमने अपनी समझ के आधार पर भाषा का अनुवाद भी किया है और बातें संक्षेप में बताई गई हैं. न्यायालय ने असल में जो कहा, उसे पढ़ने के लिए आपको फैसले की कॉपी को देखना होगा. न्यायालय ने अपने फैसले में चार प्रश्नों के उत्तर पेश किए –
  1. क्या हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा का हिस्सा है, जो भारत के संविधान अनुच्छेद 25 के तहत संरक्षित है?
  2. क्या स्कूल यूनिफॉर्म का निर्देश मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है?
3.क्या 5 फरवरी का शासनादेश अक्षम और स्पष्ट रूप से मनमाना होने के अलावा अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन करता है?
  1. क्या उडुपी के पीयू कॉलेज के प्रिंसिपल और लेक्चर्स के खिलाफ मामला बनता है?
जवाब में मुख्य न्यायाधीश रितुराज अवस्थी, जिन्होंने खुली अदालत में फैसले के ऑपरेटिव हिस्से को पढ़ा, कहा,
"हमारे सवालों के जवाब हैं, मुस्लिम महिलाओं द्वारा हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य धार्मिक प्रथा नहीं है''
आगे कहा,
"हमारा दूसरा जवाब है स्कूल यूनिफॉर्म अधिकारों का उल्लंघन नहीं है. यह संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है, जिस पर छात्र आपत्ति नहीं कर सकते हैं."
तीसरे सवाल के जवाब में अदालत ने कहा कि शासनादेश का विषय स्कूल यूनिफॉर्म है. और ये आदेश देने का अधिकार 1983 के शिक्षा कानून के तहत सरकार के पास है. वो ऐसा कर सकती है. अदालत ने वैसे सरकार की उस दलील को भी वज़न दिया जिसमें सरकार ने माना था कि इस आदेश को और बेहतर तरीके से ड्राफ्ट किया जा सकता था. चौथे सवाल के उत्तर में अदालत ने कहा कि कॉलेज स्टाफ के खिलाफ कार्रवाई को लेकर जो याचिका लगाई गई थी, उसे सही तरीके से तैयार नहीं किया गया था. ऐसी गंभीर याचिकाओं में जो स्पष्टता और तर्कशीलता होनी चाहिए थी, वो याचिका में नहीं थी. इसीलिए याचिका खारिज की जाती है. अपने फैसले के पीछे कोर्ट ने कई तर्क और उदाहरण दिए. कर्नाटक हाईकोर्ट के 129 पेज के फैसले में हिजाब पहनने की रवायत पर कुरान मजीद और हदीस का उद्धरण किया. पीठ ने कहा इस्लाम की सर्वमान्य पुस्तक कुरान शरीफ और अन्य धार्मिक सामग्री इसकी पुष्टि करती है कि हिजाब पहनना इस्लाम की अनिवार्य परंपरा नहीं है. Its only recommendatory not mandatory यानी ये सिर्फ सिफारिश है ना कि अनिवार्यता. कोर्ट ने कहा पवित्र कुरान हिजाब पहनने का आदेश नहीं देता बल्कि ये केवल निर्देशिका है. क्योंकि कुरान पाक में हिजाब न पहनने के लिए कोई सजा या पश्चाताप का प्रावधान निर्धारित नहीं है. कुरान मजीद की आयतों में शब्दों, छंदों की भाषाई संरचना भी इसी नजरिए का समर्थन करती है. यानी याचिकाकर्ताओं की दलीलें उस रोशनी में भी उचित नहीं हैं. कोर्ट ने आगे कहा कि परिधान महिलाओं के लिए अधिक से अधिक सार्वजनिक स्थानों तक पहुंचने का एक साधन है न कि अपने आप में एक धार्मिक अनिवार्यता. यह महिलाओं को सक्षम बनाने का कोई ठोस और कारगर उपाय नहीं है और ना ही कोई औपचारिक बाधा. हिजाब का संस्कृति और परंपरा के साथ तो रिश्ता है लेकिन निश्चित रूप से धर्म के साथ नहीं. अतः जो चीज या कृत्य धार्मिक रूप से अनिवार्य नहीं है उसे सड़कों पर उतर कर सार्वजनिक आंदोलनों के जरिए या फिर अदालतों में भावुक दलीलें देकर धर्म का अनिवार्य हिस्सा नहीं बनाया जा सकता. फैसले की शुरुआत में पीठ ने अमेरिकी लेखिका सारा स्लिनिंगर की पुस्तक में छपे लेख veiled women: hijab, religion and cultural practice -2013 यानी 'पर्दा: हिजाब, मजहब और तहजीब' का उल्लेख करते हुए लिखा –
'' हिजाब का इतिहास बहुत पेचीदा है. क्योंकि इसमें समय समय पर मजहब और तहजीब का भी असर है. इसमें कोई शक नहीं कि कई महिलाएं समाज की ओर से डाले गए नैतिक दबाव की वजह से पर्दानशीं रहती हैं. कई इसलिए खुद को परदे में रखती हैं क्योंकि इसे वो अपनी पसंद मान लेती हैं. और इसके कई कारण होते हैं. कई बार जीवन साथी, परिवार और रिश्तेदारों की सोच का असर भी होता है. कई बार तो वो पर्दे में रहना इसलिए भी स्वीकार करती है क्योंकि उनका समाज इसी आधार पर उस महिला के प्रति अपनी राय बनाता है. लिहाजा इस मामले में कुछ भी राय बनाना बेहद पेचीदा है."
