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कल्याण सिंह: UP की राजनीति का वो ‘अम्ल’, जो ‘क्षार’ से उलझकर अपनी सियासत जला बैठा!

"कल्याण सिंह में धैर्य होता तो अटल के बाद वही भाजपा के कप्तान होते."

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कल्याण सिंह और अटल. UP की सियासत के अम्ल और क्षार. (फोटो- India Today Archive)
14 जुलाई 2021 (Updated: 22 अगस्त 2021, 06:28 IST)
Updated: 22 अगस्त 2021 06:28 IST
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बात शुरू करते हैं रसायन विज्ञान की एक छोटू सी कक्षा से. अम्ल क्या होते हैं? अम्ल यानी वो लिक्विड, जो ठस से ठस धातुओं पर गिर जाए तो उसे गलाकर बहा दे. लेकिन यही ‘अम्ल’ खुद भी पानी हो जाता है, जब इसका सामना किसी ‘क्षार’ से होता है. क्षार, जिसकी ‘गला देने की क्षमता’ तो अम्ल से कम होती है, लेकिन जब ये अम्ल से उलझता है तो उसका अस्तित्व ख़त्म कर देता है.
बस, रासायनिक अभिक्रिया की बात इतनी ही. अब आगे बात होगी राजनीति की प्रयोगशाला की. बात होगी उत्तर प्रदेश की राजनीति के एक ‘अम्ल’ की, उसके उद्भव की, अभिक्रियाओं की, उत्थान की, एक 'काले दिन' की और फिर उस अम्ल के क्षार से टकराकर पानी हो जाने की. पॉलिटिकल किस्से में आज बात करेंगे सूबे के पूर्व मुख्यमंत्री और कभी 'हिंदू हृदय सम्राट' कहलाने वाले कल्याण सिंह की. हरीशचंद्र बाबू की नज़र में आया लोध लड़का कल्याण सिंह का जन्म हुआ था 5 जनवरी 1932 को अतरौली, अलीगढ़ में. बीए तक पढ़ाई की और फिर पब्लिक लाइफ में उतर गए. भारतीय जनसंघ जॉइन कर लिया, जिसकी 1951 में नींव रखी जा चुकी थी. 1952 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को 3 सीट मिलीं. फिर 1957 के चुनाव हुए. जनसंघ की सीटें 3 से बढ़कर 5 हो गईं. ये वही चुनाव थे, जिनमें अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार सांसद बने. पार्टी का ग्राफ चढ़ा और 62 के लोकसभा चुनाव में जनसंघ को मिलीं 14 सीटें. 57 और 62 के बीच का जो दौर था, उसमें जनसंघ ने अपना विस्तार किया. ख़ासकर उत्तर प्रदेश में, क्योंकि ये सबसे बड़ा राज्य था.
UP में मजबूती पाने के लिए ज़रूरी था कि जनसंघ के पास पिछड़े वर्ग से कुछ चेहरे हों. और ऐसा चेहरा ढूंढने का जिम्मा दिया गया हरीशचंद्र श्रीवास्तव को, जो उस वक्त जनसंघ के कद्दावर नेताओं में से थे. 1977 में जब जनसंघ की सरकार बनी तो वे कैबिनेट मंत्री भी बने थे. हरीशचंद्र श्रीवास्तव का 2015 में निधन हो गया. उनके बेटे सौरभ श्रीवास्तव इस वक्त भाजपा में हैं और UP में ही वाराणसी कैंट सीट से विधायक हैं.
तो जब हरीशचंद्र बाबू एक पिछड़े वर्ग के नेता की खोज में निकले तो कानों में ख़बर पड़ी कि साब, अलीगढ़ में एक लोध लड़का है. बड़ा तेज-तर्रार. कल्याण सिंह नाम है.
