द बेंगॉल फाइल्स : एक मनुष्य की मौत (The Bengal Files Review)
बहुत मुश्किल है ऐसी फ़िल्मों के रिव्यू कर पाना, जो धारा के बिल्कुल उलट हो, जटिल हो और बायस्ड हो. लेकिन फ़िल्म है तो उसे देखा जाना जरूरी है. उस कलाकार की अभिव्यक्ति को स्पेस देना जरूरी है. कैसी है ये फ़िल्म और director Vivek Agnihotri ने क्या करने की कोशिश की है, जाने हमारे इस विस्तृत The Bengal Files Movie Review में.

Rating: 3.5 Stars / 5
'द बंगाल फाइल्स' सेंसेशनल फिल्म है. लोमहर्षक. भयावह. कमजोर दिल वालों के लिए नहीं. Gore, explicit scenes, raw violence से भरी.
दर्शक सीन दन सीन अपनी सीटों पर बैठे सिसकारियां भरते रहेंगे, उफ्फ करते रहेंगे. बार बार स्क्रीन से नज़रें फैरते रहेंगे. इसमें सड़कों पर कत्लेआम के दौरान एक गोदाम में शरण लिए लोगों का सीन, दुनिया की महानतम फ़िल्मों में से एक, एलेम क्लीमोव की एंटी-वॉर सोवियत फ़िल्म "कम एंड सी" (1985) के चर्च वाले सीन से प्रेरित लगता है. दुनिया के सिनेमा के सबसे विचलित करने वाले, खौफनाक दृश्यों में से एक. इसमें खतरनाक बाल कलाकार एलेक्सेई क्रावचेंको, जर्मन नरकदूतों के सामने, बेलारूसी बच्चे फोयरा के रोल में जैसा टेरराइज़्ड फ्रोज़न फेस बनाए रखते हैं, वो आप चिता तक अपने साथ ले जाएंगे.
'द बंगाल फाइल्स' में एक कड़क, आग्रहपूर्ण पोलिटिकल मैसेजिंग है जो इतना उफान लेती हुई है कि राह चलता आम इंसान एक चरम राय बना सकता है. मेकर के एजेंडा से पूरी तरह वशीभूत हो सकता है.
3 घंटे 20 मिनट के रनटाइम के साथ ये राइटर-डायरेक्टर विवेक की सबसे लंबी फ़िल्म है और ये लंबाई सिनेमाई भाषा में लज़्ज़तदार है.
फिल्म के खुलने से पहले सूचित किया जाता है कि ये सत्य घटनाओं पर आधारित है और सांप्रदायिक हिंसा के पीड़ितों को समर्पित है. दोनों ही बातें कमोबेश फ़िल्म में सही साबित भी होती है.
शॉट खुलता है जून, 1946 की दुपहरी में. वाइसरॉय हाउस (आज का राष्ट्रपति भवन) की आइकॉनिक सीढ़ियां दिख रही हैं. भारत का ह्रदयस्थल. लेकिन अभी भुतहा सा लग रहा है. न कोई इंसान, न इंसान की ज़ात. मानो कुछ उजड़ सा गया है. तेज अंधड़ उड़ रहा और इन सीढ़ियों और इस इमारत को धुंधला, खंडहर सा कर रहा है. यह तत्कालीन भारत के ट्रैजिक हालात और ह्यूमैनिटी के इस बिल्डिंग को छोड़ चुने का रूपक है. तभी तो अंदर आठ लोग एक छोटी सी मेज़ पर बैठकर ऐसा फैसला करने जा रहे हैं, जिससे 10 से 20 लाख लोगों का कत्लेआम होने जा रहा था. कितना आसान है ये आंकड़ा लिख देना. लेकिन किसी मानव की हत्या को विटनेस करें, तो ख़ौफ का अंदाजा हो.
