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लाहौर कैसे बना पाकिस्तान का हिस्सा? कैसे खींची गई थी बंटवारे की लकीर?

Independence Day 2025: कई लोगों के मन में अब भी उम्मीद थी. उन्हें लग रहा था कि यह बंटवारा कुछ दिनों का है, जल्द ही सब शांत होगा और वह अपने-अपने घर लौट जाएंगे. इसी वजह से लोग अपने घरों की चाबियां पड़ोसियों को देकर आए थे. लेकिन अफसोस वो कभी लौट नहीं सके.

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how lahore become part of pakistan and how boundary line of india pakistan border decided
लाहौर बंटवारे से पहले कॉस्मोपोलिटन शहर कहा जाता था, बंटवारे के बाद उसकी वो पहचान नहीं रही (PHOTO-X)
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अनुभव बाजपेयी
14 अगस्त 2025 (Updated: 14 अगस्त 2025, 01:20 PM IST)
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लाहौर (Lahore) से ज्यादा दूर नहीं है दिल्ली. एक सरहद है, नाम है रेडक्लिफ लाइन (Redcliff Line) . जो कई दिलों को चीरती है. आज की तारीख में भी ऐसे लोग आपको मिल जाएंगे जो बंटवारे के पहले का लाहौर बयां करेंगे, विभाजन के दंगों का दुख सुनाएंगे और शहर के कॉस्मोपॉलिटन कल्चर के कसीदे पढ़ेंगे. असगर वजाहत ने तो प्ले भी इसी पर लिख दिया ‘जिन लाहौर नहीं देख्या वो जम्याई नई'. भले ही लाहौर आज पाकिस्तान में है लेकिन ये हिंदुस्तान में भी हो सकता था. भारत के हाथ में आते-आते कैसे छिटक गया लाहौर? लाहौर की कहानियां क्या है? क्यों लाहौर की गलियों पर तमाम कवियों ने तमाम किस्सागों ने अपने-अपने तरीके से अपनी-अपनी बात रखी है. तो जानते हैं क्या थे वो कारण जिनकी वजह से लाहौर भारत में आते-आते रह गया.

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सन 1930 मे लाहौर शहर (PHOTO- X/@IndiaHistorypic)

मैं चार साल का था, मां ने जल्दी-जल्दी मुझे अपनी बांह में दबाया बहन को गोद में लिया. जो सामान हो सकता था कार में रखा. हमारे ड्राइवर कुलवंत सिंह थे जिनका परिवार मारा जा चुका था. वह इसलिए बच गए क्योंकि हमारे साथ थे. एक बच्चे के तौर पर आप सब कुछ स्वीकार कर लेते हैं. जब बड़े हुए तब समझ आया कि क्या खो दिया. अगर बंटवारा ना हुआ होता निश्चित तौर पर मैं आज लाहौर में बैठा होता ना कि दिल्ली में.

सरजीत सिंह की यह बातें सुनकर मन में हुक उठती है. बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने उस वक्त की यादें साझा की थीं. विभाजन ने कई जिंदगियां तबाह की गांव के गांव जला दिए गए. भारतीय मूल के अमेरिकी लेखक निसीद हजारी अपनी किताब मिडनाइट्स फ्यूरीज में लिखते हैं 

हत्यारों के गिरोहों ने पूरे गांव को आग के हवाले कर दिया. पुरुषों, बच्चों और बूढ़ों को मौत के घाट उतार दिया. युवतियों को बलात्कार के लिए ले गए. कुछ ब्रिटिश सैनिकों और पत्रकारों ने नाजी डेथ कैंप्स देखे थे. उन्होंने दावा किया कि विभाजन की क्रूरताएं और भी बदतर थीं. प्रेग्नेंट महिलाओं के स्तन काट दिए गए उनके पेट से बच्चे काटकर निकाले गए और उन बच्चों को सच में भून दिया गया.

