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जेल के कैदियों को काली-सफेद धारी वाली ड्रेस क्यों पहनाते थे? कैसे हुई इसकी शुरुआत?

यही यूनिफॉर्म क्यों चुनी गई, क्या अब भी यही सिस्टम चल रहा, जान लीजिए

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जेल में कैदियों की यूनिफॉर्म में अब कालिया की तरह ऐसी काली-सफेद धारियां नहीं होती. साधारण सा सफेद कुर्ता-पायजामा होता है. लेकिन ये यूनिफॉर्म आई कहां से? नीचे स्क्रॉल करिए, स्टोरी पढ़िए. (फोटो- Shemaroo के यूट्यूब चैनल से स्क्रीनशॉट)
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अभिषेक त्रिपाठी
24 दिसंबर 2020 (Updated: 24 दिसंबर 2020, 06:00 PM IST) कॉमेंट्स
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पोषम पा खेला है बचपन में? “अब तो जेल में जाना पड़ेगा, जेल की रोटी खानी पड़ेगी, जेल का पानी पीना पड़ेगा.” याद आया न! पोषम पा के इस खेल में एक चीज़ मिसिंग थी– “जेल की पोशाक पहननी पड़ेगी”. जेल की पोशाक.. काली-सफेद धारी वाली वो यूनिफॉर्म, जो कैदी पहनते हैं. Prisoner’s Uniform. आज बात कैदियों की इसी यूनिफॉर्म पर. कहां से आई, क्यों आई, काली-सफेद धारी ही क्यों. और क्या अब भी कैदी यही पहनते हैं? सब.

कैदियों की रहाइश का ऑबर्न सिस्टम

18वीं सदी की बात है. रामराज्य कबका जा चुका था. घरों में ताले लगने शुरू हो गए थे. जेलें भरी जाने लगी थीं. लेकिन अभी तक कैदियों के लिए किसी यूनिफॉर्म का चयन नहीं हुआ था. कैदी अपने एक-दो जोड़ी कपड़ों में सजा काटते थे. लेकिन अगली सदी की शुरुआत से ही अमेरिका में आया ऑबर्न प्रिज़न सिस्टम (Auburn Prison System). Handwoven और Ranker वेबसाइट्स से मिली जानकारियों के अनुसार, ऑबर्न प्रिज़न सिस्टम को कैदियों की ऑलटाइम सबसे कड़ी सज़ा में से माना जाता है. इसमें दिन में तो कैदियों से काम कराया जाता था. कुछ-कुछ वैसा ही श्रम, जैसा आजकल की जेलों में कराया जाता है. लेकिन शाम को जैसे ही कैदी अपनी-अपनी बैरकों में लौटते थे, तो किसी भी कैदी के लिए बोलना मना होता था. कम्प्लीट साइलेंस. चूं भी करने पर सख़्त सज़ा. कैदी, जेलर से आंख नहीं मिला सकता था. उसकी तरफ देख नहीं सकता था. कहा जाता है कि कैदियों के अंदर से Sense of Self को ख़त्म करने के लिए इतना सख़्त सुलूक किया जाता था. जब Sense of Self ख़त्म हो जाएगा, तो कैदी वही करेगा, जो जेलर या वॉर्डन कहेगा. इस ऑबर्न प्रिज़न सिस्टम ने कैदियों के रख-रखाव में एक और बड़ा बदलाव किया. माना जाता है कि यहीं से पहली बार जेल के कैदियों की एक पोशाक तय की गई. सभी कैदी ग्रे-ब्लैक कलर की धारीदार पोशाक में दिखने लगे. जेल की सलाखों की थीम पर ये पोशाक तय की गई थी.

