सलमान खान के प्रोडक्शन में बनी फिल्म ‘नोटबुक’ एक लव स्टोरी है. फिल्म की कहानी शुरू होती है एक स्कूल से. वो स्कूल जो कश्मीर में इतनी रिमोट जगह पर है कि वहां लोग क्या नेटवर्क तक नहीं पहुंच पाता. इसी स्कूल में दो लोगों की मुलाकात होती है. एक नोटबुक के ज़रिए. वो बिना मिले एक दूसरे के प्यार में पड़ जाते हैं. बावजूद इसके ‘नोटबुक’ एक स्वीट सी लव स्टोरी बनते-बनते रह जाती है. क्योंकि फिल्म कश्मीर की जमीन से जुड़ी कुछ बेहद जरूरी चीज़ों की भी बात करती है. जैसे कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार से लेकर वहां की शिक्षा व्यवस्था, पैरेंट कंट्रोल और बच्चों के गलत रास्ते पर चले जाने वाली चीज़ें.
साथ में एक दिलचस्प सी लव स्टोरी भी रही होती है, जो प्रेडिक्टेबल होते हुए भी बोर नहीं करती. हालांकि अपने आखिरी हिस्से में पहुंचकर फिल्म कुछ खिंची हुई सी लगने लगती है. ‘नोटबुक’ में अलग बात ये है कि इसका फोकस कई बार लव स्टोरी से ज़्यादा कश्मीर के जमीनी मसलों पर शिफ्ट हो जाता है. जो बेशक अच्छी चीज़ लेकिन उसकी डिटेलिंग नहीं है. इसलिए फिल्म किसी भी हिस्से में बहुत कसी हुई नहीं लगती. फिल्म का ह्यूमर भी एक इंट्रेस्टिंग पार्ट है. कई सीरियस और ड्रामा से भरपूर सीन को फनी तरीके से खत्म किया गया है. और उसके लिए घिसे-पिटे जोक्स इस्तेमाल नहीं किए गए.

एक्टर्स का काम
ज़हीर इकबाल और प्रनूतन बहल की ये पहली फिल्म है. ज़हीर को देखकर ये बिलकुल नहीं लगता है. सलमान खान कैंप से आने वाले न्यूकमर्स में दिखने वाली ये नई चीज़ है. प्रनूतन का किरदार पूरी फिल्म में तकरीबन एक ही टोन में रहता है. और वो इसे बहुत प्यार से निभाती हैं. एक दम नैचुरल. फिल्म में उनका ब्लश करने वाला सीन बहुत क्यूट है. साथ में सात बच्चे हैं, जो कहानी में कुछ न कुछ जोड़ ही रहे होते हैं, कहीं भी लाउड या इरिटेटिंग नहीं लगते. फिल्म में एक एक्शन सीक्वेंस है, जिसमें ज़हीर इंप्रेसिव लगते हैं. लेकिन सीन था क्यों ये मैं अब भी डीकोड करने की कोशिश कर रहा हूं.

टेक्निकल बातें
फिल्म शुरू होने के दस मिनट में आपको वो कश्मीर देखने को मिलता है, जहां शायद अब तक कोई फिल्ममेकर पहुंचा ही नहीं था. स्टीरियोटाइप से दूर. कश्मीर में सिर्फ पहाड़ और बर्फ ही नहीं पानी भी है. ये ‘नोटबुक’ देखकर पता चलता है. बेइंतेहा खूबसूरत लोकेशन को भुनाने के लिए बहुत सारे सीन दूर से लिए गए हैं. वो सीन्स फिल्म को अलग ही लेवल पर ले जाते हैं. जैसे ‘तुम्बाड’ में हुआ था. ज़हीर और प्रनूतन के बहुत सारे मिरर सीन्स (आइने में दिखने वाले सीन्स) हैं, जो एक टाइम के बाद खटकने लगते है. डायलॉग्स ठीक हैं लेकिन कई जगह पर चोट भी करते हैं. जैसे एक सीन में ज़हीर के फोन में नेटवर्क नहीं आता, तो वो अपने खेवनहार (लिटरली) से पूछते हैं कि यहां नेटवर्क नहीं आता क्या? जवाब आता है- ”मौसम और माहौल ठीक रहते हैं, तो आता है.”

फिल्म के गाने प्यारे हैं. लेकिन बेजगह हैं. अपनी सिचुएशन में फिट नहीं बैठते हैं. ‘मैं तारे’ की आवाज़ बहुत करेक्ट की हुई लगती है लेकिन वो अपनी धुन की वजह से सुनने में अच्छा लगता है. इस गाने को सलमान खान ने गाया है. इसके अलावा ध्वनि भानुशाली का गाया ‘लैला’ ऐसा गाना है, जो अटक जाता है. फिल्म का बैकग्राउंड म्यूज़िक कहीं भी ध्यान में नहीं आता. या यूं कहें कि आपके फिल्म देखने के एक्सपीरियंस में रुकावट नहीं डालता. जो शायद अच्छी बात है. इस फिल्म का म्यूज़िक विशाल मिश्रा ने किया है. ‘मैं तारे’ आप यहां सुन सकते हैं:
ओवरऑल एक्सपीरियंस
ये फिल्म कश्मीर में सिर्फ घटती नहीं है, बसती है. अपने कॉन्सेप्ट में थोड़ी नई है. खूबसूरत है. ईमानदार है. और सबसे ज़रूरी पॉजिटिव है. लेकिन थोड़ी ढीली है. और कई जगह सुस्त भी. ये कोई गलत चीज़ प्रचारित नहीं करती. ना ज्ञान बांटने की कोशिश करती है. बॉर्डर पर लगे तारों से शुरू होने वाली ये फिल्म कश्मीर के बच्चों से बंदूक पानी में फिंकवाकर खत्म होती है.
फिल्म रिव्यू: नोटबुक