UP में अलीगढ़, बुलंदशहर से लेकर गोरखपुर तक लोधी जाति की अच्छी-खासी आबादी थी. यादव और कुर्मी के बाद लोधी ही थे. कल्याण सिंह को तेज-तर्रार छवि के साथ-साथ लोधी होने का भी लाभ मिला. वे हरीशचंद्र बाबू की नज़र में आ गए. कल्याण सिंह को सक्रियता बढ़ाने के लिए कहा गया और 1962 में उन्हें अतरौली सीट से टिकट मिल गया. पहली बार वे विधानसभा चुनाव लड़ने जा रहे थे.
Kalyan Singh (1) अतरौली लंबे समय तक कल्याण सिंह का गढ़ बना रहा. (फोटो- India Today Archive)
कल्याण का गढ़- अतरौली जनसंघ की तरफ से 30 साल के कल्याण सिंह मैदान में उतरे. लेकिन पहली बाजी खेत रही. वो सोशलिस्ट पार्टी के बाबू सिंह के सामने हार गए. लेकिन कल्याण सिंह पीछे नहीं हटे. अतरौली में जमकर एड़ियां रगड़ीं. हरीशचंद्र बाबू ने भी उनका साथ दिया. 5 साल बाद फिर चुनाव होते हैं और इस बार कल्याण सिंह जीतकर निकलते हैं. पिछली बार बाबू सिंह को जितने वोट मिले थे, उससे भी करीब 5 हज़ार वोट ज़्यादा कल्याण सिंह को मिले. करीब 26 हज़ार वोट. उन्होंने कांग्रेस के प्रत्याशी को हराया था. ये कल्याण सिंह का अभ्युदय था.
यही वो दौर था, जब उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने एंटी-कांग्रेस राजनीति खड़ी कर दी थी. यही वक्त हिंदुस्तान में हरित क्रांति का भी था. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की स्थिति मजबूत हुई. इनमें से ज़्यादातर किसान OBC थे. कल्याण सिंह जनसंघ में इन पिछड़ी जातियों का चेहरा बनते गए. इमरजेंसी के बाद 1977 में केंद्र में जनता सरकार बनी तो इसमें पहली बार पिछड़ी जातियों का वोट शेयर करीब 35 फीसदी था. ये वोट शेयर बढ़ाने में कल्याण की भी भूमिका मानी गई.
साथ-साथ कल्याण सिंह भी बढ़े. 1967 के बाद 69, 74 और 77 के चुनाव में भी उन्होंने अतरौली से जीत हासिल की. लगातार 4 बार विधायक. पहली 3 बार जनसंघ के टिकट पर, चौथी बार जनता पार्टी के टिकट पर. 1980 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह की ये विनिंग स्ट्रीक टूटी. कांग्रेस के अनवर खान ने उन्हें अतरौली से हरा दिया. लेकिन इसको एंटी-इनकम्बेंसी का असर माना गया और कल्याण सिंह ने नई-नवेली भाजपा के टिकट पर 1985 के विधानसभा चुनाव में जोरदार वापसी करते हुए फिर जीत हासिल की. तब से लेकर 2004 के विधानसभा चुनाव तक कल्याण सिंह अतरौली से लगातार विधायक बनते रहे.
Kalyan Singh Rajnath राजनाथ सिंह और कुशाभाऊ ठाकरे के साथ कल्याण सिंह. (फोटो- India Today Archive)
राम रसायन तुम्हरे पासा इस बीच 1986 में भारतीय जनता पार्टी को उत्तर प्रदेश से एक नया मुद्दा मिल गया. वो मुद्दा, जो आगे चलकर भाजपा की ही नहीं, बल्कि भारत की ही राजनीति को नख-शिख बदल देने वाला था. अयोध्या में राम मंदिर का मुद्दा. इस मामले में दिसंबर 1959 में निर्मोही अखाड़े के द्वारा एक मुकदमा फाइल किया गया था. उनको विवादित भूमि का मंदिर के तौर पर चार्ज चाहिए था. इसके ठीक 2 साल बाद एक मुकदमा दिसंबर 1961 में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, यूपी ने फाइल किया. इसमें मांग की गई कि मूर्तियां हटाई जाएं और मस्जिद सौंप दी जाए. लेकिन बड़ा मोड़ आया 1986 में. राजीव गांधी के राज में एक जिला जज ने ऑर्डर किया कि मस्जिद के गेट को खोल दिया जाए. हिंदुओं को वहां पूजा करने की इजाजत दे दी गई. इसके बाद मुस्लिम समुदाय ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमिटी बना ली और कहा कि पूजा नहीं करने दी जाएगी.
