क्या है दारुल उलूम देवबंद, जिसके नाम पर पाकिस्तान में आतंकवादी संगठन पनप रहे हैं
पाकिस्तान के सभी बड़े आतंकियों का भारत की इस यूनिवर्सिटी से कनेक्शन क्या है?
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दारुल उलूम देवबंद एक मदरसे की तरह शुरू हुआ और अपने सुधारवादी आन्दोलन की वजह से देखते ही देखते सुन्नी इस्लाम का एक अलग फिरका बन गया.
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन,रंगून में निर्वासित की जिंदगी जी रहे अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र का यह शेर मुगल सल्तनत का पराजयघोष था. अंग्रेजों के दिल्ली पर कब्जे ने भारत में नए राजनीतिक समीकरणों को जन्म दिया. 1192 ईस्वी में गुलाम वंश की स्थपना से लेकर 1857 तक मुस्लिम दिल्ली की सत्ता के केंद्र में थे. 1857 में अवध के नवाब और दिल्ली के बादशाह की हार के बाद मुसलमानों को सत्ता से बाहर का रास्ता देखना पड़ा. 'इस्लाम खतरे में हैं' की सुगबुगाहट सुनाई देनी शुरू हो गई.
दो आरज़ू में कट गये, दो इंतज़ार में
कितना है बदनसीब 'ज़फर' दफ्न के लिए,
दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में
साल 1866 में इस्लाम के कुछ स्कॉलर्स ने देवबंद में नया मदरसा खोलने की सोची ताकि मुस्लिम लड़कों को दीन की तालीम दी जा सके. मदरसा शुरू करने के लिए मुहर्रम का दिन तय किया गया. देवबंद उस दौर में एक छोटा सा कस्बा हुआ करता था. यहां की छत्ता मस्जिद के किनारे एक अनार के पेड़ की छांव में मदरसा अरबिया इस्लामिया देवबंद का पहला सबक पढ़ाया गया. सबक पढ़ाने वाले उस्ताद थे मुल्ला महमूद और उनके शागिर्द थे महमूद हसन. पढने वाला भी महमूद और पढ़ाने वाला भी महमूद. यह सबक दारुल उलूम देवबंद की नींव का पहला पत्थर था.

देवबंद की प्रसिद्द छत्ता मस्जिद. यहीं से दारुल उलूम देवबंद की शुरुआत हुई.
देखते ही देखते देवबंद इस्लामिक शिक्षा और सुन्नी सुधारवादी आंदोलन का गढ़ बन गया. पहले साल देवबंद में शुरू हुए मदरसे का सालाना बजट 304 रूपए था और छात्रों की संख्या थी 21. साल के अंत तक इनकी संख्या 78 तक पहुंच गई. 1896 तक दारुल उलूम से दुनिया भर के 278 विद्वान पढ़कर तैयार हो चुके थे. कहते हैं कि इन्हीं शुरूआती छात्रों ने दारुल उलूम देवबंद की शोहरत दुनिया भर में फैलाई. लेकिन देवबंद पढ़ाई-लिखाई का केंद्र भर नहीं था. यह इस्लाम का सुधारवादी आंदोलन भी बन चुका था. देवबंद का पूरा जोर इस्लाम के ठीक तरह से पालन पर था. हदीस और कुरआन पर जोर देते. कहने को दारुल उलूम देवबंद खुद की जड़ सूफी इस्लाम की चिश्ती शाखा से जोड़ता है लेकिन बाद के सालों में इनकी मान्यताएं किताबी होती चली गईं. सूफी इस्लाम की उदार छवि से दूर होते-होते देवबंदी आंदोलन कई मान्यताओं में कट्टरपंथी वहाबी धारा के करीब पहुंच गया.
आजादी का आंदोलन और देवबंद
साल 1919. पहले विश्व युद्ध में ऑटोमन एंपायर को अग्रेंजो के खिलाफ हार का सामना करना पड़ा. ऑटोमन एंपायर से दुनिया भर के सुन्नी मुसलमानों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं. ऑटोमन एंपायर के बादशाह को खलीफा कहा जाता था और परम्परा के हिसाब से उसे दुनिया भर के सुन्नी मुस्लिमों का नेता माना जाता था. तुर्की में अंग्रेजों के हस्तक्षेप ने भारतीय मुसलमानों को गुस्से से भर दिया. देश में असहयोग आंदोलन के साथ-साथ खिलाफत आंदोलन शुरू हुआ. देवबंद के पहले छात्र महमूद हसन अब मुल्ला बन चुके थे और देवबंद में पढ़ाने लग गए थे और इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे. इसी वजह से उन्हें नया नाम भी मिला, 'शेख-उल-हिंद'. खिलाफत आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए नया संगठन बनाया गया, 'जमीअत उलेमा-ए-हिंद'. यह वो दौर था जब कांग्रेस और जमीअत उलेमा-ए-हिंद अंग्रेजों के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ाई लड़ रहे थे. यह आंदोलन कौमी एकता का प्रतीक बन गया. 1947 में आजादी और देश का बंटवारा एक साथ आया. देवबंद और जमीअत उलेमा-ए-हिंद ने देश में विभाजन का जमकर विरोध किया.