इसके बाद पीठ ने लिखा है कि इस सिलसिले में डॉ बी आर आम्बेडकर के विचार भी समीचीन हैं. डॉ आम्बेडकर ने 1945-46 में छपी अपनी मशहूर किताब ''पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन ऑफ इंडिया'' के दसवें अध्याय में पहला हिस्सा लिखते समय सोशल स्टैगनेशन शीर्षक के तहत लिखा है,
''एक मुस्लिम महिला सिर्फ अपने बेटे, भाई, पिता, चाचा ताऊ और शौहर को देख सकती है. या फिर अपने वैसे रिश्तेदारों को जिन पर विश्वास किया जा सकता है. वो मस्जिद में नमाज अदा करने भी नहीं जा सकती. बिना बुर्का पहने वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती. तभी तो भारत के गली कूचों सड़कों पर आती जाती बुर्कानशीं मुस्लिम औरतों का दिखना आम बात है. मुसलमानों में भी हिंदुओं की तरह और कई जगह तो उनसे भी ज्यादा सामाजिक बुराइयां हैं. अनिवार्य पर्दा प्रथा भी उनमें से ही एक है. उनका मानना है कि उससे उनका शरीर पूरी तरह ढंका होता है. लिहाजा शरीर और सौंदर्य के प्रति सोचने के बजाय वो पारिवारिक झंझटों और रिश्तों की  उलझनें सुलझाने में ही उलझी रहती हैं. क्योंकि उनका बाहरी दुनिया से संपर्क कटा रहता है. वो बाहरी सामाजिक कार्यकलाप में हिस्सा नहीं लेती लिहाजा उनकी गुलामों जैसी मानसिकता हो जाती है. वो हीन भावना से ग्रस्त कुंठित और लाचार किस्म की हो जाती हैं. कोई भी भारत में मुस्लिम औरतों में पर्दा प्रथा से उपजी समस्या के गंभीर असर और परिणामों के बारे में जान सकता है.''
