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श्रीकृष्ण सिंह: बिहार का वो मुख्यमंत्री जिसकी कभी डॉ. राजेंद्र प्रसाद तो कभी नेहरू से ठनी

बिहार के पहले मुख्यमंत्री की कहानी.

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बिहार के पहले सीएम जिनकी जवाहरलाल नेहरू से ठन गई थी.
9 नवंबर 2020 (Updated: 8 नवंबर 2020, 03:57 IST)
Updated: 8 नवंबर 2020 03:57 IST
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1957 का मार्च. बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके थे. 318 सीटों पर हुए चुनाव में कांग्रेस को कुल 210 सीटें पर जीत मिली थी. कांग्रेस के पास बहुमत तो था लेकिन मुख्यमंत्री के नाम पर एकमत नहीं था. लिहाजा विधायक दल के नए नेता का चुनाव तय हुआ. मौजूदा मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह को चुनौती दे रहे थे उनके करीबी समझे जाने वाले अनुग्रह नारायण सिंह. दो नेताओं की अदावत दो जातियों की अदावत बन चुकी थी जिसका सूबे की राजनीति पर घर असर रहने वाला था. श्रीकृष्ण सिंहा भूमिहार जाति से आते थे और अनुग्रह नारायण सिंह राजपूत.

पटना में आजादी के आंदोलन का केंद्र रहे सदाकत आश्रम में कांग्रेस के विधायकों की बैठक बुलाई गई. वोटिंग हुई. और फैसला गया श्रीकृष्ण सिंह के पक्ष में. समर्थकों और गाजे-बाजे के साथ श्रीकृष्ण सिंह राजभवन के ठीक सामने बने अपने घर पर पहुंचे. पीछे-पीछे समर्थकों को हुजूम. मालाएं पहने जा रही थीं. मिठाईयां बंट रही थी. इस बीच एक गाड़ी श्रीकृष्ण सिंह के आवास में घुसती दिखाई दी. श्रीकृष्ण सिंह उस समय अपने समर्थकों के साथ घर की पहली मंजिल पर थे. भारी डील-डौल के सिंहा दौड़ते हुए सीढ़ियों से उतरे और गाड़ी के दरवाजे पर पहुँच गए. गाड़ी के भीतर अनुग्रह नारायण सिंह बहार निकले. और दोनों गले मिलकर रोने लगे. अनुग्रह नारायण सिंह ने श्रीकृष्ण सिंह से माफ़ी मांगी कि वो उकसावे में आकर उनके खिलाफ खड़े होने की गलती कर बैठे. जवाब में श्रीकृष्ण सिंहा ने कहा,
देखो अनुग्रह, अब इस अदावत को यहीं खत्म करो. अब तुम्हरा जैसा मन हो वैसी सरकार बनाओ.
दोनों के बीच दो दशक पहले सदाकत आश्रम से दो दशक पहले शुरू हुई अदावत सदाकत आश्रम में ही खत्म हुई.
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श्रीकृष्ण सिंह (बाएं) और अनुग्रह नारायण के बीच सदाकत आश्रम से दो दशक पहले शुरू हुई अदावत सदाकत आश्रम में ही खत्म हुई.