निसिद हज़ारी की नॉन-फिक्शन पुस्तक "मिडनाइट्स फ्यूरीज़ः द डेडली लैगेसी ऑफ इंडियाज़ पार्टीशन" को रिव्यू करते हुए विलियम डेलरिंपल लिखते हैं -
"सांप्रदायिक हिंसा का एक भयानक प्रकोप फैला और भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग एक हज़ार वर्ष साथ रहे समुदायों ने एक-दूसरे पर हमला किया. एक तरफ हिंदू और सिख थे. दूसरी तरफ मुसलमान. एक-दूजे पर किया यह नरसंहार जितना अप्रत्याशित था, उतना ही अभूतपूर्व भी. पंजाब और बंगाल में ये नरसंहार विशेष रूप से तीव्र थे, जो कि क्रमशः पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के साथ भारत की सीमाओं से सटे प्रांत हैं. यहां नरसंहार, आगजनी, जबरन धर्मांतरण, सामूहिक अपहरण और बर्बर यौन हिंसा की क्रूरताएं हुईं. लगभग 75,000 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया. उनमें से कई के शरीरों को टुकटों टुकड़ों में काट डाला गया.
निसिद हज़ारी ने अपनी तेज़ रफ्तार, नए नैरेटिव वाली इतिहास-कृति “मिडनाइट्स फ्यूरीज़” में विभाजन और उसके पश्चात की त्रासदी के वृत्तांत में लिखा है कि -“हत्यारे गिरोहों ने पूरे के पूरे गांवों को आग लगा दी. उन्होंने पुरुषों, बच्चों और बूढ़ों को बेरहमी से काट डाला. जवान औरतों को उठा ले गए ताकि उनका बलात्कार कर सकें. कुछ ब्रिटिश सैनिक और पत्रकार जिन्होंने नाज़ी डेथ कैंप अपनी आंखों से देखे थे, उन्होंने गवाही दी कि विभाजन की ये क्रूरताएं तो और भी बद्तर थीं. गर्भवती औरतों के स्तन काट दिए गए, उनके पेट चीरकर अजन्मे शिशु निकाल लिए गए. शिशुओं को सचमुच सींखों पर भूनकर मारा हुआ, पाया गया.”
"द बंगाल फाइल्स" इस त्रासदी में बंगाल में क्या हुआ ये बताती है. 16 अगस्त, 1946 क़त्ल-ओ-ग़ारत का वो असली ट्रिगर था, जिसने पूरे उपमहाद्वीप में हिंसक प्रतिक्रिया की शृंखला शुरू की. जिन्ना ने “पाकिस्तान या मौत” का आह्वान किया. मुस्लिम लीग ने “डायरेक्ट एक्शन डे”घोषित किया. मुसलमानों से कहा गया कि पाकिस्तान बनाने के लिए डायरेक्ट एक्शन लो. कोलकाता में उस दिन मुस्लिम लीग की रैली हुई जो लाखों की भीड़ में बदली. उन्होंने हिंदुओं व अन्य पहचान वाले लोगों पर हिंसा शुरू की. बंगाल में हुसैन शहीद सुहरावर्दी (मुस्लिम लीग) की सरकार थी. उसने पुलिस को हिंसा रोकने से मना किया. उल्टे ख़ुद कत्लेआम करवाने में सक्रिय रहा. इतना कि उसके लिए अख़बारों की फ्रंटपेज लीड थी "बंगाल का कसाई (The Butcher of Bengal)."
कलकत्ता के अंग्रेजी दैनिक 'द स्टेट्समैन' ने 17 अगस्त, 1946 के अंक में लिखा: “शुरुआती हमले मुसलमान भीड़ द्वारा हिंदुओं पर किए गए. उसके बाद हिंदुओं ने जवाब देना शुरू कर दिया.”
16-19 अगस्त तक “ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स” हुईं. लगभग 4,000 लोग मारे गए. एक लाख से ज्यादा विस्थापित हुए. दो महीने बाद 10 अक्टूबर, 1946 को कोजागरी लक्ष्मी पूजा के दिन नोआखली में दंगे शुरू हुए. हिंसा मुख्यतः मुस्लिम लीग समर्थक स्थानीय नेताओं, गुंडों और उग्र भीड़ ने की. अगले 10 दिन में सैकड़ों गांव जलाए गए, घरों में घुसकर पुरुषों को काटा गया, महिलाओं के साथ अपहरण और बलात्कार, जबरन धर्मांतरण की घटनाएं की गईं. हज़ारों लोग मारे गए.