इन बातों के ज़िक्र के साथ अदालत ने अपने फैसले में लिखा है कि हमारे संविधान के निर्माताओं में प्रमुख डॉक्टर आंबेडकर ने तो पचास साल पहले ही पर्दा प्रथा की खामियां और नुकसान बताए जो हिजाब, घूंघट और नकाब पर भी बराबर तौर से लागू होते हैं. ये परदा प्रथा किसी भी समाज और धर्म की आड़ में हो, हमारे संविधान के आधारभूत समता और सबको समान अवसर मिलने के सिद्धांत के सर्वथा खिलाफ है. इसके अलावा याचिकाकर्ता छात्राएं इस सवाल का संतोषजनक जवाब नहीं दे पायीं कि वो कितने समय से हिजाब पहनती हैं. वो ये भी नहीं बता पाईं कि इस संस्थान में दाखिल होने से पहले वो अनिवार्य रूप से हिजाब पहना करती थीं या नहीं! शिक्षा संस्थानों में सबके लिए समान अनुशासन की बात करते हुए पीठ ने कहा है कि स्कूल यूनिफॉर्म सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देती है. इसके जरिए धार्मिक या अनुभागीय विविधताओं को भी पार करती है. स्कूलों के ड्रेसकोड से अलग हिजाब, भगवा पटके दुपट्टे, उत्तरीय या अंगवस्त्र सहित धार्मिक प्रतीक चिह्न पहनना कतई उचित नहीं है. ये अनुशासन के भी खिलाफ है. कोर्ट ने अपने फैसले से इस विवाद के पटाक्षेप की कोशिश की. लेकिन जैसा कि अपेक्षित ही था, फैसले पर ही बवाल भी हो गया. असदुद्दीन ओवैसी और समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी ने फैसले से नाराज़गी जाहिर की. सिखों की पगड़ी और हिजाब को कम्पेयर करने वाला तर्क कई बार सामने आया लेकिन सिखों की पगड़ी और हिजाब में अंतर है. पगड़ी सिख धर्म का अनिवार्य हिस्सा है. जैसे इस्लाम में 5 अनिवार्य हिस्से हैं कलमा, नमाज, रोजा, जकात और हज. इन पांच चीजों को अगर कोई रोकता है तो अनुच्छेद 25 का उल्लंघन होता है. तब कोर्ट सरंक्षण देता है. मगर हिजाब के मामले में कोर्ट ने ऐसा नहीं पाया. बल्कि कोर्ट ने यहां कुछ अंदेशा जरूर जताया. कोर्ट ने कहा कि हिजाब मुद्दे के पीछे “ छिपे हुए हाथ” हो सकते हैं. साथ ही पीठ ने उम्मीद जताई कि जल्द ही इस मामले में गुप्त हाथों की जांच पड़ताल पूरी होगी और सच सामने आएगा. हाईकोर्ट ने फैसले में कहा है कि ड्रेस कोड को लेकर 2004 से सब कुछ ठीक था. क्योंकि राज्य में कोई वैमनस्य नहीं दिख रहा था. हम ये जानकर भी प्रभावित हुए कि मुसलमान धार्मिक नगरी उडुपी में 'अष्ट श्री मठ वैष्णव संप्रदाय', के त्योहारों-उत्सवों में भाग लेते हैं. लेकिन इसके साथ ही ये बात हमें निराश कर गई कि आखिर कैसे अचानक,अकादमिक सत्र के बीच हिजाब का मुद्दा पैदा हुआ? जिसे बेवजह और जरूरत से ज्यादा हवा दी गई. कोर्ट ने ये भी कहा कि जिस तरह सामाजिक अशांति और द्वेष फैलाने की कोशिश की गई वो सबके सामने है. उसमें अब बहुत कुछ बताने की जरूरत नहीं है. हालांकि हम इस मामले पर टिप्पणी नहीं करेंगे ताकि पुलिस जांच प्रभावित ना हो. हमने इस मामले की जांच से संबंधित सीलबंद लिफाफे में दिए गए पुलिस के कागजात देखे हैं. हम शीघ्र और सटीक जांच की उम्मीद करते हैं. ताकि जांच पूरी कर दोषियों को गिरफ्तार किया जा सके. यहां तक आते आते आप अदालत के फैसले की कमोबेश सारी महत्वपूर्ण बातें जान गए हैं. हमने आपको फैसले से पहले हुए पुलिस बंदोबस्त के बारे में बताया था. इसमें अपडेट ये है कि फैसले के बाद बेलगाम, बेंगलुरु ग्रामीण, कलबुर्गी, कोप्पल और चिकमगंलूर जैसे जिलों में भी धारा 144 लगा दी गई. प्रशासन अलर्ट पर है. सरकार के अलावा बीजेपी नेताओं ने इस फैसले का स्वागत किया, साथ ही मुस्लिम महिला संगठनों से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने फैसले का स्वागत किया हिजाब पहनने पर कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले से निराश याचिकाकर्ता छात्राएं और संगठन कर्नाटक हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की तैयारी में हैं. वकीलों की टीम अभी फैसले का अध्ययन कर रही है. याचिकाकर्ताओं के वकील उसमें से लीगल प्वाइंट देखकर उन्हें सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे. ये लगभग तय है कि ये मामला भी सबरीमाला मामले के साथ सुना जाएगा. जिसमें सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की एक संवैधानिक पीठ कानून और धार्मिक मान्यताओं के इंटरप्ले पर कानूनी स्पष्टता देने की कोशिश कर रही है.

Subscribe

to our Newsletter

NOTE: By entering your email ID, you authorise thelallantop.com to send newsletters to your email.

Advertisement