दिल्ली वालों के शरीर में घुस सकता है पारा, रिसर्च में सामने आया नया खतरा
शोध में सामने आया है, जिसमें बताया गया है कि दिल्ली की हवा में पारे के कण भी तैर रहे हैं. माने हवा जितनी खराब अब तक थी. उससे और ज्यादा खराब और जहरीली हो गई है.

‘दिल्ली की हवा खराब है’ कोई बोले तो आप भी झट से कह देंगे कि इसमें क्या नई बात है? सालों बीत गए ये बात सुनते कि दिल्ली में सांस लेना दूभर है. हवा जहरीली है. इतने सालों से यही तो एक चीज है, जिसमें कुछ भी तो बदलता नहीं. लेकिन अब थोड़ा सा कुछ बदला है. अभी तक आप सुनते होंगे कि हवा में PM 2.5 या PM 10 का लेवल बढ़ रहा है या घट रहा है. अब एक शोध सामने आया है, जिसमें बताया गया है कि दिल्ली की हवा में पारे के कण भी तैर रहे हैं. माने हवा जितनी खराब अब तक थी. उससे और ज्यादा खराब और जहरीली हो गई.
क्या है शोध में?एनडीटीवी के मुताबिक, पुणे के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मेटियोरोलॉजी (IITM) ने एक शोध किया, जो Springer की जर्नल Air Quality, Atmosphere & Health में छपा है. इस रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली की हवा में औसतन प्रति घन मीटर एरिया में 6.9 नैनोग्राम पारा यानी मर्करी है. जबकि, अहमदाबाद में यह औसतन 2.1 नैनोग्राम प्रति घन मीटर और पुणे में सिर्फ 1.5 नैनोग्राम प्रति घन मीटर है. दोनों ही शहरों में हवा में पारे की मात्रा दिल्ली से काफी कम है.
हवा में पारे का स्तर जानने के लिए पहली बार ऐसा कोई शोध किया गया है, जिसमें 2018 से 2024 तक गैस के रूप में मौजूद पारे के आंकड़ों का अध्ययन किया गया.
पर्यावरणविद और रांची विश्वविद्यालय में प्रोफेसर डॉ. नीतीश प्रियदर्शी बताते हैं कि पारा भारी धातुओं (Heavy elements) में आता है और यह इंसानों की सेहत के लिए बड़ा खतरा होता है. इसकी खासियत होती है कि 6 महीने से लेकर एक साल तक यह हवा में टिका रह सकता है. इतना ही नहीं, यह एक जगह ठहरा भी नहीं रहता बल्कि हवा के जरिए एक जगह से दूसरी जगह तक ट्रांसफर होता रहता है. यानी इसका स्रोत कहीं और हो तो भी यह दूर-दराज के इलाकों में पहुंच सकता है.
हवा में पारे के ये कण आते कैसे हैं?डॉ. प्रियदर्शी के मुताबिक, इसके स्रोत दो प्रकार के होते हैं.
पहला, प्राकृतिक स्रोत– जैसे ज्वालामुखी (volcano) से पारा निकलता है और हवा में घुल जाता है. लेकिन दिल्ली के आसपास तो कोई ज्वालामुखी नहीं है.
दूसरा कारण, जैविक विघटन (biological degradation) हो सकता है. अब इसकी भी संभावना कम से कम दिल्ली में तो नहीं ही है.
तीसरे कारण पर आते हैं. ये है मानव निर्मित स्रोत (Man-made sources). कोयले से चलने वाले थर्मल पावर प्लांट इसमें आ सकते हैं. जैसे झारखंड के सिंगरौली आदि इलाकों के कोयले में बहुत सूक्ष्म मात्रा में पारा पाया जाता है. थर्मल पावर प्लांट से निकलने वाले पारे से वहां के लोगों को सेहत के स्तर पर काफी मुश्किलें होती हैं. दिल्ली और उसके आसपास के इलाकों में अगर कोई थर्मल पावर प्लांट चल रहा है तो उसकी वजह से भी वातावरण में पारे का उत्सर्जन हो सकता है.
चौथा कारण है, सोने की खदानों से भी पारा निकलता है, लेकिन दिल्ली में गोल्ड माइनिंग नहीं होती, इसलिए यहां ये कारण नहीं हो सकता.
पांचवा कारणः बैटरियां, बल्ब, थर्मामीटर आदि के बनाए जाने और उनके Disposal से भी पारा वातावरण में जा सकता है.
