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कभी झुग्गी-झोपड़ी वाला देश रहा सिंगापुर इतना अमीर कैसे बना?

आधी दिल्ली से भी छोटा सिंगापुर कभी झुग्गी झोपड़ियों का देश हुआ करता था. 2023 में यहां हर 6 से एक घर करोड़पति है. कैसे हुआ ये सब?

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महज 30 सालों में इस कदर प्रगति करने वाला सिंगापुर बाकी देशों के लिए एक मिसाल है (तस्वीर: getty)
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11 अप्रैल 2023 (Updated: 9 अप्रैल 2023, 08:43 PM IST)
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ऊपर दिख रही तस्वीर में दो देश हैं. एक गरीबी से पस्त. झुग्गी झोपड़ियों में रहने को मजबूर लोग. जिनके लिए जरुरत भी नियामत के बराबर है. 
दूसरा -चमचमाती इमारतों वाला. रात में भी ऐसी चमक कि सूरज शर्मा जाए. अमीरी का वो हाल कि हर 6 परिवारों में एक परिवार करोड़पति है.

मुद्दे की बात- ये दोनों एक ही देश हैं. बस अंतर है 35 सालों का. देश का नाम- सिंगापुर (Singapore). 1963 में फिरंगियों से आजादी मिली. गहन गरीबी थी तब लेकिन महज 30 -35 सालों में दुनिया के अमीर तरीन देशों में गिना जाने लगा. साल 2023 में पर कैपिटा GDP के मामले में अमेरिका से भी आगे है. और साल 2030 तक अनुमान है, दुनिया में सबसे ज्यादा करोड़पति इसी देश में होंगे. हालांकि अब भी वहाँ करोड़पतियों की कमी नहीं है. इस मामले में वो अब भी दूसरे नंबर पर है. सिंगापुर के पास सऊदी अरब जैसे देशों की तरह तेल नहीं है. ना ही और कोई नेचुरल रिसोर्सेस हैं. फिर छोटा सा ये देश इतना अमीर बना कैसे ? (How Singapore became Rich?)

सिंगापुर और प्राचीन भारत का कनेक्शन 

नक़्शे पर देखिए. भारत के दक्षिण-पूर्व की तरफ मलेशिया पड़ता है. उसके एकदम दक्षिणी छोर पर पड़ता है सिंगापुर. छोटा सा द्वीप. एरिया के हिसाब से दिल्ली का भी आधा. गाड़ी से चलें तो आधे घंटे में इस पार से उस पार हो जाएं. भारत से पुराना कनेक्शन है. ऐतिहासिक मलय दस्तावेज़ों के हिसाब से कलिंग के एक राजा हुआ करते थे, शुलन. उन्होंने दक्षिण भारत के एक राजा चुलन के साथ मिलकर चीन को जीतने का अभियान शुरू किया. दोनों मलय राज्य के एक द्वीप तक पहुंचे, जिसे स्थानीय भाषा में टमासेक कहा जाता था. चीन के राजा ने उन्हें रोकने के लिए एक चाल चली. उन्होंने द्वीप पर अपना एक गुप्तचर भेजा और उसके जरिए एक अफवाह फैला दी कि चीन वहां से काफी दूर है.

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कथाओं के अनुसार संग निला उतामा ने एक शेर देखकर सिंह पुर नाम रखा था (तस्वीर: www.sg) 

 ये सुनकर शुलन और उनकी सेना ने आगे का प्लान कैंसिल कर दिया. शुलन ने टेमासेक में ही एक राजकुमारी से शादी की और कुछ वक्त के लिए वहीं सेटल हो गए. उधर राजा चुलन की सेना भी लौट गई. इतिहासकारों के अनुसार ये राजा चुलन और कोई नहीं बल्कि चोल महाराज, राजेंद्र चोल थे. जिनकी कहानी पर हाल ही में पोन्नियिन सेल्वन नाम की एक फिल्म आई थी. बहरहाल, कहानी के अनुसार सन 1299 में राजा शुलन के वंशज राजकुमार संग निला उतामा टमासेक द्वीप पर पधारे. यहां उन्हें एक शेर दिखाई दिया. इसी कारण उन्होंने इस द्वीप का नाम सिंहपुर रख दिया. और यही नाम आगे जाकर सिंगापुर में तब्दील हो गया.