दारुल उलूम देवबंद. भारत में इस्लामिक अध्ययन की एक यूनिवर्सिटी है लेकिन पाकिस्तान में कट्टरपंथ का पर्याय.
विभाजन के बाद
विभाजन के बाद एक बड़ी मुस्लिम आबादी नए बने मुल्क पाकिस्तान के हिस्से आई. दारुल उलूम देवबंद में था और देवबंद भारत में. लेकिन देवबंद से पढ़कर गए छात्र दुनिया के हर कोने में थे और जाहिरा तौर पर पाकिस्तान में भी. दारुल उलूम देवबंद के पूर्व छात्रों ने नए बने पाकिस्तान में देवबंदी परम्परा के इस्लामी शिक्षा केंद्र खोलने शुरू किए. इसमें दो शिक्षण केन्द्रों पर नजर डालनी जरुरी है. पहला है जामिया उलूम-उल-इस्लामिया और दूसरा है दारुल उलूम हक्कानिया. इन दोनों शिक्षण संस्थानों का नाम बाद में देवबंदी चरमपंथ के साथ जुड़ने जा रहा था.1. जामिया उलूम-उल-इस्लामिया बिनोरी
1908 के साल में खैबर-पख्तूनख्वा के मरदान जिले पैदा हुए सैय्यद युसूफ बिनोरी ने अपनी शुरूआती पढ़ाई लिखाई मरदान में ही की. बाद में वो इस्लाम की तालीम लेने के लिए देवबंद चले आए. यहां दो साल पढने के बाद वो 'दोरा-ए-हदीस' पढ़ने के लिए सूरत के जामिया इस्लामिया दाभेल चले आए. यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद मिस्त्र का दौरा किया. 1937 में भारत लौटे और जामिया इस्लामिया दाभेल में पढ़ाने लगे. आजादी के बाद गुजरात से पाकिस्तान चले गए. शुरुआत में सिंध के एक मदरसे में पढ़ाते रहे. उसके बाद कराची आए. जमशेद रोड की मस्जिद के पास नया मदरसा खोला. नाम रखा,'जामिया उलूम-उल-इस्लामिया'. साल था 1954. बिनोरी टाउन में होने की वजह से बाद में इसके नाम के आगे बिनोरी लिखा जाने लगा . जामिया उलूम-उल-इस्लामिया खुद को दारुल उलूम देवबंद की परम्परा का शिक्षण संस्थान करार देता है.देवबंदी जिहाद का झरना
इंटरनेशनल कांफिल्क्ट को लेकर काम करने वाले संगठन इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप ने अपनी एक रिपोर्ट में जामिया उलूम-उल-इस्लामिया को पाकिस्तान में तेजी से पनप रहे देवबंदी कट्टरपंथ का झरना करार दिया. तथ्यों पर गौर करें तो यह दावा गलत भी नजर नहीं आता. इस मदरसे ने बहुत से ऐसे छात्रों को पढाया है अब दक्षिण एशिया में इस्लामिक आतंकवाद के पोस्टर बॉय हैं. तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर. जैश-ए-मोहम्मद का संस्थापक मसूद अज़हर. दक्षिण एशिया में अल-कायदा का इंचार्ज असीम उमर. हरकत-उल-जिहाद-अल इस्लाम का लीडर हरकतकारी सैफुल्लाह अख्तर .सिपाह-ए-सहाबा का नेता आज़म तारिक.ये सब जामिया उलूम-उल-इस्लामिया के छात्र रह चुके हैं. इंटेलिजेंस की रिपोर्ट्स के अनुसार जामिया उलूम-उल-इस्लामिया ने जिहादी संगठनों को पनपने में बहुत मदद की है.
जामिया इस्लामिया बिनोरी टाउन कराची. तमाम रिपोर्ट्स में इसे देवबंदी जिहाद का गढ़ कहा गया है. मौलाना मसूद अज़हर ने इसी जगह से जिहाद की ट्रेनिंग ली थी.