खुशवंत सिंह पार्टीशन से पहले लाहौर में रहते थे. 1947 के बसंत तक रोज दंगों की खबरें अखबार में पढ़ते थे. खुशवंत को भरोसा था कि यह सब बीत जाएगा. बाउंड्री कमीशन अपना काम पूरा करेगी. भारत पाकिस्तान दो मुल्क बनेंगे और उन्हें लाहौर छोड़कर नहीं जाना पड़ेगा. मगर अगस्त 1947 की शुरुआत में चीजें बदलने लगी दंगों ने नरसंहार का रूप ले लिया. यह स्पष्ट हो गया कि सिखों और हिंदुओं को पाकिस्तान छोड़कर जाना पड़ेगा. खुशवंत सिंह सिख थे लेकिन इस उम्मीद से लाहौर में रुके रहे कि उन्हें अपना वतन छोड़कर नहीं जाना पड़ेगा. यहीं वो पैदा हुए, यहीं उनके सभी करीबी दोस्त थे, यहीं रिश्तेदार थे जिनमें तमाम मुस्लिम भी थे. 

Not a nice man to lose - India Today
खुशवंत सिंह (PHOTO-India Today)

लेकिन खुशवंत को शायद इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका ही वतन अब उनके लिए परदेस हो चुका है वो अपनी किताब पंजाब 'पंजाबीज एंड पंजाबियत' में इस बारे में जिक्र करते हुए लिखते हैं

अगस्त के पहले हफ्ते की एक दोपहर मैंने बाजारों से काले धुएं के गुब्वार उठते देखे. गोलियों की आवाजें सुनी. महिलाओं की चीखें भी कानों में पड़ रही थी. आजादी से एक सप्ताह पहले पंजाब सीआईडी चीफ क्रिस एवरेट ने मुझे लाहौर से निकल जाने की सलाह दी. उन्होंने लंदन में मेरे साथ कानून की पढ़ाई की थी. 

शायद खुशवंत सिंह अब तक समझ चुके थे कि उनका मुल्क अब पराया हो चला है. लेकिन कई लोगों के मन में अब भी उम्मीद थी. उन्हें लग रहा था कि यह बंटवारा कुछ दिनों का है, जल्द ही सब शांत होगा और वह अपने-अपने घर लौट जाएंगे. इसी वजह से लोग अपने घरों की चाबियां पड़ोसियों को देकर आए थे. लेकिन अफसोस वो कभी लौट नहीं सके.

खुशवंत सिंह लाहौर में इतने दिन तक क्यों रुके रहे? 

क्या खुशवंत सिंह को उम्मीद थी कि लाहौर भारत का हिस्सा होगा? बिल्कुल ऐसा होने भी वाला था क्योंकि देश का बंटवारा धर्म के आधार पर हुआ था और लाहौर में मुस्लिम ज्यादा थे इसलिए इसे पाकिस्तान को दिया गया होगा. ऊपर ऊपर से देखकर ऐसा लगता है पर ऐसा है नहीं. पाकिस्तान को लाहौर मिलने के पीछे कहानी कुछ और है. भले ही लाहौर में मुस्लिम ज्यादा थे लेकिन वहां की अर्थव्यवस्था पर नॉन मुस्लिम्स यानी हिंदू और सिखों का प्रभुत्व था. कई जगह तो यह भी जिक्र मिलता है कि करीब 75 से 80% कॉमर्स और व्यापार हिंदू और सिखों के पास था. भगत सिंह जैसे बड़े क्रांतिकारी को यहीं फांसी दी गई. फादर ऑफ मॉडर्न लाहौर सर गंगाराम भी हिंदू थे. उनके नाम पर अस्पताल भी लाहौर में था. कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में ही पूर्ण स्वराज के लक्ष्य की घोषणा की गई. हालांकि यहीं पर 1940 में पाकिस्तान बनने की नींव भी मुस्लिम लीग ने रखी थी.

Ganga Ram - Wikipedia
सर गंगाराम (PHOTO-Wikipedia)

जब देश का बंटवारा होने की बात आई तो दो बाउंड्री कमीशन बनाए गए. एक बंगाल के लिए दूसरा पंजाब के लिए. हर कमीशन में दो भारतीय दो पाकिस्तान के नुमाइंदे थे. इन दोनों का चेयरमैन सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ को बनाया गया जो एक ब्रिटिश वकील थे. पंजाब प्रोविंस का बंटवारा ज्यादा पेचीदा था क्योंकि बहुत सारे सिख और हिंदू आज के पाकिस्तान में रहते थे. बाउंड्री कमीशन से पहले जब बंटवारे की बात चली तो कुछ लोगों ने पंजाब को तीन हिस्सों में बांटने का प्रस्ताव दिया था. सरदार हरनाम सिंह, सरदार सोन सिंह और लाला भीमसेन सच्चर समेत सिख और कांग्रेस नेताओं ने पंजाब के विभाजन की एक योजना पेश की. उन्होंने पंजाब को तीन भागों में विभाजित करने की बात कही.