बाकी एशिया की तरह सिंगापुर भी लम्बे वक्त तक ब्रिटेन की कॉलोनी रहा. 11 अप्रैल 1959- ये वो तारीख थी जब सिंगापुर को पहली बार सेल्फ रूल का अधिकार मिला. हालांकि इसके कई साल बाद भी विदेश नीति को ब्रिटेन कंट्रोल करता था. 1959 में एक और बड़ा परिवर्तन हुआ. मलेशिया की सत्ता में एंट्री हुई एक हीरो की. ली क्वान यू सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री बने. उनके सामने कई चुनौतियां थीं. देश की इकॉनमी खस्ताहाल थी. हालांकि कहना चाहिए खस्ताहाल बना दी गई थी. मुजरिम वही थे जिन्होंने बाकी एशिया का हाल बेहाल किया था. ब्रिटेन ने करीब 150 साल तक सिंगापुर को ट्रेड पोर्ट के रूप में इस्तेमाल किया. ट्रेड किसका?

वही चाय, कपास आदि. लेकिन इसके अलावा एक और चीज भारत से सिंगापुर होते हुए चीन भेजी जाती थी- अफीम. अफीम की आमद हुई तो लोग अफीमची होने लगे. क्राइम बढ़ने लगा. और जब ब्रिटेन को लगा कि सिंगापुर से अब उन्हें फायदे के बजाय नुकसान ज्यादा हो रहा है. वो अपना बोरा बिस्तर लेकर निकल गए. साल में जितने बिजनेस थे, वो भी सिंगापुर से क्वालालम्पुर ट्रांसफर कर दिए गए. कुल मिलाकर हाल ये हुआ कि सिंगापुर गरीब, बहुत गरीब हो गया. 1959 में यहां की 80 % जनता झुग्गियों में रहने को मजबूर थी.

मलेशिया से जुड़ा फिर अलग हो गया 

इन लोगों को झुग्गियों से निकालने का एक ही तरीका था. अर्थव्यस्था की बेहतरी. लेकिन ये होता कैसे! सिंगापुर के पास नेचुरल रेसोर्सेज़ तो थे नहीं, कि उन्हें बेचकर वो अपनी इकॉनमी चलाता. ट्रेड से सारी कमाई होती थी, उसके लिए भी पड़ोसी देशों से बेहतर रिश्तों की जरुरत थी. लेकिन पड़ोस में था मलय देश. जहां मलय वर्सेज़ बाहरी लोगों का मुद्दा जोर पकड़ा हुआ था. सिंगापुर में रहने वाले अधिकतर लोग चीन से आए थे. जो मलय पार्टियों को फूटी आंख नहीं सुहाते थे. लिहाजा सिंगापुर मुश्किल में था. प्रधानमंत्री ली क्वान यू ने इसके लिए एक रास्ता निकाला. 1963 में उन्होंने सिंगापुर का मलेशिया में विलय करा दिया. उन्हें लगा था इससे सिंगापुर की दिक्कतें हल हो जाएंगी, लेकिन हुआ उल्टा. मलेशिया की सरकार ने ऐसे नियम बनाए जिनमें मलय लोगों को पक्षपाती रूप से ज्यादा अधिकार दिए गए. सिंगापुर में चीनी अधिक रहते थे, जिनको लेकर उन्हें डर था कि वो वक्त आने पर चीन की साइड ले लेंगे. बढ़ते-बढ़ते दिक्कतें इतनी बढ़ गई कि मलेशिया ने 1965 में एक ऐसा फैसला ले लिया जिसकी मिसाल नहीं. उन्होंने खुद ही सिंगापुर से बोल दिया, तुम हमसे अलग हो जाओ.

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साल 1965 में सिंगापुर मलेशिया से अलग हो गया था (तस्वीर: द स्ट्रेट टाइम्स)

ली क्वान यू को मलेशिया के इस कदम से ऐसा धक्का लगा कि एक टीवी इंटरव्यू में रो दिए. सिंगापुर के 70 % लोग गरीबी के नीचे रह रहे थे. देश के पास इस गरीबी से निकलने का न कोई जरिया था, न कोई मदद करने वाला. फिर भी ली क्वान यू ने हिम्मत करते हुए एक छोटी सी शुरुआत की. उन्होंने छोटे छोटे कैम्पेन चलाए. अच्छी अंग्रेज़ी बोलो, घर साफ़ रखो, जैसी छोटी-छोटी मुहिम. शुरुआत में ये सब मुस्कुरा कर किया गया लेकिन फिर जोर जबरदस्ती शुरू हो गई. च्यूइंग गम चबाकर जमीन पर फेंकने के जुर्म में 100 कोड़ों की सजा दी जाने लगी. चोरी चकारी या ड्रग्स के धंधे करने वालों की खैर न रही. उन्हें जेल में ठूंसा जाने लगा. 