डायरेक्टर विवेक कलकत्ता और नोआखली की हिंसा पर फोकस करते हैं. जर्नलिज़्म का दस्तूर कहता है कि हिंसा या दंगों में विलेन बहुसंख्यक ही होगा. कलकत्ता में दोनों प्रमुख समुदाय बड़ी संख्या में थे और वहां स्पष्ट था कि पहले किस समुदाय की ओर से हिंसा शुरू हुई. नोआखली में हिंदू अल्पसंख्यक थे. तो बंगाल में "अल्पसंख्यकों" के नरसंहार को वे दिखाते हैं और उनके विलेन मुसलमान होते हैं. ठीक वैसे ही जैसे 2002 के गुजरात दंगों में स्टोरीटेलर्स, फिल्ममेकर्स, जर्नलिस्ट्स के लिए विलेन हिंदू बहुसंख्यक थे. लेकिन एक फर्क यह है कि 2002 को लेकर फिराक़, परज़ानिया, फाइनल सॉल्यूशन, नरभक्षक, राम के नाम जैसी फ़िल्में और डॉक्यूमेंट्रीज़ बनीं. रावलपिंडी-पंजाब (1947) के कत्लेआम का प्रतिनिधित्व गोविंद निहलानी की पांच घंटे की महान टेली-सीरीज़ "तमस" में हो जाता है, जिसमें कोई विलेन नहीं है, कुछ स्वार्थी-राजनीतिक तत्वों को हिंसा का जिम्मेदार ठहराया गया है, जिसमें पंकज कपूर द्वारा निभाया ठेकेदार का पात्र नत्थू (ओम पुरी) से एक सूअर मरवाता है जो कि मस्जिद की सीढ़ियों पर डाल दिया जाता है. उसके बाद माहौल गर्म हो जाता है. लेकिन कलकत्ता किलिंग्स और नोआखली पर कभी कोई फ़िल्म नहीं बनी. "द बंगाल फाइल्स" ऐसा करने वाली पहली फ़िल्म है. ऐसा करते हुए तो फ़िल्म सही और उद्वेलित करने वाली है.
लेकिन फिर कहानी का दूसरा ट्रैक इसके समानांतर मौजूदा भारत के पश्चिम बंगाल में चलता है. जहां मुर्शिदाबाद, मालदा जैसी सांप्रदायिक घटनाओं की तरफ संकेत किया गया है. इस दूसरे वाले ट्रैक में किरदार, घटनाएं काल्पनिक हैं जिनकी प्रेरणा असल घटनाएं हैं पर इनकी एक ख़ास पोलिटिकल-पर्सनल व्याख्या फिल्ममेकर की अपनी है. ये रेखांकित करने वाली बात है.
कहानी शिवा पंडित (दर्शन कुमार) से शुरू होती है. एक विशेष जांच अधिकारी जिसे पश्चिम बंगाल भेजा जाता है. एक दलित लड़की गीता मंडल की किडनैपिंग के केस की जांच करने. शक सरदार हुसैनी पर है जो स्थानीय विधायक है. उसके समर्थकों की भीड़, जो कि संभवतः पूरा ही शहर है, वो सीबीआई के ऑफिस के घेर लेती है और शिवा को पत्थर मारती है. तो इस कश्मीरी पंडित को रात को दुःस्वप्न आते हैं. "रलिब गलिब चलिब" (कन्वर्ट कर लो, भाग जाओ, या मारे जाओ) की आवाजें सुनाई देती है. वो जाग जाता है. मानो यह बंगाल दूसरा कश्मीर है. कश्मीर के पत्थरबाजों की भीड़ यहां भी है. कुछ दृश्यों में कश्मीरी पंडितों की वेदना और पश्चिम बंगाल के हिंदुओं की वेदना साथ साथ चलती है.