अंक 1ः गांधी जी की चिट्ठी

एक बहुत चर्चित कहावत है कि 'गज नहीं हारेंगे तो थान हारना पड़ेगा'.
इसी कहावत को ध्यान में रखकर 1935 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को सत्ता में भागीदार बनाने की कोशिशें शुरू की. उस वक्त तक भारत में आजादी और स्वशासन को लेकर राष्ट्रीय चेतना का विकास हो चुका था और ब्रिटिश भी इससे अवगत थे. इसी सोच को दिमाग में रखते हुए ब्रिटिश सरकार ने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 लाया और उसी के तहत राज्यों के प्रशासन में भारतीयों को हिस्सेदारी देनी शुरू कर दी. 1937 में स्टेट असेंबली का चुनाव कराया गया और इसी दौरान बिहार की स्टेट असेंबली का चुनाव भी हुआ जिसमें कांग्रेस को बहुमत मिला. कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार बनने जा रही थी और इसके लिए कांग्रेस विधायक दल के नेता का चुनाव होना था. यही नेता बिहार का प्रीमियर (हिंदी में कहें तो प्रधानमंत्री) बनता.
नेता के चुनाव से पहले महात्मा गांधी ने बिहार के बड़े कांग्रेसी नेता ड़ा राजेन्द्र प्रसाद को एक चिठ्ठी लिखी. इस चिठ्ठी में महात्मा गाँधी ने इच्छा जताई थी कि अनुग्रह नारायण सिंह को नेता चुना जाए. अनुग्रह चंपारण सत्याग्रह के दौर से ही महात्मा गाँधी के करीबी रहे थे. पटना के सदाकत आश्रम में हो रही इस बैठक में राजेन बाबू ने गांधी जी की इच्छा से लोगों को अवगत करा दिया. इसके बाद अनुग्रह बाबू के नाम पर सहमति बनाने की कोशिशें शुरू की गई. लेकिन राजेंद्र प्रसाद के इस प्रस्ताव पर दो लोगों ने आपत्ति खड़ी कर दी. सर गणेश दत्त सिंह और किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती. सर गणेश दत्त सिंह ने राजेंद्र प्रसाद से सवाल किया,
"अनुग्रह ही क्यों? श्रीकृष्ण क्यों नहीं?"
अब यहीं पर जाति की राजनीति की एंट्री होती है. अनुग्रह बाबू राजपूत जाति से आते थे जबकि श्रीबाबू भूमिहार जाति से थे. सर गणेश दत्त और स्वामी जी भी भूमिहार थे. श्रीबाबू को बिहार की ब्राह्मण लाॅबी का समर्थन था जबकि अनुग्रह बाबू को कायस्थ लाॅबी का. सर गणेशदत्त सिंह, सहजानंद सरस्वती और दरभंगा महाराज कामेश्वर सिंह का समर्थन मिलने से श्रीबाबू का खेमा मजबूत हो गया था. इसके बाद दीवार पर लिखी इबारत को भांपते हुए स्वयं अनुग्रह बाबू ने भी उनके पक्ष में अपनी सहमति जता दी और इस प्रकार श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले प्रधानमंत्री प्रीमियर बने. आम बोलचाल की भाषा में कहें तो बिहार के पहले प्रधानमंत्री. 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने तक पद पर रहे. द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के साथ ही सभी राज्य सरकारों ने इस्तीफा दे दिया क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से बिना पुछे ही भारतीयों को मित्र राष्ट्रों (ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका) की तरफ से युद्ध की भट्ठी में झोंक दिया था. जबकि भारतीय नेता (विशेषकर कांग्रेस के नेता साम्राज्यवाद के प्रसार के लिए हो रहे इस युद्ध से अपने आप को और भारतीयों को अलग रखना चाहते थे.
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अनुग्रह बाबू के नाम पर सहमति बनाने की कोशिशें शुरू की गईं लेकिन बाबू राजेंद्र प्रसाद ने आपत्ति जता दी.