उधर, विश्व हिंदू परिषद ने तय किया कि विवादित जगह के पास ही मंदिर बनाने के लिए शिलाएं रखी जाएंगी. कुछ रख भी दी गईं. 1989 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आदेश किया कि तीन जजों की स्पेशल बेंच विवादित भूमि से जुड़े मुकदमे सुनेगी. फरवरी 1990 में वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बन गए. भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने देश में रथयात्रा निकाली ताकि राम मंदिर के लिए जनसमर्थन जुटाया जा सके. पर अक्टूबर आते-आते चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन गए. 30 अक्टूबर को यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के आदेश पर पुलिस ने गोलियां चलाईं जिसमें कई कारसेवक मारे गये जो वहां पर मंदिर बनाने पहुंचे थे. इसके बाद मंदिर का मुद्दा और गरमा गया.
Kalyan Atal Murali जनवरी 1992 में अयोध्या में एक रैली के दौरान अटल, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह. (फोटो- India Today Archive)
कल्याण सिंह सरकार-1 1991 में उत्तर प्रदेश की 11वीं विधानसभा के गठन के लिए चुनाव होने थे. तब तक देश में मंडल-कमंडल की सियासत शुरू हो गई थी. आधिकारिक तौर पर पिछड़े वर्ग की जातियों का कैटेगराइज़ेशन हुआ. पिछड़ों की सियासी ताकत पहचानी गई. अब तक बनिया और ब्राह्मण की पार्टी कही जाने वाली भाजपा ने कल्याण सिंह को पिछड़ों का चेहरा बनाया और वादा किया गुड गवर्नेंस का. कल्याण सिंह लोधी राजपूतों के मुखिया और फायर ब्रांड हिंदू नेता के तौर पर उभरे.
चुनाव हुए और UP की 425 में से 221 सीट जीतकर भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई. कल्याण सिंह की बतौर मुख्यमंत्री ताजपोशी हुई. नाम न छापने की शर्त पर लखनऊ के एक वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं–
“कल्याण सिंह के बतौर मुख्यमंत्री पहले कार्यकाल को मुख्य तौर पर 6 दिसंबर 1992 की तारीख़ के लिए ही याद किया जाता है. लेकिन इसके साथ ही उनके कार्यकाल की एक और हाइलाइट रही. ‘नकल अध्यादेश’. ये कल्याण सिंह सरकार का एक बोल्ड फ़ैसला था. तब राजनाथ सिंह शिक्षा मंत्री थे. बोर्ड परीक्षा में नकल करते हुए पकड़े जाने वालों को जेल भेजने के इस कानून ने कल्याण सिंह की बोल्ड एडमिनिस्ट्रेटर की छवि तो बनाई, लेकिन सियासी नुकसान भी दिया. उस वक्त विपक्ष के नेताओं ने लखनऊ की सड़कों पर पोस्टर लहराए थे, जिसमें बच्चे हाथ में हथकड़ियां पहने खड़े थे. इन पोस्टर्स ने कल्याण सरकार को नुकसान पहुंचाया.”
और फिर वो कांड, जो भारतीय इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज है. चूंकि सूबे में भाजपा की सरकार बनवाने में राम मंदिर मुद्दे का बड़ा योगदान था इसलिए सरकार लगातार इसे अपनी टॉप प्रायॉरिटी में गिना रही थी. कल्याण सिंह ने सितंबर 1991 में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यू में कहा था–
“BJP सरकार का मस्जिद गिराने का कोई इरादा नहीं है. हम चाहते हैं कि मस्जिद को बस वहां से शिफ्ट कर दिया जाए. ये बात फैलाना भी ग़लत है कि विहिप या फिर बजरंग दल ने सरकार को मंदिर बनाने की कोई अंतिम तारीख बताई है.”