अ सिंबल ऑफ शेम

कैदी तो बिना यूनिफॉर्म के भी कैदी थे. फिर ये ज़रूरत क्यों आन पड़ी कि साब, एक जैसे कपड़े पहनाओ. इसके कारण थे –
1. इस बात को सार्वजनिक बताया गया कि कैदियों की यूनिफॉर्म अब ऐसी रहेगी. ताकि अगर कोई कैदी भाग जाए तो बाहर भी लोग उसे यूनिफॉर्म से पहचान कर पुलिस को सूचना दे सकें. 2. कैदियों में एक अनुशासन की भावना लाने के लिए. उन्हें अपनी यूनिफॉर्म की हिफाज़त करनी होती थी, रेग्युलर धोना होता था. 3. रंगीन हो रही दुनिया में ग्रे-ब्लैक स्ट्रिप्स को एक ‘सिंबल ऑफ शेम’ की तरफ प्रस्तुत किया गया. शर्म का प्रतीक. कैदियों का कपड़ा.

19वीं सदी, कैदियों के मानवाधिकार

19वीं सदी आधी बीत चुकी थी. अब तक कैदियों को एक ऐसी प्रजाति माना जाता था, जिनके कोई मानवाधिकार नहीं. जो क्राइम करके आया है, उसके कैसे अधिकार? धीरे-धीरे ये सोच बदली. लोगों के दिल-दिमाग में जेल का कॉन्सेप्ट बदलना शुरू हुआ. अब इसे सज़ा से पहले सुधार की जगह के तौर पर लिया जाने लगा. ऐसी जगह, जहां किसी अपराधी को लाया जाता है. इस कोशिश में कि वो यहां के अनुशासन में रहकर सुधरेगा. ऐसी सुधार प्रक्रिया में ‘सिंबल ऑफ शेम’ के लिए जगह नहीं थी. लेकिन कैदियों की पहचान के लिए यूनिफॉर्म भी ज़रूरी ही थी. तो बात ये तय हुई कि यूनिफॉर्म तो रहेगी, लेकिन रंग हल्का किया जाएगा. 19वीं सदी के मिड से पहली बार काली-सफेद धारी वाली पोशाक कैदियों के साथ जुड़ी. ‘सिंबल ऑफ शेम’ को छोड़कर यूनिफॉर्म के बाकी कॉन्सेप्ट वही, पुराने वाले. कई लोग आज भी इस यूनिफॉर्म की थीम जेल की सलाखों को ही मानते हैं.

अब बात भारत की

स्टोरी में अभी तक हम वैश्विक थे. अब ‘वोकल फॉर लोकल’ होने का समय है. बात भारत की. काली-सफेद धारी को कई देशों में कैदियों की यूनिफॉर्म के तौर पर स्वीकार किया जा चुका था. लेकिन कई देशों में अपना अलग ड्रेस कोड भी था. जैसे नारंगी जंपसूट, जींस-शर्ट वगैरह. लेकिन ब्रो, व्हॉट अबाउट भारत? Parliamentlibraryindia.nic.in से मिली जानकारियों को टाइमलाइन से समझते हैं.
1835 - भारत में आधुनिक जेलों का कॉन्सेप्ट आया. अंग्रेज अधिकारी टीबी मैकाले ने इसका खाका तैयार किया. 1838 – कैदियों के मानवाधिकार की बात उठी. समीक्षा के लिए Prison Discipline Committee बनी. कमेटी ने कहा – कैदियों के कोई अधिकार नहीं. 1864 – जेलों की एक और समीक्षा. इस बार कमेटी ने कैदियों के रहन-सहन, उनके भोजन, कपड़े, सेहत को लेकर तमाम सुझाव दिए. सुधार की ज़रूरत पर जोर दिया. हालांकि कोई सुधार हुआ नहीं. 1888 – एक और कमेटी. फिर वही सुझाव. लेकिन अब तक पूरी दुनिया कैदियों के लिए मानवाधिकार की बात मान चुकी थी. ब्रिटिश शासन को भी माननी पड़ी. सुझावों पर अमल शुरू हुआ. 1894 – वायसराय के दस्तख़त के साथ ही जेल के कैदियों के लिए पहली बार एक ऐक्ट बना. The Prison Act 1894. जिसे जेल मैनुअल भी कहा जाता है.
आज तक भारत में थोड़े-बहुत सुधारों के साथ कैदियों के रख-रखाव का कमोबेश यही कायदा चल रहा है. इस Prison Act पर कभी अलग से बात करेंगे. इसमें कैदियों की यूनिफॉर्म का अलग से कोई ज़िक्र तो नहीं किया गया. लेकिन चूंकि ब्रिटेन में काली-सफेद धारी वाली यूनिफॉर्म थी तो भारत में भी इसे अंडरस्टुड यूनिफॉर्म के तौर पर स्वीकार कर लिया गया. तब से लेकर ब्रिटिश शासन रहने तक और इसके भी काफी समय बाद तक इसे ही जेल में कैदियों की यूनिफॉर्म रखा गया. महिला कैदियों के लिए सफेद साड़ी. कई जेलों में नीली साड़ी भी रहती है.

