तेलुगु फिल्मों के सुपरस्टार महेश बाबू पिछले कुछ समय से अपने एक बयान को लेकर चर्चा में बने हुए हैं. मगर आज हम उनकी बात इसलिए कर रहे हैं क्योंकि उनकी फिल्म ‘सरकारु वारी पाटा’ रिलीज़ हुई है. पिछले कुछ समय में दक्षिण भारतीय भाषाओं की फिल्मों को हिंदी बेल्ट में भी खूब पसंद किया गया है. देखना ये रहेगा कि महेश की ‘सरकारु वारी पाटा’ भाषाई खाई को पाटकर, ‘RRR’, KGF और ‘पुष्पा’ वाली सफलता को दोहरा पाती है या नहीं. आपको आगे भी फिल्म के नाम से मिलते-जुलते वर्ड प्ले सुनने-पढ़ने को मिल सकते हैं. बेयर विद मी.
‘सरकारु वारी पाटा’ की कहानी विशाखापत्तनम यानी वाइजैग में शुरू होती है. मही नाम का एक लड़का है, जिसके माता-पिता ने बैंक का लोन न चुका पाने की वजह से आत्महत्या कर ली थी. अब मही बड़ा हो गया है. मायामी में रहता है. वो वहां पैसे के लेन-देने के व्यापार में है. इसी दौरान उसकी मुलाकात कलावती नाम की लड़की से होती है. कलावती बिल्कुल देसी अवतार में मही को मिलती है. वो उससे 10 हज़ार डॉलर यानी तकरीबन पौने 8 लाख रुपए उधार लेती है. एक दिन मही, कलावती को बार में शराब पीते और जुआ खेलते देख लेता है. मही को ये चीज़ पसंद नहीं आती है. इसलिए वो अपने पैसे वापस मांगता है. मगर कलावती पैसे देने से मना कर देती है. ऐसे में मही कलावती के पिता राजेंद्रनाथ से पैसे लेने मायामी से वाइजैग चला आता है.
मायामी से विशाखापत्तनम के रास्ते में कुछ होता है. इसके बाद मही राजेंद्रनाथ से 10 हज़ार डॉलर के बदले 10 हज़ार करोड़ रुपए मांगने लगता है. इस बदलाव के पीछे की वजह मही के बचपन से जुड़ी हुई है. क्या है पूरा खेल, ये बात आपको फिल्म देखने के बाद समझ आएगी. फिल्म का ट्रेलर आप यहां देख सकते हैं-
‘सरकारु वारी पाटा’ एक मेनस्ट्रीम मसाला फिल्म है, जो चाहती है कि हंसी-खेल में कुछ गंभीर बात भी कह दी जाए. मगर जब फिल्म अपने विषय को इतने हल्के में लेगी, तो पब्लिक उस चीज़ को सीरियसली कैसे लेगी! बड़े और पैसे वाले लोग, जब बैंकों से लोन लेते हैं, वो लोग तमाम तरह के हथकंडे आज़माते हैं कि उन्हें बैंक को पैसा लौटाना न पड़े. जबकि गरीब लोग जो वाकई ज़रूरत के समय में बैंक से लोन लेते हैं. अगर उनकी EMI समय पर न आए, तो बैंक वाले उगाही करने घर चले आते हैं. ऐसे में अपनी इज्ज़त बचाने के लिए लोगों के पास जान देने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. ‘सरकारु वारी पाटा’ इसी सब्जेक्ट पर बात करती है. मगर मसला ये है कि फिल्म अपने टॉपिक पर आने में बहुत देर लगाती है. पूरा फर्स्ट हाफ मही और कलावती के प्रेम में पड़ने और कॉमेडी करने में निकल जाता है. इंटरवल से ठीक पहले आपको एक बेसिक आइडिया दिया जाता है कि आगे क्या होने जा रहा है. सेकंड हाफ में फिल्म अपने पॉइंट पर पहुंचती है.