कारसेवा होने से पहले बतौर मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया था. इसमें कहा गया कि वे मस्जिद को कोई नुकसान नहीं होने देंगे. लेकिन नुकसान हुआ. सर्वविदित है कि 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद ढहा दी. मस्जिद गिरने के तुरंत बाद कल्याण सिंह ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया. 7 दिसंबर, 1992 को केंद्र की नरसिंह राव सरकार ने उत्तर प्रदेश की सरकार को बर्खास्त कर दिया. सूबे में राष्ट्रपति शासन लग गया.
कल्याण सिंह ने 8 दिसंबर को पत्रकारों से बात की. कहा-
"बाबरी का विध्वंस भगवान की मर्जी थी. मुझे इसका कोई मलाल नहीं है. ये सरकार राम मंदिर के नाम पर बनी थी और उसका मकसद पूरा हुआ. ऐसे में सरकार राम मंदिर के नाम पर कुर्बान. राम मंदिर के लिए एक क्या, सैकड़ों सत्ता को ठोकर मार सकता हूं. केंद्र कभी भी मुझे गिरफ्तार करवा सकता है, क्योंकि मैं ही हूं, जिसने अपनी पार्टी के बड़े उद्देश्य को पूरा किया है."
वहीं, बीजेपी कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के दौरान कल्याण सिंह ने कहा था-
“कोर्ट में केस करना है तो मेरे ख़िलाफ़ करो. जांच आयोग बिठाना है तो मेरे ख़िलाफ़ बिठाओ. किसी को दंड देना है तो मुझे दो. केंद्रीय गृह मंत्री शंकरराव चह्वाण का मेरे पास फोन आया था. मैंने उनसे कहा कि ये बात रिकॉर्ड कर लो चह्वाण साहब कि मैं गोली नहीं चलाऊंगा.”
“मस्जिद पूरी गिरने तक इस्तीफा मत दीजिए” बाद में CBI ने लंबे वक्त तक 6 दिसंबर की घटना की जांच की. 2012 में CBI ने एक गवाह पेश किया. पत्रकार शीतला सिंह. हिंदी अख़बार जन मोर्चा के संपादक. शीतला सिंह ने कोर्ट में दावा किया कि जिस दिन बाबरी ढहाई गई थी, उस दिन उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी और कल्याण सिंह को फोन पर बात करते सुना था.
शीतला सिंह ने बताया कि उन्हें टेलीफ़ोन ऑपरेटर एल सिंह ने इस बातचीत के बारे में बताया था. बकौल शीतला सिंह, उन्होंने पत्रकार सुमन गुप्ता और चंद्र किशोर मिश्रा को अयोध्या रिपोर्टिंग के लिए भेजा था. लेकिन दोपहर एक बजे के करीब उनके ड्राइवर ने सूचना दी कि सुमन गुप्ता घायल हो गई हैं. उनके साथ हाथापाई हुई है, छेड़खानी की गई है और कैमरा भी तोड़ दिया गया है. शीतला सिंह, सुमन गुप्ता से संपर्क करना चाह रहे थे. लेकिन फ़ैज़ाबाद और अयोध्या के बीच उस समय सिर्फ़ एक ही फ़ोन लाइन हुआ करती थी. और उन्हें बताया गया कि इस लाइन पर दो बहुत ख़ास लोग बात कर रहे हैं. शीतला सिंह ने पूछा कौन? जवाब मिला कल्याण सिंह और लालकृष्ण आडवाणी. इसके बाद शीतला सिंह ने ऑपरेटर से कहा,
“मेरी रिपोर्टर घायल है. मुझे चिंता हो रही है और फ़ोन पर बहुत लंबी बातचीत हो रही है. प्लीज़ पता करिए कि ऐसी क्या बात हो रही है?”