स्थानीय पुलिस, जो सरदार हुसैनी से ख़ौफ खाती है और सीबीआई अफसर तक के आदेश नहीं मानती, उन्होंने गीता के केस में भारती बैनर्जी नाम की बुजुर्ग महिला (पल्लवी जोशी) को हिरासत में ले रखा है जो मां भारती की मुखर रूपक है. पल्लवी के हल्के भगवा रंग के कपड़े, तुलसी माला, रुद्राक्ष माला इसे प्रकट करते हैं. वो जिस डरी, बदहवास, विक्षिप्त और उत्पीड़ित अवस्था में है, उससे ये बताने का प्रयास है कि मां भारती की ये हालत कर दी गई है. इसीलिए उसे बचाने शिवा आता है जो भगवान शिव का रूपक है. कहीं इतने में भी दर्शक न समझ सके तो एक सीन है जहां यंग भारती बैनर्जी कलकत्ता की सड़कों पर कत्लेआम के बीच बहादुर सिख पात्र अमरजीत (एकलव्य सूद) को डरते डरते अपना नाम भारती बताती है तो वो यही कहता है - "भारती!! मां भारती की जय हो."
भारती का पात्र-पथ रोचक है. जब वो पहले हिंसा का मार्ग चुनकर आजादी चाहती है, तो एक अंग्रेज जनरल को गोली मार देती है. उसे पूरा यकीन है कि इसी रास्ते से इंकलाब आएगा. लेकिन उसके पिता जस्टिस बैनर्जी (प्रियांशु चैटर्जी) और मां उसे समझाते हैं और सेवाग्राम ले जाते हैं. वहां गांधी उसे समझाते हैं. अब वो अहिंसा के मार्ग पर चल पड़ती है और ताउम्र चलती है. उसके सुंदर कलकत्ता/बंगाल की सड़कों पर ख़ून बह रहा होता है तब अमरजीत उसे कहता है - "ये जंग है. यहां मारना पड़ेगा." लेकिन भारती नहीं मानती. कहती है - "ये जंग है तो सिंबल ऑफ पीस क्यों अपनी बांह पर बांध रखा है. अगर जंग में सबको मारना होता है तो मुझे क्यों बचाया."
इसके कुछ महीने बाद जब ग़ुलाम हुसैनी खुलेआम लोगों को काट रहा होता है और अमर को दो हिस्सों में चीरने जा रहा होता है तब भारती के हाथ में चाकू होता है और वो ग़ुलाम के गले पर होता है. अमर चिल्लाता है कि उसे मार दो. लेकिन वो चाकू नीचे गिरा देती है. गांधी के विचार फिर उसका रास्ता रोक लेते हैं (मानो फ़िल्म कह रही हो, भारत की सभ्यता के हाथों में हथियार थे आक्रांताओं का सामना करने के लिए लेकिन गांधी जैसे विचारों ने भारी गलती करवा दी औऱ हथियार गिरवा दिए. अहिंसा पकड़वा दी.) जीवन के अंतिम वर्षों में, बूढ़ी हो चुकी भारती जब अपने करीब उन्हीं दंगाई, हत्यारों का राज देखती है, अन्याय देखती है तो पछताती है. कहती है - "मुझे ग़ुलाम को मार देना चाहिए था. I was wrong. Gandhi was wrong." यानी हिंसा का मार्ग ही सही था. अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सशस्त्र प्रतिकार का मार्ग ही ठीक था. अपने शत्रु को मारना ही उचित था.
यह डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री का गैर-वस्तुनिष्ठ मनो-आग्रह है. फ़िल्म की मैसेजिंग और विचारधारा ऐसी है जिससे या तो कड़ी और पूर्ण असहमति होगी, या फिर कुछ को सही लगेगी. लेकिन क्राफ्ट के मामले में विवेक अपने करियर-बेस्ट पर इसी फ़िल्म में दिखते हैं. उनके डायरेक्शन को साथ मिलता है कुछ अच्छे एक्टिंग परफॉर्मेंस का. यंग भारती बैनर्जी के नादान और फिर आतंकित मन को सिमरत कौर ने सही से प्रकट किया.