छठी वजह है, कचरा जलाने (incineration) की क्रिया. खासतौर पर अगर उसमें पारा मौजूद हो तो यह वायुमंडल में पहुंचकर हवा में घुल जाता है. दिल्ली में गाजीपुर जैसे बड़े कूड़े के पहाड़ हैं. वहां अगर खुले में कचरा जलाया जाता है और उसमें पारा मिला हुआ है तो उससे भी वातावरण में पारा जा सकता है.
IITM के शोध की मानें तो तकरीबन 72 से 92 प्रतिशत पारा इंसानी गतिविधियों से आता है. जैसे कोयला-तेल जलाने से. फैक्ट्री और गाड़ियों से निकलने वाले धुएं से. तकरीबन 8 प्रतिशत से 28 प्रतिशत पारा हवा में प्राकृतिक स्रोतों जैसे- मिट्टी और फोटो केमिकल प्रक्रियाओं से आता है.
डॉ. प्रियदर्शी बताते हैं कि जिन जगहों पर ज्वालामुखी विस्फोट होता है, वहां पर हवा में पारे की सांद्रता (Concentration) सबसे ज्यादा होती है. यह हवा से संचरण करता है. ऐसे में अगर दिल्ली की हवा में पारा मिला है तो इसकी बहुत आशंका है कि यह दिल्ली के आसपास के इलाकों में भी पहुंचेगा.
कितना खतरनाक है हवा में पारा?पारा भारी धातु है, जैसा पहले बताया ही है. यह स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह तो होता ही है लेकिन दिल्ली की हवा में पारा कितना ज्यादा खतरनाक है, ये जानने के लिए पहले पता लगाना होगा कि हवा में किस प्रकार का पारा मौजूद है. क्योंकि मिथाइल मर्करी (Methyl Mercury) सबसे जहरीला पारा होता है. ऐसे में इससे नुकसान का आकलन करने के लिए पहले ये ट्रेस करना जरूरी है कि हवा में किस स्वरूप का पारा है?
शरीर पर कैसा असर डालेगापारा सांस के जरिए, भोजन के जरिए और पानी में घुलनशील होने की वजह से भूजल के रास्ते पानी के जरिए हमारे शरीर में प्रवेश कर सकता है. डॉ. प्रियदर्शी बताते हैं कि पारे का सबसे बुरा असर इंसान के तंत्रिका तंत्र (Nervous System) पर पड़ता है. गर्भवती महिला अगर इसके संपर्क में आ जाए तो भ्रूण के मस्तिष्क के विकास पर यह गहरा असर डालता है. यह मिनामाता रोग (Minamata Disease) का प्रमुख कारण है, जिसमें हाथ-पांव कांपने लगते हैं और शरीर का संतुलन बिगड़ जाता है.
मिनामाता रोग क्या है?
मिनामाता जापान में मछुआरों का एक गांव है, जहां पर इस रोग के सबसे पहले मामले सामने आए थे. ये 1950 की बात है, जब गांववालों ने देखा कि उनकी बिल्लियां अजीब तरह से व्यवहार कर रही हैं. वह अचानक से समुद्र में गिर जाती थीं. लोगों को लगने लगा कि बिल्लियां खुदकुशी कर रही हैं लेकिन कुछ ही समय बाद इंसानों में भी कुछ अजीब लक्षण दिखने लगे. जैसे, हाथ-पैर और होंठ सुन्न होना. सुनने और देखने में दिक्कत होना. हाथ-पैर कांपना. चलने में परेशानी. जुलाई 1959 में कुमामोटो यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने बीमारी का कारण ढूंढ लिया. उन्होंने बताया कि ये पारा (mercury) का जहर था. दावा किया गया कि चिस्सो कॉरपोरेशन नाम की एक बड़ी कंपनी ने लगभग 82 टन पारे वाला कचरा समुद्र में फेंका था.
अब पारे के अन्य दुष्प्रभावों पर आते हैं.
इससे हमारी स्मरण शक्ति कमजोर होती जाती है.
जीभ लड़खड़ाने लगती है और बोलने में कठिनाई आती है.
चिड़चिड़ापन और मानसिक अस्थिरता बढ़ती है.
नींद में परेशानी और थकान जैसी समस्याएं भी होने लगती हैं.
पारे के लंबे समय तक संपर्क से कैंसर जैसी गंभीर बीमारियां भी हो सकती हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHO पारे को बेहद खतरनाक मानता है और इसे उन 10 सबसे खतरनाक केमिकल्स में गिनता है, जो इंसानी सेहत के लिए बड़ा खतरा हैं. IISC के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के प्रोफेसर गुफरान बेग ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि इसकी थोड़ी-सी मात्रा भी अगर लंबे समय (5-10 साल) तक सांस के जरिए शरीर में जाती रहे तो यह बहुत नुकसान कर सकती है.
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