कुछ देर बाद ऑपरेटर ने शीतला सिंह को बताया कि कल्याण सिंह मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना चाहते हैं, लेकिन आडवाणी ने उन्हें कहा है,
"अभी नहीं, मस्जिद पूरी गिर जाने तक इस्तीफ़ा मत दीजिए.”
Babri 6 दिसंबर 1992 की तस्वीर. (फोटो- India Today Archive)
कल्याण सिंह को सांकेतिक सज़ा कल्याण सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि बाबरी ढांचे को कोई नुकसान नहीं होने देंगे. लेकिन 6 दिसंबर, 1992 को कारसेवकों ने ढांचा गिरा दिया. इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट में कल्याण सिंह के खिलाफ अवमानना की अर्जी दाखिल की गई. ये अर्जी दाखिल की थी मोहम्मद असलम नाम के आदमी ने. सुप्रीम कोर्ट ने अवमानना की सुनवाई की और फिर 24 अक्टूबर, 1994 को फैसला दिया. कोर्ट ने कहा-
"अदालत की अवमानना ने देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को प्रभावित किया है, इसलिए तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सांकेतिक तौर पर एक दिन के लिए जेल भेजा जा रहा है. साथ ही 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया जा रहा है."
इससे जुड़ा एक किस्सा भी है. कोर्ट के इस आदेश के बाद कल्याण सिंह को एक दिन के लिए तिहाड़ जेल भेजा जाना था. इसके लिए सुप्रीम कोर्ट के रजिस्ट्रार एलसी भादू ने दिल्ली पुलिस के एक DCP एचपीएस वर्क को बुलाया और कोर्ट के आदेश की तामील करने को कहा. लेकिन ये वर्क के अधिकार क्षेत्र से बाहर का मामला था. फिर तिलक मार्ग थाने के SHO को बुलाया गया और कोर्ट का आदेश तामील करने को कहा गया. तिलक मार्ग थाने के SHO सुरक्षा के तामझाम के साथ कॉपरनिकस मार्ग पर बने UP भवन पहुंचे और वहां से कल्याण सिंह को लेकर तिहाड़ के लिए निकले. उस वक्त तिहाड़ जेल की सुपरिटेंडेंट हुआ करती थीं किरण बेदी. वे ये जानना चाहती थीं कि कल्याण सिंह को एक दिन की जेल का मतलब क्या है. उन्हें किस वक्त से किस वक्त तक जेल में रखना है, किरण बेदी इस बात की पुष्टि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से करना चाहती थीं. सुप्रीम कोर्ट ने जवाब दिया -
"किरण बेदी, आपको अपने सवाल के जवाब के लिए जेल का मैन्युअल देखना चाहिए."
और फिर कल्याण सिंह को एक दिन के लिए जेल में रखा गया, जो कि एक सांकेतिक सज़ा थी. कल्याण सिंह सरकार-2 1993 के चुनाव में बीजेपी सरकार बनाने लायक सीटें नहीं ला पाई. ऐसे में सपा-बसपा ने मिलकर सरकार बना ली. 1996 में फिर से चुनाव हुए. सपा और बसपा अलग थे. अलग क्यों थे, क्योंकि गेस्ट हाउस कांड हो चुका था. और जब चुनावी नतीजा आया तो बीजेपी 173 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी. लेकिन सरकार नहीं बनी. फिर लगा राष्ट्रपति शासन. और जब हटा तो मायावती मुख्यमंत्री बन गई थीं, बीजेपी के सहयोग से. समझौता हुआ था कि छह महीने बसपा और छह महीने भाजपा का मुख्यमंत्री. मायावती के छह महीने पूरे हुए तो कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. तारीख थी 21 सितंबर, 1997. लेकिन एक महीना भी नहीं बीता कि मायावती ने समर्थन वापस ले लिया. तारीख थी 19 अक्टूबर, 1997.