विश्व युद्ध के कारण बिहार की सरकार ने तो इस्तीफा दे दिया लेकिन दोनों नेताओं (श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह) की उस दौर की सियासत ने बिहार में भूमिहार बनाम राजपूत के बीच सियासी लकीर खींच दी. लेकिन दोनों नेताओं की इस सियासी प्रतिद्वंद्विता के बावजूद दोनों में परस्पर विश्वास का एक मजबूत रिश्ता कायम था. मोटामोटी कहें तो जनता बँट गई लेकिन नेता नहीं बंटे. 1937 की इस लड़ाई को याद रखियेगा क्योंकि यह लड़ाई अगले दो दशकों तक चलने वाली आपसी प्रतिद्वंद्विता की शुरूआत भर थी.
जॉर्ज पंचम का विरोध और स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी
21 अक्टूबर 1887 में मुंगेर के एक जमींदार परिवार में पैदा हुए श्रीकृष्ण सिंह 1911 में पटना के पटना कॉलेज के छात्र थे. इसी दौरान जार्ज पंचम का पटना दौरा हुआ. वे गंगा नदी में नौका विहार पर निकले. लगभग पुरा पटना उनके स्वागत में उमड़ पड़ा. उस वक्त पटना युनिवर्सिटी का मिंटो हास्टल गंगा के किनारे ही हुआ करता था और इसी हास्टल में रहते थे श्रीकृष्ण सिंह. उनकी ब्रिटिश हुकुमत से नफरत इतनी थी कि उन्होंने नदी की तरफ से पुरे दिन अपनी खिड़की इसलिए नहीं खोली कि कहीं जार्ज पंचम का दर्शन न हो जाए.
श्रीकृष्ण सिंह ने 1915 में अपने गृह जिले मुंगेर में वकालत शुरू कर दी लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध उबाल मार रहे जोश की वजह से उनका मन वकालत में नहीं लगा. पटना युनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौर में ब्रिटिश सरकार विरोधी प्रदर्शनों में लाठी खाने का अनुभव तो उन्हें पहले ही हो चुका था, अब वे बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट द्वारा शुरू किए गए अब वे होमरूल आंदोलन में भी कुद पड़े और साथ ही साथ इसके बाद किसानों की नेतागिरी भी शुरू कर दी. मुंगेर में किसान सभा का गठन किया और उसके संस्थापक सचिव बने. लेकिन श्रीबाबू की ये सभी गतिविधियाँ - चाहे वह होमरूल आंदोलन से जुड़ाव हो या किसान सभा की राजनीति - सभी मुंगेर जिले तक ही सीमित थी.
प्रदेश स्तर पर श्रीबाबू को पहली बड़ी जिम्मेदारी तब मिली जब उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर से आनेवाले किसान नेता सहजानंद सरस्वती ने बिहार में किसानों को संगठित करना शुरू कर दिया. और इसी क्रम में उन्होंने 1928 में सारण जिले के सोनपुर में बिहार के किसानों की बैठक बुलाई. इस बैठक में बिहार प्रांतीय किसान सभा का गठन किया गया जिसमें श्रीबाबू को उसका सचिव बनाया गया. इसके बाद श्रीबाबू की पहचान प्रदेश स्तर पर स्थापित हो गई और वे अब प्रदेश कांग्रेस की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करने लगे. इसके बाद 1930 में जब महात्मा गाँधी ने डांडी मार्च के साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया तब देशभर के कांग्रेसी इस आन्दोलन में उनके साथ हो गए. गुजरात में अरब सागर के तट पर स्थित डांडी में जब गाँधी जी ने अपने हाथों से नमक बनाकर अंग्रेजों के बनाए नमक कानून को भंग किया तब देशभर के कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने अलग-अलग स्थानों पर नमक कानून को भंग किया. उस दौर में श्रीबाबू ने भी मुंगेर में नमक कानून भंग किया और गिरफ्तारी दी. इसके अलावा श्रीबाबू ने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी सक्रिय भागीदारी की थी और जेल गए थे.

