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चौरी-चौरा की वो घटना, जिसके बाद महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन रोक दिया था

पीएम मोदी ने चौरी-चौरा शताब्दी समारोह की शुरुआत की है.

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1993 में चौरी-चौरा कांड के घटनास्थल पर इंदिरा गांधी ने स्मारक का शिलान्यास किया. नरसिंह राव ने इसका उद्घाटन किया.
4 फ़रवरी 2021 (Updated: 4 फ़रवरी 2021, 16:58 IST)
Updated: 4 फ़रवरी 2021 16:58 IST
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चौरी-चौरा. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले का एक कस्बा. ठीक 99 बरस पहले 4 फरवरी के दिन यहां जो हुआ, वो इतिहास के पन्नों में खासतौर से दर्ज है. 4 फरवरी 1922 को अंग्रेजों के खिलाफ असहयोग आंदोलन में शामिल लोगों और पुलिस के बीच चौरी-चौरा में हिंसक मुठभेड़ हुई थी. इसमें 34 लोगों की जानें गई थी. आइए जानते हैं इस दौरान क्या-कैसे हुआ था, और इसकी वजह से महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन क्यों रोक दिया था.

लेकिन आगे बढ़ें इससे पहले बता दें कि सरकार ने चौरी-चौरा के शताब्दी वर्ष पर कई कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार की है. गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए इसकी शुरुआत की. इस घटना की स्मृति में उन्होंने डाक टिकट जारी किया. इस मौके पर प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि चौरी-चौरा में जो हुआ, वो सिर्फ एक थाने में आग लगाने की घटना नहीं थी, इससे एक बड़ा संदेश अंग्रेजी हुकूमत को दिया गया था. इस घटना को इतिहास में सही जगह नहीं दी गई, लेकिन हमें इसके शहीदों को सलाम करना चाहिए.


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज इस घटना के शताब्दी समारोह की शुरुआत की है.
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आज इस घटना के शताब्दी समारोह की शुरुआत की है.
राॅलेट एक्ट का विरोध

अब बात चौरी-चौरा की घटना की. वो 1919-20 का दौर था. ब्रिटिश इंडिया के इलाकों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ गुस्सा बढ़ता जा रहा था. भेदभावपूर्ण राॅलेट एक्ट, जिसके तहत पकड़े जाने पर बिना न्यायिक कार्यवाही के किसी को भी जेल में रखा जा सकता था, को लेकर खिलाफत और स्वदेशी जैसे मुद्दे जोर पकड़ रहे थे. लोग लामबंद हो रहे थे. कांग्रेस में भी नए युग की शुरुआत हो चुकी थी, और महात्मा गांधी का दौर आ चुका था. इन सबके बीच अमृतसर में जलियांवाला बाग नरसंहार हो गया. इससे पूरा देश में उबाल आ रहा था.

लोगों के इस गुस्से को भांपते हुए महात्मा गांधी ने कांग्रेस के सामने असहयोग आंदोलन (Non-cooperation movement) शुरू करने का प्रस्ताव रखा. कांग्रेस ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया. 1 अगस्त 1920 से पूरे देश में असहयोग आंदोलन शुरू हो गया. इस आंदोलन में महात्मा गांधी का जोर पूरी तरह स्वदेशी अपनाने पर था. महात्मा गांधी के आह्वान पर स्टूडेंट्स ने स्कूल जाना छोड़ दिया, वकीलों ने कोर्ट-कचहरी छोड़ दी, मजदूरों ने फैक्ट्रियों में काम करना बंद कर दिया. लोग विदेशी सामान का बहिष्कार करने लगे. एक अनुमान के मुताबिक, लगभग चार सौ हड़तालें हुईं, और 70 लाख वर्किंग डेज़ का नुकसान हुआ. मोटा माटी कहें तो आंदोलन सफलतापूर्वक चल रहा था. ब्रिटिश सरकार की नींद उड़ी हुई थी. लगभग डेढ़ साल बीत गया. लेकिन तभी एक ऐसी घटना हो गई, जिससे आहत होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया.


