यूं तो दुनिया में बहुत से पेशे बाज़ारीकरण का शिकार हुए हैं. लेकिन सबसे ज़्यादा अफ़सोस जिनपर होता है वो है शिक्षा और स्वास्थ्य का पेशा. बड़े-बड़े अस्पताल और नामी स्कूल-कॉलेज जब अपने नोबेल प्रोफेशन को प्रॉडक्ट बनाकर बेचने की होड़ में लग गए, तो इनका पवित्रता पर जो दावा था वो डावांडोल हो गया. हमारा सिनेमा भी यदा-कदा इस बाज़ारीकरण पर ध्यान देता आया है. ऐसी ही एक फिल्म आई है ‘सेटर्स’, जो एजुकेशन की फील्ड में जारी गड़बड़झाले को एक थ्रिलर फिल्म के लबादे में पेश करने की कोशिश करती है.
कहानी नकल माफिया की
फिल्म में कहानी नहीं कहानियां हैं, जिनमें से कुछेक तो बिल्कुल गैरज़रूरी हैं. मोटे तौर पर स्टोरी लाइन कुछ यूं है. बनारस के एक भैया जी हैं, जो बाहुबली से लेकर एग्ज़ाम वॉरियर तक सब कुछ हैं. पूरे देशभर में पैसे लेकर लोगों के एग्ज़ाम क्रैक कराते हैं. चाहे इंजीनियरिंग हो, मेडिकल हो या रेलवेज़. उनका पूरे भारत में नेटवर्क है. कहने को तो पूरा सेटअप उनका है लेकिन ग्राउंड लेवल पर काम उनका दायां हाथ अपूर्वा करता है. उसके पास सारे जुगाड़ हैं. नकली परीक्षार्थी मुहैया कराने से लेकर रियल टाइम में पेपर स्कैन करने तक सारे टोटके जानता है. उधर शहर का एसपी आदित्य सिंह इस गैंग पर नकेल कसने की कसम खाए हुए है. अपूर्वा उसका बचपन का दोस्त भी है. आगे का एक ट्रैक सिंपल है. पुलिस इस माफिया को रंगे-हाथों पकड़ना चाहती है और भाई लोग पुलिस को चकमा देने की कसम खाए बैठे हैं. ये ‘तू डाल-डाल, मैं पात-पात’ वाला खेल ही फिल्म की मेन कहानी है. बाकी सारे ट्रैक गैरज़रूरी भी हैं और कन्फ्यूज़ भी करते हैं.

प्लस साइड में क्या है?
जमा खाते में ये कि फिल्म टुकड़ों में अटेंशन खींचती तो है. जैसे नकल माफियाओं के तंत्र को जब फिल्म डिटेल में एक्सप्लेन करना शुरू करती है तो दिलचस्पी जगाती है. चीटिंग के लिए कैसी गजेटरी इस्तेमाल की जा सकती है, नकल माफिया कितना हाईटेक हो सकता है, पेपर लीकिंग के भाव कहां तक जा सकते हैं इन सबकी डिटेलिंग थोड़ा रोमांच पैदा करती है. फिर पुलिस के साथ गैंगवालों की लुकाछिपी भी एक हद तक इंटरेस्टिंग लगती है. लेकिन इन दिलचस्प चीज़ों को जोड़ने वाली कड़ियां इतनी कमज़ोर हैं कि पूरे पैकेज के रूप में फिल्म आपको ज़्यादा उत्साहित नहीं करती. क्लाइमैक्स थोड़ा थ्रिलिंग ज़रूर है लेकिन कन्विंसिंग नहीं.
एक्टिंग के खाते में सबसे ज़्यादा नंबर भैया जी बने पवन मल्होत्रा ले जाते हैं. अपूर्वा के रोल में श्रेयस तलपडे और एसीपी के रोल में आफताब ठीक-ठाक हैं. विजय राज ने अपना काम भले ही ईमानदारी से किया हो, उनके किरदार की फिल्म में उपयोगिता समझ नहीं आती. जमील खान गुस्सैल पुलिस वाले के रोल में जंचते हैं. बाकी इशिता दत्ता और सोनाली सीगल के लिए करने को कुछ ख़ास था नहीं, इसलिए उन्होंने किया नहीं.

कन्फ्यूज्ड फिल्म
दरअसल ‘सेटर्स’ कन्फ्यूज्ड फिल्म लगती है. ये नकल माफिया पर बात करते-करते पुलिस वर्सेस बाहुबली के ट्रैक पर फोकस करने लगती है. फिर उसे भी अधूरा छोड़ देती है. दो विरोधी किरदारों को दोस्त तो बताती है लेकिन न तो उस दोस्ती का कोई बैकग्राउंड समझाती है, न ही दोस्तों के इमोशंस को स्पेस देती है. इससे ज़्यादा दोस्ती तो जानी-दुश्मनों में पाई जाती है. लवस्टोरी वाला ट्रैक शुरू करती है तो बेहद उथले तरीके से, फिर उसे अविश्वसनीय अंजाम तक पहुंचा देती है. मतलब जो लड़की नैतिकता के चलते एग्ज़ाम में चीटिंग नहीं करना चाहती, वो एक क्रिमिनल के साथ, उसकी हकीकत जानते हुए प्यार ज़रूर कर सकती है. किरदारों का ये अधकचरापन पूरी फिल्म भर फैला हुआ है. और भी कुछ चीज़ें हैं जो गले नहीं उतरतीं.
जैसे,
# आदित्य की बीवी और अपूर्वा में दोस्ती होने की क्या रेलेवेंस थी ये समझ नहीं आया.
# भैया जी के एक और लेफ्टनेंट केसरिया से अपूर्वा की तनातनी को डेवलप नहीं किया गया. आधे में छोड़ दिया गया.
# भैया जी एग्ज़ैक्टली किस वजह से अपूर्वा से खफा होते हैं ये स्पष्ट नहीं किया गया.
# और अंत में तो भैया जी का इतना प्रॉमिसिंग किरदार सिरे से गायब ही कर दिया गया है. कोई खैर-खबर ही नहीं ली गई.

एक और बात. 2019 की थ्रिलर फिल्म में एटीज़ की फिल्मों जैसे ड्रामेटिक डायलॉग्स होना फिल्म को और भी हल्का करता है. “क्या समझते हो अपने आप को? काशी का टाइगर श्रॉफ”? इस जैसा डायलॉग सुनकर आप अगले दस मिनट तक सर धुनते हैं कि असल में लेखक कहना क्या चाह रहा था. फिल्म का एंड फिल्म के इम्पैक्ट को परफेक्टली समराइज़ करता है. अंत में पुलिस और दर्शक, दोनों के हाथ झुनझुना ही लगता है.
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