अंक 2. नेहरू और पटेल - दोनों के व्यक्तित्व का प्रभाव

कहते हैं कि जिस समय पंडित नेहरु देश के प्रधानमंत्री थे उस समय उनको दो ही मुख्यमंत्री 'तुम' कह कर संबोधित किया करते थे. पहले थे बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रॉय और दूसरे थे बिहार के मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह. श्रीकृष्ण सिंह की गिनती नेहरु के करीबियों में होती थी लेकिन प्रशासन के मामले में वो सरदार पटेल के करीब नजर आते हैं. उनके बेहतरीन प्रशासक होने तीन किस्से आपके सामने हैं-
पहला वाकया :
श्रीकृष्ण सिंह अप्रैल 1946 में दुबारा बिहार के प्रधानमंत्री बनाए गए. इसी साल अक्टूबर में दिल्ली में सभी राज्यों के प्रधानमंत्रियों का सम्मेलन हुआ जिसमें अंतरिम सरकार में law & order के मुखिया यानि स्वराष्ट्र मंत्री (तब गृह मंत्री को स्वराष्ट्र मंत्री कहा जाता था) सरदार पटेल ने अखिल भारतीय सेवाओं (IAS & IPS) के गठन का विचार प्रस्तुत किया जिसका अधिकांश राज्यों के प्रधानमंत्रियों ने खुलकर विरोध किया.
सबको कहीं न कहीं लग रहा था कि इससे राज्यों की स्वायत्तता कम होगी. ये सभी चाहते थे कि ऐसी सेवाएं राज्य स्तर पर ही गठित की जाए. इन सभी प्रधानमंत्रियों की इच्छा थी कि सेन्ट्रल सर्विसेज जैसे विदेश सेवा, राजस्व सेवा, रेलवे सर्विसेज इत्यादि के लिए केन्द्रीय आयोग यानि युपीएससी से नियुक्तियां तो हों लेकिन किसी ऑल इंडिया सर्विसेज का गठन ना हो और यह मामला राज्यों के जिम्मे छोड़ दिया जाए. लेकिन तब बिहार के प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिंह खुलकर सरदार पटेल के पक्ष में खड़े हो गए और इसे संघीय ढांचे एवं प्रशासनिक दक्षता के लिए जरूरी बताया. इसके बाद आजाद भारत में ऑल इंडिया सर्विसेज (IAS & IPS) की शुरूआत हुई.
दूसरा वाकया :
मार्च 1947 में पटना में पुलिस विद्रोह हो गया. वेतन और सुविधाओं में वृद्धि की मांग करते हुए पुलिसकर्मियों ने पहले हड़ताल की और उसके बाद विद्रोह कर दिया. पुलिसकर्मियों ने पुलिस मुख्यालय और शस्त्रागार पर कब्जा कर लिया. खबर नेहरू तक पहुँँची और उन्होंने बीच का रास्ता निकालने पर जोर दिया. बिहार के तत्कालीन चीफ सेक्रेटरी एन एन मजुमदार की भी यही राय थी.
लेकिन श्रीबाबू ने इन सबके उलट बेहद सख्ती बरती और सेना की मदद से विद्रोह को दबा दिया. इसी प्रकार की सख्ती की राय 1946 के नौसेना विद्रोह (1946 में बाम्बे, कराची और यमन में इंडियन नेवी ने विद्रोह किया था जिसे दबाने में ब्रिटिश सरकार को नाकों चने चबाने पड़े थे) के समय अंतरिम सरकार के प्रशासनिक मामलों के विभाग के प्रभारी सरदार पटेल की भी थी जब उन्होंने कई कांग्रेस नेताओं की बातचीत से मसला सुलझाने की राय को सिरे से खारिज कर दिया था. तब पटेल ने कांग्रेस के नेताओं को साफ-साफ कहा था कि 'आजादी के बाद हमें ऐसी अनुशासनहीन और उच्छृंखल सेना और पुलिस नहीं चाहिए और इसलिए यदि ब्रिटिश सरकार इस नेवी विद्रोह का सख्ती से दमन करती है तो हमें उसका समर्थन करना चाहिए.'
तीसरा वाकया :
जब श्रीबाबू ने गांधी जी की सहयोगी को रामानंद तिवारी से मिलने से रोका.
सितंबर 1947 में बिहार में एक बार फिर पुरानी मांगों को लेकर ही पुलिस हड़ताल हो गई. इस बार भी विद्रोह हुआ. इस बार गया शस्त्रागार पर विद्रोहियों ने कब्जा जमा लिया. इस हड़ताल का नेतृत्व करनेवाले लोगों में शामिल थे सोशलिस्ट नेता रामानंद तिवारी जो बाद में गैर-कांग्रेसी सरकारों के दौर में बिहार के पुलिस मंत्री भी बने. (इन्हीं रामानंद तिवारी के बेटे शिवानंद तिवारी आजकल राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता हैं) रामानंद तिवारी और विद्रोही पुलिसकर्मियों को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया. इस घटना के कुछ दिनों बाद महात्मा गाँधी और उनकी सहयोगी मृदुला साराभाई पटना आये. पटना में गाँधी जी की मुलाकात पुलिस विद्रोहियों के नेता और जेल में बंद रामानंद तिवारी से हुई. उस मुलाकात के दौरान जयप्रकाश नारायण भी गाँधी जी के साथ थे. तब गाँधी जी ने रामानंद तिवारी से कहा था,
"जेल में मेरी तरह रहना सीखो और इस मामले में जयप्रकाश का अनुसरण मत करना."
(दरअसल महात्मा गाँधी का इशारा 1942 में जयप्रकाश नारायण के हजारीबाग जेल तोड़ कर भागने की घटना की तरफ था)
महात्मा गाँधी की बात सुनकर जेपी और रामानंद तिवारी - दोनों जोर से हँसे लेकिन रामानंद तिवारी ने गाँधी जी की कही बात का अनुसरण किया और पूरे चार साल जेल की सजा काटी.
महात्मा गांधी के इस पटना प्रवास के दौरान उनकी सहयोगी मृदुला साराभाई अक्सर रामानंद तिवारी से मिलने जेल जाया करती थीं. लेकिन जैसे ही श्रीबाबू को इसका पता चला उन्होंने उनकी जेल विजिट पर रोक लगा दी. श्रीबाबू ने जरा भी इस बात की परवाह नहीं की कि मृदुला साराभाई गाँधी जी की सहयोगी हैं और उनके साथ पटना आई हैं.
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श्रीबाबू के साथ जगजीवन राम (दाएं)