अब कल्याण सिंह का जाना तय था. इस बीच कुछ पार्टियों में तोड़फोड़ हुई. राज्यपाल रोमेश भंडारी बीजेपी के थे. तो उन्होंने कल्याण सिंह को दो दिन के अंदर बहुमत साबित करने को कहा. 21 अक्टूबर को कल्याण सिंह ने बहुमत साबित कर दिया. हालांकि इसके बदले उन्हें 90 से ज्यादा मंत्री बनाने पड़े जोकि अब तक सबसे बड़ा मंत्रिमंडल माना जाता है. इस दौरान विधानसभा में विधायकों ने एक दूसरे के ऊपर लात-जूते चलाए, कुर्सियां फेंकी और माइक फेंककर मारा. राज्यपाल रोमेश भंडारी ने चाहा कि राष्ट्रपति शासन लग जाए, लेकिन उस समय के राष्ट्रपति केआर नारायणन ने मंजूरी देने से इन्कार कर दिया.
कल्याण सिंह का बतौर मुख्यमंत्री पहला और दूसरा कार्यकाल बहुत अलग रहा. पहली सरकार में जहां कल्याण सिंह माफियाओं के लिए सिर दर्द थे, तो दूसरी बार माफिया उनकी सरकार में मंत्री बन बैठे थे. 1993 में कल्याण सिंह जब राजा भैया के खिलाफ प्रचार करने कुंडा पहुंचे तब नारा दिया था –
‘गुंडा विहीन करौं, ध्वज उठाय दोउ हाथ’
पर दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने पर राजा भैया को मंत्रिमंडल में जगह दी थी. क्योंकि मायावती के कल्याण से समर्थन वापस लेने के बाद तब राजा भैया ने ही कल्याण की मदद की थी. कल्याण सिंह और कुसुम राय उस वक्त एक और बात हो रही थी. उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की एक दोस्त हुआ करती थीं. कुसुम राय. इनके पास सरकारी पावर बहुत थी. जबकि वो सरकार में कुछ खास नहीं थीं. आजमगढ़ की कुसुम राय 1997 में भाजपा के टिकट पर लखनऊ के राजाजीपुरम से सभासद का चुनाव जीतकर आई थीं. पर कहते हैं कि कल्याण सिंह के वरदहस्त के चलते बड़े-बड़े फैसले बदल देती थीं. इस बात से भी पार्टी के कई नेता नाराज थे. आपसी लड़ाई तो थी ही. कल्याण सिंह भी किसी की परवाह नहीं कर रहे थे. सबके खिलाफ ओपन रिवोल्ट कर दिया.
द हिंदू अखबार के मुताबिक कुसुम राय को लेकर कल्याण ने किसी को नहीं बख्शा. लखनऊ में कुसुम के रातों-रात पावरफुल बनने के किस्से चलते रहे. मीडिया में चलता रहा कि ट्रांसफर-पोस्टिंग में खूब कमाई हो रही है. पर कल्याण आंख मूंदे रहे. सरकारी बंगले में रहती थीं कुसुम. सुरक्षा मिली थी. कल्याण इतना मानते थे कि अपनी पार्टी बनाने के बाद भाजपा छोड़कर आए नेताओं की भी इज्जत नहीं करते थे.
उस वक्त तीन बार के सांसद गंगाचरण राजपूत, जो उनकी ही जाति के थे, उनको पार्टी से निकाल दिया. गंगा को कल्याण ही भाजपा में लाए थे. जबकि भाजपा के लोग नहीं चाहते थे. गंगा ने भी खूब धमाल मचाया था. भाजपा में रहते हुए पिछड़ों के लिए रिजर्वेशन की मांग कर देते. पर कल्याण के चलते कोई कुछ बोलता नहीं था. बाद में गंगा ने कुसुम राय के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया. तो कल्याण ने उनको पार्टी से निकाल दिया. संघ परिवार से आए राम कुमार शुक्ला को भी कल्याण ने निकाल दिया.