अमरजीत अरोड़ा के रोल में एकलव्य सूद जब फ़िल्म में आते है तो किसी स्थापित एक्टर से लगते हैं. मन रमता है कि वे अब कुछ संभालेंगे, कुछ कर लेंगे, लोगों को मरने से बचा लेंगे.
चौक-बाजार के बीच खड़े होकर भड़काऊ भाषण देने वाले सुहरावर्दी के रोल में मोहन कपूर हैं. इस रोल में खांटी रशियन, हिंदी और बंगाली बोलते हुए वे उस युग में हमें ट्रांसपोर्ट कर देते हैं और मारक लगते हैं.
नमाशी चक्रवर्ती ने लंगड़ाते ग़ुलाम सरवर हुसैनी को खूंखार ढंग से प्ले किया. वे बहुत ज्यादा ड्रामेटाइज नहीं करते, न ही फिजिकल एक्टिंग करते हैं लेकिन अपनी शारीरिकता और कैरेक्टर बैकग्राउंड के चलते वीभत्स, मेनेसिंग लगते हैं. ग़ुलाम को दो तरह के कपड़ों में दिखाया जाता है. एक जिसमें वो हरी फौर्जी वर्दी में दिखता है जिसमें कैप पर उसने पाकिस्तान के इनसिग्निया लगाए होते हैं, पाकिस्तान बनने से पहले ही. उसके कुछ साल बाद वो टर्किश मौलवियों जैसे कपड़े पहनने लगता है.
नमाशी के पिता मिथुन चक्रवर्ती भी फ़िल्म में हैं. उनके किरदार का नाम है - चतुर. लेकिन सब उसे पागल आदमी मानते हैं. वह सड़कों पर घूमता है. कभी पुलिस में था. सच खोजने निकला था, किसी ने जीभ जला दी. अब बोलता है तो साफ सुनाई नहीं देता, क्या बोल रहा है. लंबे समय बात मिथुन ने कुछ नया और रोचक किया. कठिन किरदार का सरल निर्वाह.
विधायक सरदार हुसैनी के रूप में शाश्वत चैटर्जी ("कहानी" का हत्यारा बॉब बिस्वास) प्रभावी हैं. यह पात्र ग़ुलाम सरवर हुसैनी का आधुनिक प्रतीक है. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद और मुस्लिम बहुल इलाकों के मुस्लिम नेताओं का नेगेटिव प्रतीक बनाकर उसे पेश किया गया है. घर में वो किसी भी आम नेशनलिस्ट भारतीय की तरह रहता है. कमरे में टैगोर, गांधी, बंकिमचंद्र, बोस की तस्वीरें लगी है. बंगाल की मशहूर मच्छी रेसिपी खा रहा होता है. घर में टीशर्ट बरमूडा में रहता है. पत्नी भी बुर्के में नहीं आधुनिक महिला की तरह रहती है, वह खुद ये बात कहता है शिवा से, कि तुमने क्या सोचा था कि तुम्हे बुर्के में कोई महिला मिलेगी क्या? वो कहता है कि बाहर जाता हूं तो टोपी पहन लेता हूं. बाकी लोग छह छह टोपियां पहनते हैं लेकिन मेरी सिर्फ एक टोपी है. उसका एक बेटा है. नाम रखा है तैमूर. हुसैनी कहता है - "हमारी पीछे की नस्ल तुर्की के खलीफा से मिलती है... तैमूर को बड़ा होकर पीएम बनना है... 2050 में इंडिया का पहला युवा माइनॉरिटी पीएम बनेगा."