Cyril John Radcliffe, 1st Viscount Radcliffe - Person - National Portrait  Gallery
सर सिरिल जॉन रेडक्लिफ (PHOTO-National Portrait Gallery)

पहला हिस्सा अंबाला और जालंधर डिवीजंस को मिलाकर एक गैर मुस्लिम प्रांत, दूसरा हिस्सा रावलपिंडी और मुल्तान डिवीजंस का एक मुस्लिम प्रांत, और तीसरा हिस्सा हिंदुओं, मुसलमानों और सिखों के संयुक्त नियंत्रण में लाहौर डिवीजन वाला एक प्रांत. माने लाहौर डिवीजन का बंटवारा ट्रिकी था. इसमें सियालकोट, गुजरावाला, लाहौर, अमृतसर और गुरदासपुर जैसे जिले थे. इनमें से लाहौर का मामला और ज्यादा जटिल था. क्योंकि ये एक बड़ा शहर था यहां मुस्लिम मेजॉरिटी थी लेकिन कारोबार नॉन मुस्लिम्स के हाथ था जो कि एक विरोधाभास था.

यहां पर यह बातें भी चलती हैं कि रेडक्लिफ को बाउंड्री कमीशन का चेयरमैन बनाने का सुझाव मोहम्मद अली जिन्ना ने ही दिया था. इसलिए उन्होंने लाहौर पाकिस्तान को दे दिया. लेकिन सीनियर जर्नलिस्ट कुलदीप नैयर इस बात को नकारते हैं. उन्होंने 1971 में रेडक्लिफ का इंटरव्यू किया था. यह पूरी बातचीत नैयर ने अपनी किताब ‘स्कूप इनसाइड स्टोरीज फ्रॉम द पार्टीशन टू द प्रेजेंट’. इस किताब में यह दर्ज की है यह इंटरव्यू लंदन में रेडक्लिफ के फ्लैट पर रिकॉर्ड हुआ था. नैयर यह जानना चाहते थे कि भारत-पाक की बाउंड्रीज आखिर खींची कैसे गई थी. हालांकि पंजाब बाउंड्री कमीशन के चार सदस्य और थे. भारत से मेहर चंद महाजन और तेजा सिंह, पाकिस्तान से दीन मोहम्मद और मोहम्मद मुनीर. यह सभी सर्विंग जज थे मेहर चंद महाजन आगे चलकर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया भी बने. 

Scoo: Inside Stories from the Partition to the Present : Nayar, Kuldip:  Amazon.in: Books
कुलदीप नैयर 

इन चारों के बावजूद आखिरी फैसला रेडक्लिफ का ही होता था क्योंकि भारत के दोनों नुमाइंदे एक तरफ होते थे, और पाकिस्तान के दूसरी तरफ. जाहिरन रेडक्लिफ को बहुत कम समय दिया गया था. अपना काम करने के लिए उन्हें सिर्फ पांच हफ्ते दिए गए.. उन्हें सब कुछ जल्दी-जल्दी निपटाना था. रेडक्लिफ दोनों बाउंड्री कमीशंस के मेंबर्स से भी खुश नहीं थे. उनका मानना था कि दोनों तरफ के लोग सिर्फ अपने लिए ज्यादा चाहते हैं, और कुछ नहीं. उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि पूर्वी बंगाल के एक मुस्लिम मेंबर उनके पास आए और दार्जिलिंग को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने की गुजारिश की. इस पर उनका तर्क बड़ा जोरदार था मेरी फैमिली हर साल गर्मियों में दार्जिलिंग जाती है, अगर यह जगह भारत में चली गई तो हमारे लिए बड़ी मुश्किल हो जाएगी. हालांकि रेडक्लिफ ने मेहरचंद महाजन की तारीफ जरूर की थी.