Kalyan Singh
अयोध्या में लाल कृष्ण आडवाणी के साथ कल्याण सिंह की एक पुरानी तस्वीर. (साभार- पीटीआई)
पहली बार एक दफ्तर में दो सीएम जिस कल्याण सिंह को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई थी, उन्हीं रोमेश भंडारी ने 21 फरवरी, 1998 को कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री पद से बर्खास्त कर दिया. कल्याण सिंह की ही सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे जगदंबिका पाल को रात के साढ़े 10 बजे मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी. फैसले के विरोध में बीजेपी के बड़े नेता अटल बिहारी वाजपेयी समेत कई लोग धरने पर बैठ गए. रात को ही हाई कोर्ट में अपील की गई. 22 फरवरी के दिन जगदंबिका पाल मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे. इसी बीच हाई कोर्ट ने राज्यपाल के आदेश को खारिज कर दिया. कहा कि कल्याण सिंह ही मुख्यमंत्री हैं. अब कल्याण सिंह सचिवालय पहुंचे तो जगदंबिका पाल पहले से ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे. किसी तरह से हाई कोर्ट के आदेश का हवाला देकर उन्हें हटाया गया और फिर कल्याण अपनी जगह पर वापस आए. 26 फरवरी को फिर से बहुमत साबित करने को कहा गया. कल्याण सिंह ने बहुमत साबित कर दिया. जगदंबिका पाल कुछ घंटों के मुख्यमंत्री बनकर रह गए. अम्ल-क्षार अभिक्रिया कल्याण सिंह के पॉलिटिकल करियर का पतन शुरू हुआ 1998-99 से. जब इस सियासी अम्ल का टकराव हुआ अटल बिहारी वाजपेयी नाम के क्षार से. वही रेफरेंस जहां से हमने अपना किस्सा शुरू किया था.
कल्याण और अटल का ये टकराव साल 1997 में ही शुरू हो चुका था. जब भाजपा-बसपा ने 6-6 महीने सरकार चलाने वाला फॉर्म्यूला ईजाद किया और फिर मायावती ने छह महीने बाद कुर्सी छोड़ने में आना-कानी की. ऐसे में कल्याण सिंह को लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए वाजपेयी बसपा लीडरशिप से राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन करने की कोशिश में हैं, बदले में वे मायावती को लगातार मुख्यमंत्री बनाए रखने पर राजी हो गए हैं. उस वक्त कल्याण सिंह ने अपने कई नजदीकी लोगों से कहा था-
"लगता है मैं अपनी ही पार्टी की साजिश का शिकार हो जाऊंगा."
1998 में अटल 13 महीनों के लिए प्रधानमंत्री बने. उनके और कल्याण के बीच टकराव सतह पर दिखने लगा था. उन दिनों लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेस हुई थी. उसमें कल्याण सिंह से एक सवाल किया गया था कि आपको भरोसा है कि अटल दोबारा प्रधानमंत्री बन जाएंगे? कल्याण का जवाब सुनिए...
“मैं भी चाहता हूं कि वे PM बनें, लेकिन PM बनने के लिए पहले MP बनना पड़ता है.”
इसके व्यापक सियासी मायने निकलते थे, निकाले भी गए. लखनऊ में मतदान से पहले कल्याण सिंह ने एक समीक्षा बैठक की. इसमें उन्होंने कहा कि वे चाहते हैं कि लखनऊ में निष्पक्ष मतदान हो. लिहाजा वोटिंग के दिन लखनऊ में प्रशासन की ओर से काफी सख्ती देखने को मिली, खास तौर से बीजेपी के प्रभाव वाले इलाकों में. इसे कल्याण सिंह के निष्पक्ष मतदान वाले निर्देश से जोड़कर देखा गया. नतीजा ये रहा कि अटल बिहारी वाजपेयी तो लखनऊ से चुनाव जीत गए, लेकिन यूपी में बीजेपी आधी रह गई. 1998 में पार्टी को यूपी से 58 सीटें मिली थीं, जो 1999 में घटकर 29 रह गईं. भाजपा के अंदर ही इसे कल्याण सिंह का 'खेल' कहा गया, वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनने से रोकने के लिए. हालांकि एनडीए के जरिए अटल प्रधानमंत्री बनने में कामयाब रहे.