1968 में पैदा हुआ मसूद अज़हर पाकिस्तान के बहावलपुर का रहने वाला है. उसके पिता अल्लाह बख्श साबिर स्थानीय स्कूल में हेडमास्टर थे और 10 बच्चों वाले अपने परिवार को पालने के लिए मुर्गीखाना भी चलाते थे. अल्लाह बख्श खुद देवबंदी मुसलमान थे. अपनी किताब 'वर्च्यु ऑफ जिहाद' में मसूद अज़हर लिखता है कि उसके पिता के एक दोस्त थे मुफ़्ती सईद. मुफ़्ती साहब जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में पढाया करते थे. उनके कहने पर मसूद अज़हर को जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में पढने के लिए भेजा गया. यहां आकर पहली बार उसका साबका अफगान जिहादियों से पड़ा.
अपनी किताब में अज़हर अफगान जिहाद में शामिल होने की घटना का दिलचस्प ब्यौरा देता है. अज़हर लिखता है कि जामिया उलूम-उल-इस्लामिया में तालीम हासिल करने के बाद उसे वहां बतौर शिक्षक नौकरी मिल गई. यह वो दौर था जब सोवियत-अफगान युद्ध अपने चरम पर था. मदरसे में भी हरकत-उल-अंसार नाम के संगठन की काफी धमक थी. एक बार हरकत-उल-अंसार का अख्तर नाम का एक कमांडर मदरसे में आया हुआ था. उसने मदसरे के प्रिंसिपल को अफगान जिहाद को देखने के लिए अफगानिस्तान आने न्यौता दिया. प्रिंसिपल मुफ़्ती अहमद रहमान ने उस समय सुझाव दिया कि मौलाना के तौर पर काम कर रहे मसूद अज़हर को अफगानिस्तान जाकर जिहाद की ट्रेनिंग लेनी चाहिए. इस तरह मसूद अज़हर जामिया उलूम-उल-इस्लामिया से निकलकर अफगानिस्तान पहुंचा. यह उसके बतौर इस्लामिक आतंकवादी जीवन की शुरुआत थी.
2.दारुल उलूम हक्कानिया
दारुल उलूम हक्कानिया के संस्थापक मौलाना अब्दुल हक पेशवार के अकोरा खटक के रहने वाले थे. उनके पिता इलाके के माने हुए जमींदार थे. इस्लाम की बुनियादी शिक्षा उन्होंने पेशावर से ही हासिल की. इसके बाद पढने के लिए मेरठ आ गए. मेरठ के मदरसे से निकलकर अमरोहा के मदरसे में दाखिला लिया. आखिरकार 1929 में वो तालीम हासिल करने के लिए दारुल उलूम देवबंद पंहुचे. 1934 में यहां से पढ़ाई पूरी करके फिर से अकोरा खटक लौट आए. पिता की मदद से अपने पैतृक घर के पास ही एक मस्जिद और मदरसे की शुरुआत की. 1943 में उनके पास दारुल उलूम देवबंद की तरफ से बतौर टीचर जॉइन करने का ऑफर आया. इसे मौलाना अब्दुल हक ने स्वीकार कर लिया. साल था 1943.1947 में आजादी के वक़्त वो रमजान की छुट्टी मनाने अकोरा खटक आए थे. इस बीच आजादी और विभाजन की घोषणा हो गई. पेशावर से भारत की तरफ जाने वाली सभी सड़के बंद हो गई. दोनों तरफ हिंसा का माहौल था. ऐसे में मौलाना अब्दुल हक ने देवबंद लौटने का विचार छोड़ दिया. घर के पास मदरसा पहले से चल रहा था. वो फिर से अपने ही खोले मदरसे में पढ़ाने लगे. अब्दुल हक की तरह पाकिस्तान में देवबंद के बहुत छात्र भी थे, जो विभाजन की वजह से देवबंद नहीं लौट सकते थे. ऐसे में इन छात्रों ने अब्दुल हक के मदरसे में दाखिला ले लिया. यह दारुल उलूम हक्कानिया की शुरुआत थी.

दारुल उलूम हक्कानिया. तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के तमाम आतंकी यही से पढ़कर निकले हैं.