Biography
जस्टिस मेहरचंद महाजन (PHOTO-Meharchand Mahajan Charitable Trust)

कुलदीप नैयर ने यह भी जानना चाहा कि सीमा निर्धारण के लिए कौन सा पैमाना अपनाया गया? लेकिन कमाल यह था कि रेडक्लिफ के पास बाउंड्री के लिए कोई निश्चित नियम ही नहीं था. रेडक्लिफ भले ही निष्पक्ष रहे हों, लेकिन ना उन्हें भारत की डेमोग्राफी का अंदाजा था और ना ही हिंदू-मुस्लिम समस्या का. उन्हें इतना पता था कि बंटवारा धर्म के आधार पर कर दिया जाना है. इसके लिए उन्हें ना ढंग के नक्शे दिए गए, ना ही कोई एक्सपर्ट जो सब भूगोल समझता. इस बाबत जब रेडक्लिफ से पूछा गया कि जिस तरीके से उन्होंने भारत-पाकिस्तान के बीच बॉर्डर खींचा उससे क्या वो संतुष्ट हैं? इस पर रेडक्लिफ का क्या जवाब था

मेरे पास कोई विकल्प नहीं था. समय इतना कम था कि मैं इससे बेहतर नहीं कर सकता था. अगर मेरे पास दो से 3 साल होते तो मैं अपने काम में बेशक सुधार कर सकता था. 

जब उनसे पाकिस्तानियों की रेडक्लिफ लाइन को लेकर नाराजगी के बारे में सवाल किया गया तो उन्होंने इसके लिए एक बड़ी तीखी बात उस समय कही थी रेडक्लिफ के शब्द थे 

उन्हें मेरा शुक्रगुजार होना चाहिए मैंने उन्हें लाहौर देने के लिए अपनी सीमा से आगे बढ़कर काम किया जो भारत को मिलना चाहिए था. वैसे भी मैंने हिंदुओं से ज्यादा मुसलमानों का पक्ष लिया. 

इंद्र कुमार गुजराल के भाई पेंटर सतीश गुजराल इस संबंध में बीबीसी को बताया था कि मेरे ज्यादातर मुस्लिम दोस्त भी इस बात से सहमत थे कि लाहौर के भारत में जाने की ज्यादा उम्मीद है. कहा कि वहां सब कुछ हिंदुओं का था जैसे एजुकेशन, मनी बैंक, इंश्योरेंस, बिल्डिंग, बिजनेस आदि.

रेडक्लिफ ने यह स्वीकार किया है कि वह लाहौर पहले भारत को देने वाले थे. यह निर्णय लिया भी जा चुका था. बाद में उन्होंने अपना फैसला बदल दिया. उनका कहना था मैं लाहौर लगभग इंडिया को दे चुका था. फिर मुझे एहसास हुआ कि पाकिस्तान में कोई बड़ा शहर नहीं होगा. मैंने पहले ही कोलकाता भारत के लिए चिन्हित कर लिया था. माने इस वजह से लाहौर पाकिस्तान में नहीं गया कि ये मुस्लिम बहुल इलाका था, बल्कि इसलिए क्योंकि रेडक्लिफ को लग रहा था कि सारे बड़े शहर भारत को मिल जाएंगे तो पाकिस्तान का क्या होगा? पूरे पाकिस्तान में भी कोई बहुत बड़ा शहर नहीं था. कलकत्ता जिसे अब कोलकाता कहा जाता है पहले ही भारत के हिस्से आ चुका था, इसलिए रेडक्लिफ ने स्वविवेक से लाहौर पाकिस्तान को दे दिया. और इस संबंध में वो जो तमाम स्वीकारोक्ति कर चुके हैं. वह भी अब आपके सामने ही है जिसमें यह भी शामिल है कि अगर ज्यादा समय होता तो बेशक मैं इस संबंध में विभाजन के संबंध में सुधार करता. 

क्योंकि इन दिनों लगातार भारत-पाक संबंधों पर एक नए सिरे से बात हो रही है. भारत ने अपना रुख साफ कर दिया है कि पाकिस्तान प्रायोजित किसी भी तरह के आतंकवादी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. और जब भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर एक बार फिर से नए सिरे से बातें हो रही है कि अब क्या करवट लेंगे दोनों देशों के संबंध. इसीलिए लाहौर की इस कहानी को झाड़पोछ कर आपके लिए निकाला गया.

वीडियो: तारीख: ये न हुआ होता तो लाहौर भारत के पास होता, कहानी 'रेडक्लिफ लाइन' की

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