लग जा गले कि फिर ये हसीं रात हो न हो,
शायद फिर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो.
केदारनाथ मूवी के सबसे रोमांटिक मोमेंट में गुनगुनाया गया ये गाना मूवी की कुल जमा फील भी है.
साल 2013 में उत्तराखंड में आई बाढ़ में 4,000 से ज़्यादा लोग मारे गए थे. कोई 70 हज़ार लोग लापता हुए थे. केदारनाथ धाम में भी बड़े पैमाने पर जान माल का नुकसान हुआ था. इसी सच्ची घटना के बैकड्रॉप में बनी इस फिल्म की कहानी पूरी तरह फिक्शनल है.

एक हिंदू लड़की है. केदारनाथ धाम के एक बड़े पंडित की. नाम है मंदाकिनी मिश्रा. उसे सब प्यार से मुक्कू पुकारते हैं.
एक मुस्लिम लड़का है मंसूर. उसे कोई भी प्यार से नहीं पुकारता. तीर्थयात्रियों को अपने खच्चर या पीठ पर मंदिर तक ढोता है.
इन दोनों के बीच प्रेम हो जाता है. और फिर जो होता है उसके बारे में एक शब्द भी कहना फिल्म का स्पॉइलर होगा. फिल्म की पूरी कहानी लिटरली एक शब्द में बताई जा सकती है. और वो एक शब्द हमने अपने इस रिव्यू में आगे कहीं पर यूज़ भी किया है. इसे आप एक रिडल की तरह ले सकते हैं, या फिर सिनेमा हॉल में मूवी देखकर आ सकते हैं.

बहरहाल, जब सिनेमा हॉल में आए दर्शकों को फिल्म के नाम और उसके प्रमोशन से ही आइडिया हो गया हो कि क्लाइमेक्स में एक बड़ी त्रासदी होने वाली है, तो फिर फिल्म की सफलता सबसे ज़्यादा इस बात पर डिपेंड करती है कि पूरी फिल्म के दरम्यान उस डरावनी घटना के जरिए भय कैसे डिवेलप किया गया है.
और यहीं पर फिल्म कुछ कमतर पड़ जाती है. मतलब ये कि पूरी फिल्म के दौरान अनहोनी की आशंका का डर और नाख़ून कतरने वाली स्थिति नहीं बनती.
एंड के सीन में स्पेशल इफेक्ट्स भी एमेच्योर हैं. पानी, बाढ़ और टूटते घरों को देखकर प्रोड्यूसर और फिल्म के बजट पर दया आती है. एक दर्शक या एक क्रिटिक को बॉलीवुड की आयरनी भी कचोटती है. अगर यशराज फिल्म्स ने ठग्स ऑफ़ हिन्दोस्तान के बजट में से केदारनाथ को बीसेक करोड़ भी दे दिए होते, तो ठग्स की असफलता पर तो कोई प्रभाव नहीं पड़ता, मगर केदारनाथ शायद थोड़ी और प्रीमियम लगने लगती. पिछले किसी युग में आई टाइटैनिक के ग्राफिक्स को भी अगर बेंचमार्क मान लिया जाए तो भी फिल्म का स्पेशल इफेक्ट्स वाला डिपार्टमेंट जस्ट पासिंग मार्क्स ला पाता है.

फिल्म की सिनेमाटोग्राफी कमाल की है. कोहरा, पहाड़, सीढ़ियां, मंदिर, वादियां नदी और उनके बीच में पनपता एक मासूम सा प्रेम…
एक्टिंग के लिए सारा को इस फिल्म के चलते कुछेक बेस्ट डेब्यू के नॉमिनेशन्स या इवन अवार्डस भी मिल जाएं तो मुझे तनिक भी आश्चर्य न होगा. फिल्म ‘जब वी मेट’ की गीत सी चुलबुली और ‘सैराट’ की अर्चना सी दबंग मुक्कू के रोल में कहीं-कहीं वो अपनी मां अमृता की फोटोकॉपी भी लगती हैं. साथ ही बहुत ज़्यादा कैमरा फ्रेंडली.
कुछ पुराने मिथक तोड़े गए हैं. मंसूर के पिटने पर मुक्कू उसे बचाने नहीं जाती, बल्कि कहती है कि – इतने में ही मर गया तो आगे कैसे झेलेगा. हमने ढेर सारी फिल्मों में लड़के को लड़की के घर के चक्कर लगाते देखा है लेकिन यहां उल्टा होता है और कन्विंसिंग भी लगता है.

मंसूर और मुक्कू की पूरी केमिस्ट्री ही कन्विंसिंग लगती है. लेकिन कन्विंसिंग लगना एक बात है और कनेक्ट होना दूसरी. यूं स्क्रीन प्ले और स्टोरी कन्विंसिंग है, लेकिन कनेक्टिंग नहीं.
फिल्म का इमोशन कोशेंट भी अच्छा है. लेकिन ज़्यादा अच्छा नहीं, क्योंकि ज़्यादा होना भी एक ड्रॉबैक ही है. फिल्म का फर्स्ट हाफ ‘स्त्री’ या ‘दम लगा के हईशा’ जैसी छोटे बजट की, लेकिन बेहतरीन फिल्मों के बराबर ठहरता है. सेकेंड हाफ और खासतौर पर क्लाइमेक्स में केवल सारा अली की एक्टिंग प्रभावित करती है.
सुशांत राजपूत को जहां कहीं भी मौका मिला है वो अपना रोल अच्छे से निभा गए हैं, लेकिन अंततः ये फिल्म सारा अली की ही कही जाएगी.

अभिषेक कपूर का डायरेक्शन वहां अच्छा है जहां-जहां रोमांस है. म्यूज़िक डायरेक्टर अमित त्रिवेदी और लिरिक्स राइटर अमिताभ भट्टाचार्य की जुगलबंदी शायद इस दौर की कुछ सबसे अच्छी जुगलबंदियों में से एक कही जाएगी.
शिव को समर्पित गीत ‘नमो-नमो’ को बैकग्राउंड स्कोर की तरह भी यूज़ किया गया है. जैसे कि शिव की स्तुति में गाए जाने वाले ज़्यादातर गीत होते हैं, ये भी उतना ही पावरफुल है. बाकी गीत भी अच्छे हैं, लेकिन कोई भी गीत ‘इमोशनल अत्याचार’ वाली सफलता को दोहरा पाएगा, इसकी संभावना कम दिखती है.
डिक्शन और लोकल बिंबों में बिलकुल भी रिसर्च नहीं की गई लगती है. केदारनाथ में से उत्तराखंड और वहां की बोली पूरी तरह मिसिंग है.

अंत में फिल्म देखें या न देखें. इसमें से अगर एक चीज़ चुनना ज़रूरी हो तो सारे प्लस और माइनस कैलकुलेट कर चुकने के बाद मैं ‘देखें’ चुनना चाहूंगा.
वीडियो देखें –
सिंबा के ट्रेलर की ये बातें बताती हैं कि फिल्म 500 करोड़ पार करेगी –