तालिबान से रिश्ता
कहते हैं कि लगभग सभी बड़े तालिबानी नेता किसी ना किसी दौर में दारुल उलूम से तालीम हासिल कर चुके हैं. अफगान जिहाद के वक़्त तक दारुल उलूम हक्कानिया के संस्थापक मौलाना अब्दुल हक ज़िंदा थे. उन्होंने बाकायदा फतवा जारी करके अफगान जिहाद का समर्थन किया था. इतना ही नहीं 70 साल की उम्र में खुद लड़ने की इच्छा भी जाहिर की थी. खराब स्वास्थ्य और उम्र की वजह से उन्हें ऐसा नहीं करने दिया गया. लेकिन दारुल उलूम के बहुत सारे छात्र अफगान जिहाद में हिस्सा लेने के लिए अफगानिस्तान जरुर गए थे.1989 में दस साल लंबी चली सोवियत-अफगान जंग खत्म हुई. इसके बाद भी अफगानिस्तान में शांति नहीं हुई. देश कबीलों के आपसी संघर्ष और वर्चस्व की लड़ाई में उलझ गया. ऐसे में कंधार के रहने वाले मुल्ला उमर ने अपने गृह जिले में 50 छात्रों के जरिए नए संगठन की शुरुआत की. इस संगठन का मकसद देश को सिविल वॉर की स्थिति से बाहर निकालकर इस्लामिक शासन को बहाल करना था. देखते ही देखते मुल्ला उमर के साथ 15,000 ऐसे छात्र जुड़ गए जिन्होंने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमावर्ती इलाकों के मदरसों से तालीम हासिल की थी. इसमें सबसे ज्यादा छात्र दारुल उलूम हक्कानिया के थे. 'तुलबा' उर्दू जबान का शब्द है. मतलब होता है छात्र या विद्यार्थी. बहुवचन में यह तालिबान हो जाता है. यह कमाल की बात है कि जो संगठन बाद के दौर में आतंक का पर्याय बन गया था उसका शाब्दिक अर्थ 'पढने-लिखने वाले लोग' होता है. इसके अलावा हक्कानी नेटवर्क का सरगना जलालुद्दीन हक्कानी, तालिबान का नंबर दो अख्तर मंसूर भी यहां से तालीम हासिल कर चुका है. मुल्ला उमर को दारुल उलूम हक्कानिया ने अपने यहां से डॉक्टरेट की मानद उपाधि दी है.

मौलाना अब्दुल हक बंटवारे के बाद्द हिंदुस्तान सिर्फ इसलिए नहीं लौट पाए क्योंकि रास्ते बंद थे. आज उन्हें तालिबान के लोग पितामह की तरह पूजते हैं.
इस तरह अगर देखा जाए तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान में इस्लामिक आंतकवाद की जड़े कहीं ना कहीं इस्लाम की देवबंदी धारा से जुड़ी है. वही देवबंदी धारा जिसका गढ़ भारत के देवबंद में है. तो आखिर ऐसा क्योकर हुआ? भारत में देवबंदी आंदोलन ने कभी भी हिंसक रास्ता अख्तियार नहीं किया. यहां के उलेमा कई बार अपने अजीब-ओ-गरीब फतवों के लिए भले ही चर्चा में रहे हों लेकिन आतंकी गतिविधि के सिलसिले में दारुल उलूम देवबंद कभी भी चर्चा में नहीं रहा. 2009 में न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए इंटरव्यू में दारुल उलूम देवबंद के वाइस चांसलर मरगूब-उर-रहमान बिजनौरी ने कहा था कि वो पहले भारतीय है और बाद में मुस्लिम. तो फिर सरहद के उस पार देवबंदी तालीमी इदारे खूनी खेल में कैसे शामिल हो गए?
पाकिस्तान में देवबंदियो की तासीर खूनी क्यों है?
इस सवाल का जवाब भारत और पाकिस्तान में राजनीतिक चेतना के विकास में छिपा हुआ है. अगर आपातकाल के ढाई साल छोड़ दिए जाएं तो भारत में लोकतंत्र कभी भी खतरे में नहीं रहा. जबकि इससे उलट पाकिस्तान ने एक के बाद एक फौजी तानाशाही भुगती हैं. पाकिस्तान में आजादी के वक़्त देवबंदी फिरके के मुसलमानों की संख्या 10 फीसदी से लगभग थी. कट्टरपंथी देवबंदी आंदोलन ने जोर पकड़ना शुरू किया फौजी तानाशाह जिया-उल-हक के समय से.जिया के आने कुछ समय बाद ही अफगान जिहाद की शुरुआत हुई. इसमें देवबंदी मदरसों में पढ़ रहे नौजवानों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उस समय जिहाद में जाने पर सरकार की तरफ से काफी आर्थिक सहायता मिल रही थी. धार्मिक अपील के अलावा यह भी एक बड़ी वजह थी जिसने बेरोजगार नौजवानों को जिहाद की तरफ खींचा. जिया को जल्द ही समझ में आ गया कि अफगानिस्तान जिहाद कम से कम उनकी सरकार के लिए फायदे का सौदा है. अमेरिका से बोरे भर-भर कर डॉलर पाकिस्तान आ रहे. लेकिन जिहाद करने के लिए जिहादियों की भी जरुरत थी. मदरसे जिहादियों की सप्लाई का बड़ा केंद्र थे. ऐसे में जिया ने बड़े पैमाने पर मदरसे खोले. इसमें सबसे ज्यादा मदरसे देवबंदियों के ही थे. इस तरह पूरे पाकिस्तान में देवबंदी मदरसों का जाल तैयार हो गया. इसने बाद के दौर में देवबंदी कट्टरपंथ को फलने-फूलने में काफी मदद की.