लेकिन बात जब औद्योगिक विकास और सुदृढ़ अर्थव्यवस्था की आती है तब श्रीबाबू पंडित नेहरू के रूख के साथ खड़े नजर आते थे. बोकारो स्टील सिटी, बरौनी फर्टिलाइजर कारखाना, धनबाद औद्योगिक क्षेत्र का विकास - यह सब श्रीबाबू ने नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था और नियोजित विकास (planned economy) की नीतियों पर चलते हुए किया.

अंक 3 : श्रीकृष्ण सिंह बनाम प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष 

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ और उस वक्त बिहार के प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिंह थे जबकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर महामाया प्रसाद सिन्हा विराजमान थे. 15 अगस्त को पटना के पटना लाॅन (जिसे अब गाँधी मैदान कहा जाता है) में महामाया प्रसाद सिन्हा ने तिरंगा फहरा दिया जिसका प्रधानमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने बहुत बुरा माना. उनका मानना था कि तिरंगा फहराना प्रधानमंत्री का काम है न कि प्रदेश अध्यक्ष का.
कुछ दिनों बाद एक दुसरा विवाद भी खड़ा हो गया. श्रीकृष्ण सिंह की कैबिनेट के सदस्य महेश प्रसाद सिन्हा (जिनसे श्रीबाबू की दाँत कटी रोटी वाली दोस्ती थी) से श्रीकृष्ण सिंह के मतभेद उभरने लगे और इस मतभेद में महामाया प्रसाद सिन्हा महेश प्रसाद सिन्हा के पक्ष में खड़े हो गये. श्रीबाबू बनाम महामाया बाबू की लड़ाई में कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व की गुटबाजी की भी भुमिका थी. श्रीबाबू नेहरू के करीब थे तो महामाया बाबू राजेंद्र प्रसाद के करीबी थे. दोनों एक हीं जगह (छपरा जिले के सीवान सब-डिविज़न) के रहने वाले थे. इस लड़ाई की चरम परिणति 1948 में प्रदेश अध्यक्ष के चुनावों में हुई जब महामाया प्रसाद सिन्हा श्रीबाबू समर्थित प्रजापति मिश्र (चंपारण क्षेत्र से आनेवाले कांग्रेसी) से प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव हार गये. इस हार के बाद महामाया बाबू ने श्रीबाबू पर तमाम तरह के जातिवाद और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के आरोप लगाए. इस लड़ाई में महामाया बाबू तो नप गए लेकिन महामाया बाबू की विदाई होते ही श्रीकृष्ण सिंह और महेश प्रसाद सिन्हा की पुरानी यारी फिर से कायम हो गई.
26 जनवरी 1950 को देश का संविधान लागू हुआ और उस दिन से राज्यों के प्रधानमंत्री को मुख्यमंत्री कहा जाने लगा. श्रीकृष्ण सिंह भी अब मुख्यमंत्री हो गए. श्रीकृष्ण सिंह की 1950 से आगे की कहानी हम आपको अगले एपीसोड में बताएँगे जिसमें 1. 1952 का चुनाव, 2. जमींदारी उन्मूलन, 3. वैद्यनाथधाम मंदिर में दलितों के साथ प्रवेश 4. 1957 में नेता पद का चुनाव, 5. जेपी से तीखा पत्र व्यवहार और दोनों का एक-दुसरे को जातिवादी कहना एवं 1961 में श्रीबाबू की मृत्यु तक की कहानी से आपको रूबरू कराएंगे.

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