यहां मैं आपको करेक्ट करना चाहूंगा

हम में से कई लोगों को लगता होगा कि अभी भी जेल में कैदी यही काली-सफेद धारी वाली यूनिफॉर्म पहनते हैं. ऐसा नहीं है. The Lallantop ने बात की तिहाड़ जेल के जेलर रहे सुनील गुप्ता से. उन्होंने ‘ब्लैक वॉरेंट-कन्फेशंस ऑफ अ तिहाड़ जेलर’ नाम की किताब भी लिखी है. उन्होंने बताया –
“कैदियों की यूनिफॉर्म पहले खादी की हुआ करती थी. लेकिन धीरे-धीरे ये महसूस किया गया कि कैदी इसमें आरामदायक महसूस नहीं कर रहे थे. हमारे यहां कैदियों को रखने का उद्देश्य सज़ा से ज़्यादा सुधार होता है. बाद में खादी की जगह हल्के कपड़े के कुर्ते-पायजामे को अनुमति दी गई. काली-सफेद धारी को तो अपमानजनक मानकर अंग्रेजों के बाद से ही बंद कर दिया गया था. इसके बाद से सफेद कुर्ता-पायजामा ही कैदियों की यूनिफॉर्म है. पहले तो कैदियों को गांधी टोपी लगाने की भी मनाही रहती थी. लेकिन दिल्ली जेल मैनुअल- 1988 में इस मनाही को हटाया गया. इसके बाद से कैदी गांधी टोपी भी लगाने लगे.”
जहां एक ओर ये तर्क है कि यूनिफॉर्म से अनुशासन का भाव आता है. और इसकी ज़रूरत एक अपराधी से ज़्यादा किसे ही होगी! इसलिए कैदियों की यूनिफॉर्म ज़रूरी है. वहीं दूसरी तरफ ये बहस भी रहती है कि कैदियों को बरसों तक एक ही यूनिफॉर्म में रखना ठीक नहीं. The Guardian वेबसाइट पर एक स्टोरी है- Why prison uniforms are a bad idea. इस स्टोरी में पत्रकार होमा खलीली को Dress behind bars किताब की राइटर जूलियट ऐश ने बताया है कि –
“जेल में कैदियों से बात करने पर पता चलता है कि उनकी असल दिक्कत क्या है. एक कैदी, दूसरे कैदी की अंडरवियर पहनने को मजबूर है. क्योंकि जेलों में कपड़े धोने-सुखाने की कायदे की व्यवस्था ही नहीं है. जब उन्हें किसी दूसरे की अंडरवियर इस्तेमाल करनी पड़ती है तो उन्हें शर्म महसूस होती है. वे बेइज्ज़त महसूस करते हैं. आप बाहरी लुक मेंटेन कराके (यूनिफॉर्म) कैदियों में अनुशासन लाना चाहते हैं, उन्हें सुधारना चाहते हैं. लेकिन जब तक किसी व्यक्ति में शर्म, बेइज्ज़ती का भाव रहेगा, वो सुधर नहीं सकता.”
ये एक दीगर बहस है कि कैदियों की यूनिफॉर्म रहनी चाहिए या नहीं. लेकिन नो यूनिफॉर्म से लेकर सिंबल ऑफ शेम और फिर काली-सफेद धारी तक Prison Uniform का ये सफर लंबा रहा है. और अपने आप में कैदियों के मानव अधिकारों की एक लंबी कहानी समेटे है. कभी फिर साथ बैठेंगे, तो कपड़ों से इतर कैदियों के अन्य अधिकारों पर भी बात करेंगे.

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