11 आंदोलनकारी शहीद हुए

4 फरवरी 1922 शनिवार का दिन था. चौरी-चौरा, जो गोरखपुर जिले में पड़ता है, वहां के भोपा बाजार में असहयोग आंदोलन के लिए लोग जमा हुए. जुलूस निकालने लगे. थोड़ी ही देर में जुलूस थाने के सामने से गुजरा. माहौल बिगड़ने की आशंका को देख चौरी-चौरा थाने के दरोगा ने जुलूस को अवैध मजमा घोषित कर दिया. इस पर भीड़ और भड़क गई. पुलिस और पब्लिक के बीच झड़प होने लगी. कहा जाता है कि उसी दौरान थाने का एक सिपाही एक आंदोलनकारी की गांधी टोपी उतारकर उसे अपने पैर से कुचलने लगा. उस दौर में गांधी टोपी और महात्मा गांधी भारत की आजादी के सिंबल माने जाने लगे थे. लिहाजा गांधी टोपी को पैरों तले रौंदे जाते देख आंदोलनकारियों का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया. आंदोलनकारियों का विरोध तेज हो गया. हालात से घबराकर पुलिसवालों ने जुलूस में शामिल लोगों पर फ़ायरिंग शुरू कर दी. गोलीबारी में 11 आंदोलनकारी शहीद हो गए. कई अन्य घायल हो गए.


थाना फूंक दिया गया

फायरिंग करते-करते पुलिसवालों की गोलियां खत्म हो गईं. वो थाने की ओर भागने लगे. गोलीबारी से भड़की भीड़ ने पुलिसवालों को दौड़ाना शुरू कर दिया. इसी भागा-दौड़ी में कुछ आंदोलनकारियों ने किसी दुकान से केरोसीन तेल का टिन उठा लिया. थाने पहुंचकर मूंज और घास-पतवार रखकर आग लगा दी. यह सब देखकर दरोगा गुप्तेश्वर सिंह ने भागने की कोशिश की, तो भीड़ ने उसे पकड़कर आग में फेंक दिया. दरोगा के अलावा सब-इंस्पेक्टर पृथ्वी पाल सिंह, बशीर खां, कपिलदेव सिंह, लखई सिंह, रघुवीर सिंह, विशेसर यादव, मुहम्मद अली, हसन खां, गदाबख्श खां, जमा खां, मंगरू चौबे, रामबली पाण्डेय, कपिल देव, इन्द्रासन सिंह, रामलखन सिंह, मर्दाना खां, जगदेव सिंह, जगई सिंह को आग के हवाले कर दिया गया. उस दिन अपना वेतन लेने के लिए थाने पर आए चौकीदार वजीर, घिंसई, जथई और कतवारू राम को भी आंदोलनकारियों ने जलती आग में फेंक दिया. ये सभी लोग जिंदा जलाकर मार दिए गए.

किसी तरह एक सिपाही मुहम्मद सिद्दीकी वहां से निकलकर भागने में कामयाब हो गया. वह भागता हुआ पड़ोस के गौरी बाजार थाने पहुंचा. लेकिन वहां के दरोगा नदारद थे. उनकी गैरमौजूदगी में मोहम्मद जहूर नाम का एक सब-ऑर्डिनेट थाने के इंचार्ज की जिम्मेदारी संभाल रहा था. जहूर को सिद्दीकी ने सारी बातें बताईं. उसने जनरल डायरी में केस दर्ज कर लिया. इसके बाद जहूर और सिद्दीकी पास के कुसमही रेलवे स्टेशन पर गए. वहां से गोरखपुर जिला प्रशासन को सारी घटना की सूचना दी और आगे कार्रवाई हुई. कोर्ट ने सुनाई फांसी की सजा

इस हत्याकांड में पुलिस ने सैकड़ों आंदोलनकारियों पर केस दर्ज किया. गोरखपुर जिला कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई. वहां के सेशन जज सत्र एच.ई. होल्मस ने 9 जनवरी 1923 को अपना फैसला सुनाया. फैसले में उन्होंने 172 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई. 2 लोगों को 2 साल की कैद की सजा दी. 47 आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया.