‘सरकारु वारी पाटा’ की कोशिश अच्छी है. मगर ये फिल्म न तो अपने विषय को गंभीरता से जनता के सामने रख पाती है, न ही उन्हें एंटरटेन कर पाती है. क्योंकि ये कहानी ऑलमोस्ट दो हिस्सों में बंटी हुई है, जिनसे आप चाहकर भी कनेक्ट नहीं कर पाते. फिल्म के जो कथित रोमैंटिक और फनी सीन्स हैं, वो प्रॉब्लमैटिक हैं. आप थिएटर में हंसते तो हैं मगर श्योर नहीं हो पाते कि फिल्म के जोक पर हंस रहे हैं, या इस फिल्म में इस जोक के होने की विडंबना पर. उदाहरण के तौर पर हम आपको एक सीन के बारे में बताते हैं. मही, कलावती को रोज़ शाम अपने घर बुलाता है. ताकि वो उसके साथ सो सके. सो सके का गलत सेंस में मत लीजिए. वो कलावती के पैर पर पैर रखकर सोता है, तभी उसे नींद आती है. मुझे निजी तौर पर ये लगता है कि कई साउथ इंडियन फिल्ममेकर्स अपनी फिल्म में हीरोइन को कास्ट तो कर लेते हैं, मगर उन्हें समझ नहीं आता कि उस फीमेल कैरेक्टर के साथ किया क्या जाए. इसलिए वो उन किरदारों से कुछ वीयर्ड चीज़ें करवाते हैं, जो बेवकूफाना और प्रॉब्लमैटिक लगती हैं.

‘सरकारु वारी पाटा’ में महेश बाबू ने मही उर्फ महेश का रोल किया है. इस लड़के का बचपन बड़ा दुखदाई बीता है. मगर वो अपनी जवानी में भी कुछ ऐसा नहीं कर रहा है, जो उसकी लाइफ को बेटर कर सके. सिर्फ यूएस शिफ्ट हो जाने से किसी की लाइफ बेहतर नहीं हो जाती. आपको वहां कुछ कायदे का करना होता है. मगर फिल्म बताती है कि उसका पैसे के लेन-देन से जुड़ा बिज़नेस सही चल रहा है. बहरहाल, महेश बाबू पिछले कुछ समय से एक सी चीज़ें कर रहे थे. इस फिल्म की मदद से वो कुछ अलग और नया करने की कोशिश करते हैं. मगर इस फिल्म में वो थोड़े कंफ्यूज़ लगते हैं. एक ओर उन्हें एक बड़े कॉज़ के लिए लड़ना है, तो दूसरी तरफ उन्हें अपने फैंस को भी खुश करना है. फैंस महेश को फुल ऑन एक्शन, डांस और कॉमेडी करते देखना चाहते हैं. इस फिल्म के पहले हिस्से में वो ये सब करते हैं. दूसरे पार्ट में उन्हें एक ज़िम्मेदार नागरिक दिखना है, जो अपने देशवासियों के लिए खड़ा होता है. मही का कैरेक्टर इन दो चीज़ों के बीच पिसता रहता है.

कीर्ति सुरेश ने इस फिल्म में कलावती का रोल किया है. अगर आप ‘महानती’ से कलावती तक का उनका सफर देखेंगे, तो बुरा लगेगा. कलावती मॉडर्न टच के साथ एक रेगुलर साउथ इंडियन हीरोइन है. पहले वो एक लड़के को झांसा देकर उससे पैसे लेती है. मगर आखिर में उसे उसी लड़के से प्यार हो जाता है. मॉडर्न इसलिए क्योंकि इस फिल्म में उस किरदार को कसिनो में बैठकर शराब पीते और जुआ खेलते दिखाया जाता है. हालांकि उस चीज़ को फिल्म और उसका हीरो दोनों ही गलत मानते हैं. समुतिरकनी ने कलावती के पिता और राज्य सभा सांसद राजेंद्रनाथ का रोल किया है. जिसका वाइजैग में सिक्का चलता है. समुतिरकनी को देखकर लगता है कि वो अल्लू अर्जुन की ‘अला वैकुंठपुरमुलो’ वाले किरदार को ही आगे बढ़ा रहे हैं.

‘सरकारु वारी पाटा’ जनता का मनोरंजन करने के साथ उन्हें एक मैसेज देना चाहती है, जो पब्लिक तक सही से डिलीवर नहीं हो पाता. क्योंकि फिल्म अपना संदेश देने के दौरान बहुत प्रीची हो जाती है. इस फिल्म को ‘गीता गोविंदम’ फेम परशुराम ने डायरेक्ट किया है. ये पहला मौका है, जब परशुराम किसी सुपस्टार के साथ काम कर रहे हैं. ऐसे में डायरेक्टर को सुपरस्टार के फैंस को भी केटर करना है और वो बात भी कहनी है, जो वो अपनी फिल्म के माध्यम से कहना चाहते हैं. इसी दुविधा में वो कोई चीज़ ढंग से नहीं कर पाते. कुल मिलाकर बात ये है कि ‘सरकारु वारी पाटा’ एक औसत मास एंटरटेनर फिल्म है, जो न तो पब्लिक को एंटरटेन कर पाती है, ना ही एड्यूकेट कर पाती है.
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