अतुल तिवारी. कानपुर के रहवैया हैं. कानपुर मेडिकल कॉलेज में फार्मेसी के इंटर्न थे. उन्होंने इंटर्नशिप के दिनों के कुछ किस्से फेसबुक पर लिखे हैं, जिन्हें उनकी परमिशन से आपको पढ़ा रहे हैं. पूरा सच या कोरी कल्पना न मानें, थोड़ी हकीकत थोड़ी कहानी है. पढ़िए.
वैसे तो मेरा काम मरीजों को दवाई के पत्ते काट कर देना और प्रिस्क्रिप्शन समझाना रहता है. लेकिन थोड़ा और काम सीखने की जिज्ञासा में, मैंने अपनी ड्यूटी कुछ महीनों के लिए इमरजेंसी के सर्जरी विभाग में लगवा ली थी. इमरजेंसी सर्जरी वार्ड में एक्सीडेंट, आत्महत्या और अन्य दुर्घटनाओं से कटे-फ़टे मरीजों को रिसीव किया जाता है. मेरी शुरुआत ड्रेसिंग करने से हुई. पहले ही दिन एक पेशंट के पैर की पट्टी खोली तो बजबजा कर कीड़े (मैगोट्स) उफ़न पड़े. बॉस ने बोला ‛टरपेन्टिन ऑयल’ डाल के साफ करो, फिर भी कीड़े रह जाएं तो फोर्सेप से पकड़-पकड़ के निकालो. कीड़े देखते ही मुझे उल्टी हो गयी. भोजपुरी में कहें तो ‛ढकच’ दिए और कनपुरिया भाषा में कहा जाय तो रात का सारा डिनर ‛पलटी’ मार दिए. धीरे-धीरे ऐसे केसेज आते रहे और मैं टांका लगाना, पट्टी करना, डेड टिशू निकालना, लोकल एनेस्थीसिया देना लगभग सीख गया.

इन दिनों तीन अनोखे केस आए. पहली एक महिला थी. स्ट्रेचर पर पालथी मार कर बैठी हुई थी और मुंह में गुटखा दबाया हुआ था. वह सामने से बिल्कुल ठीक लग रही थी, पास जाकर देखा तो उसकी पीठ में सब्जी वाला चाकू घुसा था. मैंने प्रश्न किया,
“आंटी यह क्या हुआ, किसने चाकू मार दिया”?
वह लार को टपकने से रोकते हुए बोली-
“हमारे हसबेंड ने”
मैंने कारण पूछा तो उसने कहा,
“शाम को ये पीने का पइसा मांगत रहें, हम कहे हम नाइ देब , गुस्सा के उ हमको दुइ तमाचा मारिस और फिर हमार पीठ में चक्कू खोप दिहिस”.
यह किस्सा सुन कर सारा स्टाफ हंसने लगा.
मैंने पूछा
“तो यह मसाला काहें चाभ रही हो”?
तो वह बोली
“दरद में आराम रहत है”.
दूसरा केस एक्सिडेंटल था. लड़के को गंभीर चेस्ट इंजरी थी, सैचुरेशन कम आ रहा था. फौरन इनक्यूबेट करना पड़ा. डॉक्टर साहब ने एम्बु बैग कनेक्ट किया और मरीज के अटेंडेंट को दबा कर सिखाया. उन्होंने समझाया कि ऐसे आराम से दबाते रहना तो मरीज को सांस मिलती रहेगी, बेड खाली होते ही ICU में शिफ्ट कर देंगे. यह बता कर डॉक्टर साहब दूसरे मरीज को देखने बाहर चले गए. अटेंडेंट बहुत जल्दी में लग रहा था, डॉक्टर के जाते ही वह बैग को तेज-तेज दबाने लगा, जिसके कारण मरीज की छाती उछलने लगी. मैंने समझाया कि जैसे खुद सांस लेते हो वैसे धीरे धीरे दबाओ.

उसको बता कर मैं दूसरे मरीज की ओर बढ़ा जो शराब के नशे में रेलवे ट्रैक पर विश्राम करने पहुंच गया था. ट्रेन आई और परिणाम स्वरूप एक टांग ट्रैक पर ही रह गई. यह बड़ा केस था, इसलिए अपना काम बस होने वाले प्रोसिजर को देखना था. मैंने देखा वह आदमी एक टांग कट जाने के बावजूद होश में था, मतलब नशे में था पर बेहोश नही था. वह दर्द से चिल्ला रहा था और दोनों हाथ पटक रहा था. डॉक्टरों ने तुरंत दोनों हाथ बांधने का निर्देश दिया. अभी मैं बैंडेज का पैकेट फाड़ ही रहा था कि मैंने देखा उसने अपनी जेब में हाथ डाला, केसर पान मसाले की दो पुड़िया निकाली और झट से फांक गया. यह देखते ही नर्सिंग स्टाफ के एक सीनियर उसको पीटने दौड़े, लेकिन मैंने उन्हें पकड़ लिया.
उसकी सुई दवाई पट्टी हो जाने के बाद मैं एक्सीडेंट वाले मरीज के पास दोबारा पहुंचा तो देखा जिसे एम्बु दबाने को दिया गया था वह एम्बु को मरीज के बगल में रख कर गायब है. नब्ज टटोली तो बिल्कुल रिदम नहीं, ऑक्सीमीटर लगा कर देखा तो वह मर चुका था. थोड़ी देर बाद ECG मशीन मंगा कर डेथ डिक्लेयर कर दी गई. पर अब बॉडी ले कौन जाए? अटेंडेंट तो भाग गया था. मैंने बाहर जाकर देखा तो वह अटेंडेंट कॉरिडोर में गुटखा चबा रहा था. मैंने कहा…
“यहां क्या कर रहा है, तुझे तो बैग दबाने को बोला था न!”
उसका झकझोर देने वाला जवाब सुनकर पहली बार मुझे कानपुर की दिलचस्प और समग्र संस्कृति का एहसास हुआ. ‛गुटखा’ कनपुरिया समाज में गहराई तक व्याप्त गुणों के समग्र स्वरूप का नाम है. यह चबाते रहने का चलन समाज में फैले अनेक रूढ़ियों को झुठलाने का काम भी करता है. जहां हमारे पूर्वांचल में बाप-बेटे के बीच हमेशा टकराव का माहौल रहता है, इसके ठीक उलट कानपुर में एक कमला पसंद की पुड़िया से बाप-बेटे आपस में आधा-आधा खा लेना सहर्ष स्वीकार लेते हैं. कानपुर शहर को मैं नारीवाद का द्योतक भी मानता हूं. कामगार हो या घरेलू , सभी महिलाएं एक सुर में पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर गुटखा थूकती हैं.
उसने कहा
“साहब बहुत जोर की तलब लगी थी, हम सोचे एक पुड़िया खा लें फिर गुब्बारा दबाएं”
मैं उसे अंदर ले गया. अंदर का स्टाफ जो पहले से ही आग बबूला बैठा था, उसे मसाला खाते देख और बिलबिला गया. देखते ही सभी ने जो किया, वो इतिहास में दफ़न रहेगा.
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