हम सबके मोहल्ले-पड़ोस में एक लड़का-लड़की ऐसा होता है, जिससे अपना मुंहचिढ़े का रिश्ता होता है. ये समीकरण खतरनाक तब हो जाता है, जब वो विपरीत लिंगी हो. उसी से सबसे ज्यादा झगड़ा होता है, उसी से बनती है. उसी के सारे राज़ पता होते हैं. उसी के साथ सारे प्लान बनते हैं. पड़ोस की दोस्ती उम्र के कूदी लगाके जवानी वाले कॉलम में टिक करते ही प्यार में बदल जाती है. ये सबसे आम बात होती है. प्रेम कहानियों का एक बड़ा प्रतिशत अपना प्रेम पड़ोस से लेकर आता है. इसी पर ढ़ेरों कहानियां बनी हैं. सालों से फिल्में दिखाई गई हैं. वैसी ही कहानी पर एक फिल्म और आई है. ‘मेरी प्यारी बिंदु’ बस इस फिल्म का ट्रीटमेंट बहुत अलग है. पुरानी कहानी को नए तरीके से दिखाया गया है. कुल जमा यही इस फिल्म की उपलब्धि है. कहानी फर्स्ट हाफ में स्टोरीटेलिंग के अंदाज़ में आगे बढ़ती है. वैसे ही जैसे एक समय पर रेडियो पर यादों की कहानी सुनाने वाला एक कार्यक्रम आता है. लड़का-लड़की, पड़ोस का प्यार, मिलना-बिछुड़ना, फिर मिलना फिर बिछुड़ना और अंत में एक बार फिर आमने-सामने आ जाना. यही इस फिल्म के मूल में है.
इस फिल्म में जितना नरेशन चलता है, फिल्म का नाम ‘नरेश की आत्मकथा’ भी हो सकता था.
परिणीति चोपड़ा की आखिरी फिल्म कब आई थी? 2014 के आस-पास जब उन्होंने ‘किल दिल’ और ‘दावत-ए-इश्क’ जैसी फिल्म की थी. 29 बरस की उम्र और 6 बरस के करियर में वो 3 साल से परदे से गायब हैं. इस बार लौटी हैं तो ‘मेरी प्यारी बिंदु’ के साथ. ऐसा ही लगभग आयुष्मान खुराना के साथ भी तो है. उनकी आखिरी फिल्म 2 साल पहले आई थी. इस फिल्म में परिणीति ने गाने भी गाए हैं. और गाने-वाने में अपने आयुष्मान का भी हाथ लगता है. लेकिन इस फिल्म का इससे क्या संबंध? फिल्म का संबंध ये कि एक जैसे मल्टीटैलेंटेड हीरो-हीरोइन दोनों के लिए फिल्म इम्पोर्टेंट थी. ये दोनों मुश्किल से 5-6 फिल्म पुराने हैं, और पहली बार परदे पर साथ आए. दोनों साथ में अच्छे लगे हैं. दोनों ने भरपूर मेहनत लेकिन इसका फायदा फिल्म को शायद ही मिल सके.
‘मेरी प्यारी बिंदु’ से नॉस्टेल्जिया जुड़ा है. आमिर का कोल्ड ड्रिंक वाला ऐड नहीं याद आता आपको इस गाने से? पड़ोसन फिल्म का गाना भी याद आता है. वैसे ही ये फिल्म बहुत नॉस्टेलजिक है. 1983 का वर्ल्डकप, चित्रहार के गाने, वॉकमैन, कैसेट में गाना भरवाना सबकुछ इस फिल्म में बहुतायत से है. यादों को कई-कई लेवल पर कुरचा गया है. इस फिल्म में बीते कुछ साल आपको बहुतायत में मिलेंगे, टाइपराइटर-रेडियो, हॉटमेल के अजीबोगरीब ईमेल एड्रेस, टॉर्च जलाकर नाचना, जो जीता वही सिकन्दर, शाहरुख खान की डीडीएलजे, सचिन के सेंचुरी मारने पर हार जाने का स्टीरियोटाइप, लैंडलाइन पर 2 घंटी मार के दोस्त को बुलाना, बप्पी लहरी, चक दे इंडिया की डीवीडी, मुंबई की बाढ़, कीपैड वाला फोन और सबसे खास बिग बॉस का शुरुआती सीजन. इस फिल्म में आप कहानी के साथ साल दर साल आगे बढ़ते हैं. जिसकी डीटेल्स में लिखने वाले ने मेहनत भी की है. तब भी वो इतना कनेक्टिंग नहीं रह जाता, जितना आयुष्मान की ही फिल्म ‘दम लगा के हाइशा’ थी.