गांधी का रोल अनुपम खेर ने किया है. फ़िल्म का ह्रदयस्थल यही किरदार है. सारी बातचीत इसी इंसान के विचारों और उसके परिणामों को लेकर हो रही होती है. राइटर्स ने एक निर्मम कसौटी पर इस पात्र के अहिंसा के विचारों को कसा है. उनके क्या निष्कर्ष रहे ये फ़िल्म प्रकट करती है.
जब भारती, उसके जज पिता और बैरिस्टर चाचा (दिव्येंदु भट्टाचार्य) सेवाग्राम आश्रम में गांधी से मिलने जाते हैं, तब बंगाल की हालत गंभीर होती है. कत्लेआम की स्थिति बन रही होती है. लेकिन गांधी कहते हैं - "मेरा बकरी का दूध निकालने का टाइम हो गया है. उसके बाद बंगाल पर चर्चा करेंगे." दर्शक सुनकर घिन्न से भरते हैं. कि ये आदमी सीरियस ही नहीं है, लोग मर रहे हैं औऱ ये बकरी का दूध निकालने की बात कर रहा है. Such arrogance! लेकिन फिर रिचर्ड एटनबरो की "गांधी" (1982) को देखें. उसमें वो सीन जब गांधी 1931 के गोलमेज सम्मेलन में भाग लेकर लौट आए हैं. सेवाग्राम में जिन्ना, पटेल, नेहरू के बीच बैठे हैं. गांधी कहते हैं - "अब तो आजादी अपने आप मिलेगी. देखना है कैसे और कब." तब निराशा से भरे नेहरू कहते हैं - "मैं कहता हूं आजादी अभी क्यों नहीं मिल सकती. और कैसे मिलेगी ये भी हम ही क्यों नहीं तय कर सकते." जिन्ना भी हां में हां मिलाते हैं. तभी एक बच्ची सामने से बकरी लिए गुजरती है. कहती है - "बापू ये फिर से लंगड़ा रही है." गांधी कहते हैं - "कोई मोच आई होगी. नदी किनारे ले जाओ, मिट्टी का लेप कर देंगे. मैं भी आता हूं." यह सुनकर नेहरू फ्रस्ट्रेटेड से लगते हैं कि इतनी महती चर्चा के बीच बकरी को ज्यादा महत्व क्यों?
इस फिल्म के कई दर्शकों का गांधी के प्रति एक बायस्ड दृष्टिकोण महसूस किया जा सकता है कि इसी आदमी की वजह से ही ये सब हुआ. कि इन्होंने दंगों में मुसलमानों का साथ दिया और ब्लैकमेल करते हुए हिंदुओं के हाथ बांध दिए. एटनबरो की "गांधी" में ओम पुरी ने एक हिंदु का रोल किया था जो गांधी के अनशन से विवश होकर आता है और आक्रोश व्यक्त करता है कि ये गलत है जो आप हमारे साथ कर रहे हो. वहां गांधी देवता लगते हैं. क्योंकि उस फिल्म में सारा नेरेटिव ही गांधीवाद की परम स्वीकृति में था. "द बेंगॉल फाइल्स" यहां एक बदलाव करती है. वह सड़कों पर हो रहा कत्लेआम पूरी नृशंसता और विचलितता के साथ दिखाती है. इन रूह कंपा देने वाले दृश्यों के बरक्स गांधीवाद एक पर्याप्त उत्तर नहीं बन पाता. एक सीन से समझते हैं.