सजा पाए लोगों की तरफ से गोरखपुर जिला कांग्रेस कमेटी ने इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की. वहां मामले की पैरवी कांग्रेस के बड़े नेता और वकील मदन मोहन मालवीय ने की. चीफ सर ग्रिमउड पीयर्स और जस्टिस पीगाॅट ने केस की सुनवाई की. हाईकोर्ट के दोनों जजों ने 30 अप्रैल 1923 को अपना फैसला सुनाया. इस फैसले में 19 आरोपियों को फांसी की सजा सुनाई गई. 16 को कालापानी भेजने का आदेश दिया. इनके अलावा बचे लोगों को 8, 5 और 2 साल की अलग-अलग सजाएं सुनाई गईं. 3 लोगों को दंगा भड़काने के लिए 2 साल की सजा दी गई. 38 लोगों को केस से बरी कर दिया दिया गया.


महात्मा गांधी के साथ मदन मोहन मालवीय जिन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चौरीचौरा के अभियुक्तों का मुकदमा लड़ा था.
महात्मा गांधी के साथ मदन मोहन मालवीय, जिन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चौरी-चौरा के अभियुक्तों का मुकदमा लड़ा था.

गोरखपुर जिला कोर्ट ने जहां 172 आरोपियों को गुनहगार मानते हुए फांसी की सजा सुनाई थी, वहीं हाईकोर्ट ने विक्रम, दुदही, भगवान, अब्दुल्ला, काली चरण, लाल मुहम्मद, लौटी, मादेव, मेघू अली, नजर अली, रघुवीर, रामलगन, रामरूप, रूदाली, सहदेव, मोहन, संपत, श्याम सुंदर और सीताराम के लिए फांसी की सजा पर मुहर लगाई .


महात्मा गांधी ने आंदोलन क्यों स्थगित किया?

चौरी चौरा की घटना की सूचना मिलते ही महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा कर दी थी. उनकी यह घोषणा अधिकांश आंदोलनकारियों को स्तब्ध कर देने वाली थी. सब सोच रहे थे कि जब आंदोलन पूरे जोशो-खरोश से चल रहा था, तब इसे रोकने की क्या जरूरत थी? लेकिन महात्मा गांधी अहिंसा में विश्वास करते थे. उनके लिए यह घटना बेहद दुखदायी थी. यही वजह बताई जाती है कि उन्होंने आंदोलन रोक दिया था.


महात्मा गांधी ने चौरीचौरा कांड की खबर मिलते ही असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया.
महात्मा गांधी ने चौरी-चौरा कांड की खबर मिलते ही असहयोग आंदोलन स्थगित कर दिया.

लेकिन कई इतिहासकार दावा करते हैं कि सिर्फ चौरी-चौरा कांड की वजह से ही महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन नहीं रोका. वो आंदोलन में लोगों का जोश बनाए रखने के लिए इसे बीच-बीच में ब्रेक देने की स्ट्रेटजी पर चल रहे थे. साउथ अफ्रीका में भी उन्होंने ऐसा ही किया था. भारत में भी उन्होंने ऐसा ही किया. 7-8 साल के ब्रेक पर कभी असहयोग आंदोलन, कभी सविनय अवज्ञा आन्दोलन तो कभी भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान किया. महात्मा गांधी का मानना था कि आजादी एक दिन में नहीं मिलेगी, ऐसे में लोगों को लंबे संघर्ष के लिए तैयार रखने के लिए बीच-बीच में ब्रेक ज़रूरी है.


इंदिरा गांधी ने बनवाया स्मारक

चौरी-चौरा कांड की स्मृति में घटनास्थल पर 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने स्मारक का शिलान्यास किया. इस स्मारक का उद्घाटन 1993 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने किया. वैसे इस जगह पर 1924 में ब्रिटिश सरकार के दौरान भी एक स्मारक बनाया गया था. लेकिन यह सिर्फ जलाकर मार दिए गए पुलिसकर्मियों के लिए बनाया गया था.


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