ये सब करने के पीछे ली क्वान यू का तर्क था कि जब तक कानून का राज न होगा, देश आर्थिक प्रगति नहीं कर सकता. इस चक्कर में उन्होंने प्रेस की आजादी पर भी लगाम लगा दी. जिसने भी सरकार के खिलाफ आवाज उठाई उसकी संपत्ति कुर्क कर दी गई. इस सब का अंजाम हुआ कि ली क्वान एक डिक्टेटर में तब्दील हो गए. देश में इलेक्शन होते थे लेकिन नाम के. हर बार सिर्फ एक पार्टी की जीत होती थी. ली क्वान की पीपल्स एक्शन पार्टी. जल्द ही उनका सिंगापुर पर एकछत्र राज हो गया. सवाल उठ सकता है कि लोगों ने इसके खिलाफ विद्रोह क्यों नहीं किया.

इसका जवाब आपको क्वान के एक बयान से मिलेगा. एक जगह वो कहते हैं “जिन लोगों ने कभी लोकतंत्र जाना ही नहीं उन पर आप लोकतंत्र थोप नहीं सकते.”

समाजवाद + पूंजीवाद 

ली क्वान का अंदाज़ा था कि जब तक देश आर्थिक प्रगति करेगा, तब तक ज्यादा लोगों को अधिकारों की परवाह न होगी. ‘भूखे पेट क्रांति नहीं होती’ सरीखी बात. अपनी बात सिद्ध करने के लिए क्वान ने कई कदम उठाए. यहां पर एक बात जानिए, पूंजीवाद में फ्री मार्किट का जो सिद्धांत चलता है, सिंगापुर की सफलता को उसका चमकता उदाहरण माना जाता है. बात सही भी है. ली क्वान ने शुरुआत से सिंगापुर में उद्योगों को प्रमुखता दी. टैक्स दर न्यून रखी, आसान दरों पर लोन मुहैया कराए, जिसके कारण बिजनेस खूब फैले फूले. लेकिन इस सब से पहले उन्होंने कुछ ऐसे कदम भी उठाए, जिन्हें समाजवाद के साथ जोड़कर देखा जाता है. क्या थे ये कदम?

1966 में सरकार जमीन अधिग्रहण कानून लाई. जमीन खरीद कर उस पर सरकारी मकान बनवाए गए. ताकि लोग सस्ती दरों पर अपना घर खरीद सकें. इसके लिए एक अलग स्कीम भी शुरू की गई ताकि लोग बचत करना शुरू करें. हर कर्मचारी की 25% तनख्वाह सरकारी सेविंग स्कीम में डाली जाती, जिसमें सरकार अपनी ओर से भी उतनी ही रकम देती. इस स्कीम के चलते सिंगापुर के 80 % नागरिकों को अपना घर मिला और बचत के मामले में सिंगापुर दुनिया का अग्रणी देश बन गया.

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सिंगापुर के पहले प्रधानमंत्री ली क्वान यू (तस्वीर: getty)

इसके बाद बारी आई बिजनेस की. क्वान ने बिजनेस की शर्तों में रियायत देकर फॉरेन कम्पनीज़ को सिंगापुर आमंत्रित किया. ठीक इसी वक्त पर चीन में माओ द्वारा चलाई जा रही सांस्कृतिक क्रांति का फायदा सिंगापुर को मिला. निवेशकों ने हॉन्ग कॉन्ग और ताइवान से पैसा निकाल कर सिंगापुर में इन्वेस्ट करना शुरू किया. बाकी इलाकों से इन्वेस्टर्स का आना और बिजनेस समर्थक नीतियों के के चलते महज 10 साल के अंदर सिंगापुर में बेरोजगारी दर लगभग शून्य पर पहुंच गई. इस दौरान सिंगापुर ने हर साल 9% की अविश्वसनीय दर से विकास किया. अक्सर जिस सिस्टम में सरकारी ताकत बहुत ज्यादा होती है, वहां भ्रष्टाचार भी पनपने लगता है. लेकिन ली क्वान ने भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए भी उपाय खोजे. उन्होंने सरकारी अधिकारियों की तनख्वाह खासी ऊंची कर दी. और सख्त क़ानून बनाए ताकि भ्रष्टाचार के लिए कम से कम इंसेंटिव मौजूद हो.