इसके बाद  कल्याण सिंह  को हटाने की मांग पार्टी  के अंदर जोर पकड़ गई. केंद्रीय नेतृत्व कल्याण सिंह पर दबाव बनाने में कामयाब रहा और 12 नवंबर 1999 को कल्याण सिंह का इस्तीफा हो गया. उनकी जगह रामप्रकाश गुप्त को मुख्यमंत्री बनाया गया. मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी को 'साजिशबाज'  और 'ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त' व्यक्ति तक बता डाला.
इसके बाद पार्टी ने उन्हें सस्पेंड कर दिया और कारण बताओ नोटिस जारी किया. कल्याण सिंह उसके बाद भी अटल के खिलाफ बोलने से नहीं रुके. उस वक्त कुशाभाऊ ठाकरे बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हुआ करते थे. जेपी माथुर के नेतृत्व वाली अनुशासनात्मक समिति ने उन्हें छह साल के लिए पार्टी से निकाल देने की संस्तुति की. 9 दिसंबर 1999 को कल्याण सिंह को पार्टी से निकाल दिया गया.
Kalyan Singh (2) राजस्थान का राज्यपाल बनने के कारण कल्याण सिंह को लंबे समय तक अयोध्या मामले में एक शील्ड भी मिली रही. (फोटो- India Today Archive)
पोस्ट BJP एरा कल्याण सिंह ने नई पार्टी बना कर बीजेपी को खत्म करने की कसम उठा ली. लेकिन 2002 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को महज चार सीटों पर जीत मिली. अगस्त 2003 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में जो वैकल्पिक सरकार बनी, उसमें कल्याण सिंह की पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ सरकार में शामिल हुई थी. लेकिन 2004 आते-आते उन्होंने भाजपा में वापसी करने का फ़ैसला किया. 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा ने उन्हें पार्टी का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ा, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. भाजपा को नंबर-3 पर रहना पड़ा. भाजपा और कल्याण सिंह, दोनों का एक-दूसरे से फिर मोह भंग हो गया.
2009 का लोकसभा चुनाव कल्याण सिंह ने सपा के समर्थन से जीता. लेकिन खुद सपा को उस चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा. पार्टी को लगा कि कल्याण सिंह का साथ लेने की वजह से उसे नुकसान हुआ है और उसने कल्याण सिंह से रिश्ते खत्म कर लिए. इसके बाद कल्याण सिंह ने फिर से अपनी पार्टी को मजबूत करना शुरू किया. 2012 विधानसभा चुनाव उन्होंने भाजपा के खिलाफ लड़ा, लेकिन उनकी पार्टी को हार मिली.
फिर आया 2014. भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी का उदय हुआ और कल्याण सिंह ने एक बार फिर भाजपा में वापसी की. इस बार उन्होंने कसम खाई- "जिंदगी की आखिरी सांस तक अब BJP का रहूंगा."
2014 में केंद्र में भाजपा सरकार बनने पर कल्याण सिंह को राजस्थान का राज्यपाल बनाया गया. कार्यकाल पूरा होने के बाद वे पर्दे के पीछे से राजनीति में सक्रिय रहे.
उनको लेकर जॉर्ज फर्नांडिस एक बड़ी सटीक बात कहा करते थे -
"राजनीति में कामयाबी के लिए धैर्य की ज़रूरत होती है. अगर कल्याण सिंह ने धैर्य दिखाया होता तो वे ही अटल के बाद भाजपा के कप्तान होते."
उधर कल्याण सिंह के दिल में भी एक टीस हमेशा उठती रही. वे कहा करते थे-
"मेरे राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल थी कि मैंने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात स्वीकार कर ली. अगर मैं इसके लिए तैयार नहीं हुआ होता, तो अटल जी मुझे हटा नहीं सकते थे."
89 बरस की उम्र में कल्याण सिंह का 21 अगस्त 2021 को निधन हो गया.

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