‘दम लगा के हाइशा’ अगर ‘आशिकी’ है, तो ‘मेरी प्यारी बिंदु’ ‘आशिक बनाया आपने’ है.
यानी अभिमन्यु रॉय चौधरी लेखक हैं. मुंबई में रहते हैं. किताबें लिखते हैं. लुगदी साहित्य. राइटर दिखाने के लिए उन्हें टाइप राइटर पर टाइप करवाया गया है. ढेर सी सिगरेट फुंकवाई गई है. और इस पूरी कवायद में बहुत सारा कागज बर्बाद किया गया है. डायरेक्टर अक्षय रॉय को पर्यावरण की दो पैसे की परवाह नहीं लगती. चुड़ैल की चोली और आवारा धोबन जैसी किताबें. जो खूब बिकती हैं. लोग उन्हें गरियाते भी हैं और पढ़ते भी हैं. माने आप चेतन भगत को मस्तराम के साथ मिलकर थोड़ा सा हॉरर मिला दें तो अभिमन्यु रॉय चौधरी बनता है. लेकिन वो समस्या में तब पड़ते हैं, जब तीन साल से वो एक ही किताब पर अटक जाते हैं. इस बीच उनके घर वाले उन्हें कोलकाता बुला लेते हैं. और यहीं से कहानी उलट जाती है. परिणीति चोपड़ा का पदार्पण होता है. कहानी फ्लैशबैक में जाती है. अचानक वर्तमान में आ जाती है. इस फिल्म में इतनी बार फ्लैशबैक आया है कि आधी मेहनत तो वही टाइम लाइन मेंटेन करने में लगी होगी.
2 घंटे से भी कम की इस फिल्म में आधे घंटे से ज्यादा तो गाने बजते हैं. जब नहीं बजते तो बैकग्राउंड में बजते हैं. कैसेट-वैसेट वाला हिसाब किताब आपने फिल्म के ट्रेलर में देखा ही होगा. रफ़ी, आशा, किशोर कुमार, आरडी बर्मन और बप्पी लहरी के फैंस के लिए इस फिल्म में बहुत कुछ है. इस फिल्म में बहुत से गाने और बहुत सी आवाजें हैं. बहुत सा स्वर है. जो इस फिल्म के पूरे मूड को कन्फ्यूज सा कर देता है.
फिल्म कई जगह अटकाती भी है. वही परिणीति जो करियर के लिए आयुष्मान से प्यार होने के बाद भी शादी के लिए मना कर देती हैं, वही परिणीति मुंह उठाकर दूसरे से ऐसे ही शादी कर लेती हैं. घर और बच्चे संभालने के लिए तैयार नज़र आती हैं (फिर करती हैं या नहीं ये फिल्म में देखें!) ये बात पूरी फिल्म के नाम पर मजाक जैसा है.
बाकी फिल्म का अंत प्यारा है. आम सा नहीं है लेकिन बहुत सहज सा है. फिल्मों के नाम पर हम इतनी फ़िल्मी चीजें और वाहियात अंत देख चुके हैं कि इस फिल्म का अंत सुकून देता है. परिणीति चोपड़ा को देखना सुकून भरा है. एक्टिंग में उन्हें अब मेहनत नहीं करनी पड़ती. वो फिल्म की कहानी के साथ वो संघर्ष करती नज़र नहीं आतीं. ये फिल्म कैसी भी जाए. उनके टैलेंट पर भरोसा रखने वालों को ये देखकर अच्छा लगता है. शेष फिल्म औसत है. एक बार देखी जा सकती है. न देखकर भी आप कुछ मिस नहीं करेंगे.
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