एक हिंदु कसाई है गोपाल पाठा (सौरव दास, ताकतवर उपस्थिति). उसके नेतृत्व में हिंदू दूसरे धर्म के गुंडों, अपराधी तत्वों के ख़ून-खराबे का जवाब ख़ून बहाकर देते हैं. फिर जब गांधी आमरण अनशन कर देते हैं तो सबको विवश हो जाना पड़ता है. वह कसाई आता है और संवाद करता है - कि हम हथियार डाल देंगे तो हमारी बहनों, मांओं, बेटियों को कौन बचाएगा? इस पर गांधी कहते हैं कि असली साहस अहिंसा के साथ असली संघर्ष में है. यह जवाब उनको यूं प्रतीत होता है कि मारे जा रहे हो तो मर जाओ मगर हथियार न उठाओ. उन्हें यह जवाब घटिया सा लगता है. अहिंसा के नशे में वस्तुनिष्ठता खो चुका जवाब. यह उन सबको घिन्न और चोट से भर जाता है. इस पर गोपाल पाठा कहता है - "मैं नहीं डालूंगा हथियार." और फिर विवेक कुछ चमत्कारिक करते हैं. वह कसाई गांधी के विरोध में होते हुए भी उनके पैरों के हाथ लगाकर आशीर्वाद लेकर जाता है और गांधी आशीर्वाद देते भी हैं. यानी गांधी को विदूषक या घृणित पात्र की तरह फिल्म कतई नहीं दिखाती है. वह पुख्ता तौर पर गांधी के अहिंसा के विचार की घोर आलोचना जरूर करती है. एक सीन है जहां भारती शिवा को राकोस (राक्षस) की कहानी सुनाती है जो जनता के सामने कभी देवता बन जाता है और जब वो देख नहीं रहे होते तो राक्षस बन जाता है. वो कहती है - "दोनों एक ही हैं, यहीं राज़ है." अगले ही फ्रेम में दो लोग बैठे होते हैं - जिन्ना और गांधी. यहां संभवतः फिल्म इन दोनों को ही राकोस इंगित कर रही होती है.
एटनबरो की गांधी उनके गांधीवाद को समझने का प्रयास करती है. अहिंसा के उनके जटिल विचारों को पूरा स्पेस देकर समझती है. फ़िल्म में लाइफ मैगजीन की मार्गरेट बोर्क-वाइट जब उन पर फोटो-स्टोरी करते हुए पूछती हैं - "क्या आपको यकीन है कि अहिंसा हिटलर जैसों के खिलाफ कारगर होगी?" वे कहते हैं - "उसमें हार भी होगी. तकलीफ भी होगी. पर क्या इस जंग में हार नहीं हुई? तकलीफ नहीं हुई? बस इतना ध्यान रहे, अन्याय बर्दाश्त न करना, फिर वो चाहे हिटलर हो या कोई और. तुम सामने खड़ा कर दो बेइंसाफी को. मुस्तैद सिपाही बनकर जान देने के लिए तैयार रहो."
इसी क्रम में विवेक की फ़िल्म में गांधी-गोपाल पाठा के बीच का आर्ग्युमेंट दर्शकों को सबसे ज्यादा उद्वेलित करने की अनिष्टताएं लिए हुए है. कि जब औरतें मारी जा रही हैं, तब वे कह रहे हैं कि इस विकल स्थिति में भी अहिंसा न करने का आत्मद्वंद्व की सबसे बड़ा साहस है.
फिर mkgandhi.org में जाएं तो Crimes Against Women के Women's Honour (हरिजन, 1-3-1942, पृ. 60) हिस्से में वे यह भी कहते हैं कि - "जब किसी स्त्री पर आक्रमण होता है तो वो हिंसा या अहिंसा के बारे में सोचने न बैठे. उसका पहला कर्तव्य आत्मरक्षा है. अपनी इज़्ज़त बचाने के लिए वह हर उस उपाय या साधन का प्रयोग करने को स्वतंत्र है जो उसके मन में आए."
वे कहते हैं - "ईश्वर ने उसे नाखून और दांत दिए हैं. स्त्री पूरे बल से उनका उपयोग करे और आवश्यकता पड़ने पर उसी संघर्ष में प्राण दे दे. जो स्त्री या पुरुष मृत्यु के भय से मुक्त हो जाता है, वही न केवल स्वयं की रक्षा कर सकता है बल्कि अपने जीवन का बलिदान देकर दूसरों की रक्षा भी कर सकता है."
