CJI बीआर गवई के इस फैसले की साथी जज जस्टिस भुइयां ने खुली आलोचना की
सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई को अपना वो आदेश वापस ले लिया है, जिसमें बिना पर्यावरणीय मंजूरी के हुए सभी निर्माण को गिराने के लिए कहा गया था. इस बात पर सीजेआई बीरआर गवई और जस्टिस उज्जल भुइयां आमने-सामने आ गए.
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सुप्रीम कोर्ट ने कंस्ट्रक्शन से जुड़े अपने एक अहम आदेश को वापस ले लिया है. शीर्ष अदालत ने इसी साल मई में ये आदेश दिया था. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कंस्ट्रक्शन शुरू होने के बाद पर्यावरणीय मंजूरी लेने वाले सभी निर्माण को ध्वस्त कर दिया जाए. लेकिन 18 नवंबर को चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने ये फैसला पलट दिया. पीठ ने 2-1 के बहुमत से तय किया कि ये फैसला वापस (रीकॉल) न लिए जाने पर देश की जनता के हजारों करोड़ रुपये बर्बाद हो जाते. ओडिशा में 962 बेड का AIIMS और कर्नाटक में बना एक नया एयरपोर्ट भी गिराना पड़ता.
यहां गौरतलब बात ये है कि पीठ में शामिल एक जज, जस्टिस उज्जल भुइयां ने नए फैसले पर दोनों जजों से असहमति जताई और इसका विरोध किया. जस्टिस उज्जल भुइयां सुप्रीम कोर्ट की उस बेंच का हिस्सा थे जिसने बीती 16 मई को निर्माण ध्वस्त करने वाला फैसला दिया था. अब सीजेआई गवई ने फैसला वापस ले लिया जिसकी जस्टिस भुइयां ने सीधी आलोचना की है. उन्होंने साफ कहा कि बहुमत की राय ने ‘पर्यावरण न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों की अनदेखी’ की है.
CJI गवई के 84 पन्नों के रीकॉल वर्डिक्ट पर अपने प्रतिवाद में जस्टिस भुइयां ने 97 पन्नों की टिप्पणी लिखी. इसमें उन्होंने कहा,
प्रीकॉशनरी प्रिंसिपल यानी 'सावधानी का सिद्धांत' पर्यावरण कानून की नींव है. ‘पॉल्यूटर पेज’ (Polluter Pays) यानी 'प्रदूषण करने वाला भरपाई करे' सिर्फ नुकसान की भरपाई का सिद्धांत है. सावधानी वाले सिद्धांत को केवल ‘पॉल्यूटर पेज’ के नाम पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. सुप्रीम कोर्ट का यह रिव्यू डिसीजन पीछे जाने जैसा है. बहुमत की राय ने पर्यावरण न्यायशास्त्र के मूल सिद्धांतों की अनदेखी की है.
जस्टिस भुइयां जब ये फैसला पढ़ रहे थे तो चीफ जस्टिस के असहमति वाली बातें छोड़कर आगे बढ़ गए. बोले कि वह फैसले का कुछ हिस्सा पढ़ना नहीं चाहते. इस पर CJI गवई ने कहा कि ये फैसला तो वैसे भी सार्वजनिक होगा, इसलिए पढ़ दीजिए. हालांकि जस्टिस भुइयां ने वो हिस्सा पढ़ने से परहेज ही किया.
क्या था फैसला?मंगलवार 18 नवंबर का फैसला CREDAI (रियल एस्टेट डेवलपर्स का संघ), SAIL और कर्नाटक सरकार की याचिकाओं पर आया, जो 16 मई के फैसले की समीक्षा चाहते थे.
16 मई वाले फैसले में कहा गया था कि अवैध निर्माण को बाद में पर्यावरणीय मंजूरी देकर वैध बनाना कानून के खिलाफ है. सरकार ने 2017 के नोटिफिकेशन और 2021 के ऑफिस मेमोरेंडम का गलत इस्तेमाल करके अवैध इमारतों को बचाने की कोशिश की. ये 'चालाकी से ड्राफ्टिंग' (crafty drafting) है. कोर्ट ने कहा था कि सरकार सिर्फ उन लोगों को बचा रही थी जिन्होंने बिना पर्यावरण मंजूरी के निर्माण शुरू कर दिया था.
CJI का तर्कद हिंदू की रिपोर्ट के अनुसार, इस फैसले को वापस लेते हुए CJI गवई ने तर्क दिया कि अगर पुराने फैसले पर अमल किया जाए तो करोड़ों-करोड़ रुपये के बड़े प्रोजेक्ट तोड़ने पड़ेंगे. इन प्रोजेक्ट्स में हजारों लोग काम कर रहे हैं. बहुत सारे बड़े सरकारी काम रुक गए हैं. स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया की परियोजना, ओडिशा में 962 बेड का AIIMS, कर्नाटक में एक नए एयरपोर्ट, दिल्ली में CAPF मेडिकल साइंस इंस्टीट्यूट का काम रुक गया है.
उन्होंने आगे बताया कि केंद्र की 8293 करोड़ रुपये की 24 परियोजनाएं और राज्यों की 11 हजार 168 करोड़ की 29 परियोजनाएं रुकी हुई हैं. सीजेआई ने सवाल किया कि क्या इतनी बड़ी इमारतें तोड़कर दोबारा बनाने से जनता का फायदा होगा? या यह और नुकसान करेगा?
CJI ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसलों ने कहा है कि बाद में दी जाने वाली पर्यावरण मंजूरी को सख्ती से हमेशा ठुकराया नहीं जा सकता. सिर्फ सजा देने के इरादे से ये मंजूरी रोकी नहीं जानी चाहिए. कुछ खास हालात में प्रोजेक्ट्स को बाद में मंजूरी दी जा सकती है, लेकिन यह रोज का तरीका नहीं होना चाहिए. CJI ने सवाल किया कि क्या इन सब प्रोजेक्ट्स को गिराकर खर्च हुए पैसों को कूड़े में फेंक देना जनता के हित में होगा?
हालांकि, जस्टिस भुइयां ने CJI के 'कूड़ेदान' वाले तर्क को खारिज कर दिया और कहा कि यह ‘गलत तर्क’ है. ये गलत धारणा है कि पर्यावरण और विकास एक-दूसरे के खिलाफ हैं. पर्यावरण और विकास दुश्मन नहीं हैं बल्कि दोनों साथ-साथ चलते हैं और संविधान भी यही कहता है.
लाइव लॉ के मुताबिक, जस्टिस भुइयां ने साफ कहा कि इस मामले में पुराने फैसले को बदलने या वापस लेने की कोई जरूरत नहीं थी. उन्होंने ये तर्क भी खारिज कर दिया कि इमारतें गिराने से प्रदूषण बढ़ेगा. कहा कि कानून तोड़ने वालों को अपनी अवैध इमारतें बचाने के लिए ऐसे बहाने देने का हक नहीं है.
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