देश में धार्मिक और भाषाई समन्वय बनाने के लिए उन्होंने सरकार को सेकुलर रखा, लोगों को धर्म पालन की आजादी दी. मलय, मैंडरिन और तमिल जैसी सभी भाषाओँ को राजकीय भाषा की संज्ञा दी गई. और इनमें अंग्रेज़ी को भी जोड़ दिया, ताकि सबके पास एक ऐसी भाषा हो , जिसमें सब संवाद कर सकें. इन तमाम कदमों ने देश में शांति का माहौल बनाया. शांति से व्यापार को पनपने का मौका मिला और महज 3 दशक के अंदर सिंगापुर एक विकसित देश बन गया. 21 वीं सदी में सिंगापुर व्यापार आदि के मामले में रोल मॉडल माना जाता है. शिपिंग, पेट्रोकेमिकल, इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे क्षेत्रों में अव्वल होने के चलते 54 लाख की जनसंख्या वाले इस देश में लगभग ढाई लाख करोड़पति तैयार हो गए हैं.

तो क्या सिंगापुर में सब कुछ एकदम स्वर्ग टाइप है?

जवाब है - नहीं. लेकिन सिर्फ तभी जब आप अभिव्यक्ति की आजादी, जैसी चीजों को महत्त्व देते हों. क्वान ली सिंगापुर के हीरो माने जाते हैं लेकिन 2020 में उनके बेटे ने ये कहते हुए चुनाव में उतरने से इंकार कर दिया कि सिंगापुर को एक और ली की जरुरत नहीं है. ली ऐसा इसलिए कह रहे थे क्यूंकि कई सालों की आर्थिक प्रगति के बाद सिंगापुर की जनता को अहसास हुआ कि इस दौरान उन्होंने आजादी का एक हिस्सा गिरवी रख दिया. इन सालों में क्वान ली ने प्रेस की आजादी का लगातार दमन किया. तानाशाहों की तरह उन्होंने अपने विरोधियों को चाहे मारा न हो, लेकिन कानूनी पचड़े में फंसा के उन्हें दिवालिया होने की कगार पर ज़रूर पहुंचा दिया. लोकतंत्र की हालत ये रही कि दशकों तक सिंगापुर में सिर्फ एक पार्टी का राज रहा. इन वजहों से से एक आलोचक को डिज्नीलैंड विथ डेथ पेनेल्टी की संज्ञा दी है. इसके अलावा सिंगापुर की आर्थिक प्रगति का एक और स्याह पहलू है.

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सिंगापुर में करोड़पतियों की संख्या जनसंख्या के हिसाब से (तस्वीर: smartwealth.sg )

उर्सुला ले गुइन नाम की एक अमेरिका लेखिका है. उनका एक उपन्यास है. The Ones Who Walk Away From Omelas. कहानी ओमेला नाम के एक शहर की है. विकसित शहर, अमीर लोग. लेकिन इस शहर का एक सीक्रेट है. शहर के एक तहखाने में एक बच्चा कैद है. वो रिहा हो सकता है. लेकिन दिक्कत ये है कि अगर उसे रिहा किया तो शहर का वैभव चला जाएगा.

ओमेला की तरह सिंगापुर के तहखाने में भी एक राज है. सिंगापुर दुनिया का सबसे महंगा शहर है. और रोजाना कमाकर खाने वाले लाखों लोग ऐसे हैं जिनके लिए गुजारा करना मुश्किल होता जा रहा है. लेबर क़ानून लगभग नदारद हैं, ऐसे में बहुत कम तनख्वाह पर मजदूरों को काम करना पड़ता है. लेबर यूनियन बनाने की परमिशन नहीं है. जिसकी वजह से मजदूरों का शोषण होता है. ऐसा नहीं है कि सरकार इनसे वाकिफ नहीं है. इसलिए हालिया सालों में सिंगापुर की सरकार ने कई सोशल वेलफेयर स्कीम्स शुरू की हैं, ताकि लोगों की मदद हो सके. कुल मिलाकर कहें तो सिंगापुर की डायरी में ऐसे कई वाक्य हैं जो कॉपी किए जा सकते हैं. लेकिन कुछ अर्धविरामों के साथ. वो भी सिर्फ तभी जब आप अभिव्यक्ति की आजादी जैसी चीजों को महत्त्व देते हों. 

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