कश्मीर में आतंक का चेहरा बन चुका मसूद अज़हर किसी समय देवबंदी मदसरे में पढाया करता था.
दूसरा बड़ा फैक्टर बना पाकिस्तान में देवबंदियों का राजनीतिक प्रतिनिधत्व. 'जमीअत उलेमा-ए-हिंद' याद है आपको. 1919 में खिलाफत आन्दोलन के वक़्त बना संगठन. यह संगठन आजादी के वक़्त तक कांग्रेस के साथ रहा. इसने मुस्लिम लीग की अलग देश की मांग का जमकर विरोध किया. सड़को पर पाकिस्तान बनाए जाने के खिलाफ जलसे निकाले. लेकिन उस समय दारुल उलूम देवबंद में मौलवियों का एक धड़ा ऐसा भी था जो पाकिस्तान बनाने की मांग के पक्ष में खड़ा था. इस धड़े ने जमीअत उलेमा-ए-हिंद से अलग होकर अपना नया संगठन बना लिया. नाम रखा, 'जमीअत उलेमा-ए-इस्लाम'. मौलाना मोहम्मद शफी इसके संस्थापक सदस्यों में से एक थे. 1947 में वो पाकिस्तान चले गए. 1951 में उन्होंने देवबंदी धारा एक और मदरसा खोला. नाम रखा 'दारुल उलूम कराची'. उनके साथ-साथ जमीअत उलेमा-ए-इस्लाम भी पाकिस्तान आ गया. पाकिस्तान में इस संगठन ने राजनीतिक रूप ले लिया और चुनावों में भाग लेने लगा. दारुल उलूम हक्कानिया के संस्थापक मौलाना अब्दुल हक जमीअत उलेमा-ए-इस्लाम की टिकट पर पाकिस्तान की नेशनल असेंबली जा चुके हैं. जमीअत उलेमा-ए-इस्लाम ने एक तरह से देवबंदी आतंकी संगठनों के सार्वजानिक के चहरे की तरह काम किया. इतना ही नहीं इसने ऐसे आतंकी संगठनो को जरुरी राजनीतिक संरक्षण भी मुहैया करवाया.
तीसरा और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि हिंदुस्तान अपनी आजादी की बाद पहले दिन से एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र रहा. पाकिस्तान ने इस्लामिक गणतंत्र हो जाने के सपने देखे. ऐसे में पाकिस्तान धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों के लिए ज्यादा उपजाऊ ज़मीन साबित हुआ. देवबंदी आंदोलन का मुख्य तर्क इस्लाम को कुरीतियों से मुक्त करवाना था. बकौल उनके, यह वो कुरीतियां थीं जो भारत में हिंदुओं के संपर्क में आने की वजह से पैदा हुई थीं. ऐसे में इस्लाम का देवबंदी ब्रांड कुरआन और हदीस के बताए रास्ते पर चलता था. देवबंदियों का दावा है कि दुनिया में उनका इस्लाम सबसे खालिस इस्लाम है. ये लोग उम्मत की बात करते हैं. माने किसी भी मुसलमान की सबसे पहली वफादारी उसके दीन के प्रति है. ऐसे में अगर इस्लाम पर कोई खतरा आ जाता है तो उसके खिलाफ लड़ना हर मुसलमान का सबसे बड़ा कर्तव्य है.
भारत की सेक्युलर तासीर की वजह से यहां के देवबंदी आंदोलन की तासीर भी वैसी ही रही. पाकिस्तान में ऐसा नहीं था. सुन्नी बाहुल्य देश में इस्लाम कभी अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार बन जाने की वजह से खतरे में आ जाता, कभी अल्पसंख्यक शियाओं, अहमदियों और हजारा मुस्लिमों की वजह से. यहां देवबंदी आंदोलन देखते ही देखते अपनी सूफी जड़े छोड़कर कट्टरपंथी वहाबी धारा के करीब पहुंच गया. अब यह पूरे दक्षिण एशिया के लिए खतरे की घंटी बना हुआ है.
पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारत ने पाकिस्तान को कैसे घेरना शुरू किया?