यानी गांधी हिंसक प्रतिकार का संकेत भी देते हैं और न करने का भी. इसी अस्पष्टता में इंटरप्रिटेशन की जगह बनती है. इसी का इस्तेमाल "द बेंगॉल फाइल्स" करती है. वह गांधी के निर्णयों की नाकामी और जो आम जनता इसका कॉलैट्रल डेमेज बनी या उनके अहिंसा के यज्ञ में जिनकी दर्दनाक आहूतियां, बलियां हुईं, उनकी बात करती है. उस चित्र को अपने मन अनुरूप पेंट करती है.
"गांधी" (1982) फ़िल्म में नेहरू का किरदार भी वही कहता है जो विवेक यहां कहते हैं. नेहरू बने रोशन सेठ कहते हैं - "अगर आपकी यही मंशा है (जिन्ना को पीएम बनाने और मुसलमानों को सरकार में सब ऊंचे ओहदे ऑफर करने की) तो हम सब मानेंगे. पर चारों तरफ कौमी दंगे हो रहे हैं. क्योंकि हिंदू समझते हैं कि आप बहुत ज्यादा झुक रहे हैं." फिर पटेल कहते हैं - "अगर आपने यह किया (जिन्ना को पीएम बनाना) तो उनको (हिंदुओं को) कोई नहीं रोक सकेगा."
फिर गांधी का वह पहलू भी है जहां वे जिन्ना से बिलकुल सहमत नहीं होते. वे कहते हैं - "हिंदू मुस्लिम एक हैं." जिन्ना कहते हैं - "नहीं, एक नहीं है." वे ठीक वही कहते हैं जो आसिम मुनीर ने पहलगाम हमले से कुछ दिन पहले पाकिस्तान में कहा था.
जहां तक "द बेंगॉल फाइल्स" में तथ्यात्मकता की बात है तो कलकत्ता में हिंदुओं पर पहले कत्लेआम मुसलमानों ने किया यह एटनबरो की "गांधी" भी स्वीकारती है. विभाजन की प्रक्रिया में हिंसा भड़कती है और अगले दृश्य में गांधी सिर झुकाए बैठे होते हैं. नेहरू कहते हैं - "नोआखली में आपने जो किया बापू, वो चमत्कार ही था. पर करोड़ों लोग बेघर हो गए हैं. और मरने वालों का तो हिसाब ही नहीं है. कलकत्ते में तो जैसे खानाजंगी है. वहां मुसलमान भड़के. उन्होंने मारकाट मचाई. अब हिंदू ले रहे हैं बदला. अब जो हम न रोक पाए तो पाकिस्तान में फंसे सभी हिंदू मारे जाएंगे." इस पर गांधी उठ खड़े होते हैं, कलकत्ते के लिए निकल जाते हैं. वहां वे एक मुसलमान के घर रुकते हैं. एक पक्ष चुन लेते हैं. बाहर खड़ी भीड़ चीखती है - "ख़ून का बदला लो." एक कहता है - "यहां क्यों ठहरे हैं, ये मुसलमान का घर है. यहां सब कातिल हैं, इन्होंने मेरे घरवाले को मारा है." गांधी कुछ नहीं कहते. उनके पास कहने को कुछ नहीं होता. वे बस चाहते हैं कि जो वे चाहते हैं वह हो जाए. जो उनका मार्ग है उसे मान लिया जाए. वे आमरण अनशन शुरू कर देते हैं. फ्रंट पेज हैडलाइन बन जाती है. नेहरू चिढ़ जाते हैं. चार दिन बाद मिलने जाते हैं. कहते हैं - "आपके उपवास का असर दिखा है. लोग आपकी तरफ मुड़े हैं. कल पांच हजार मुसलमान विद्यार्थी कलकत्ते में शांति मोर्चा निकालेंगे, और पांच हजार हिंदू विद्यार्थी उसी मोर्चे में होंगे."
"गांधी" में हिंसा के दृश्यों में मुसलमानों पर होती हिंसा दिखती है लेकिन हिंदुओं पर किया गया कत्लेआम नहीं दिखता मुखर रूप से. काले झंडे लिए हिंदूवादी सगंठन का विलेनस चित्रण है. उनका आक्रोश खारिज किया जाता है. अंत में हिंदू गुटों को हिंसा त्यागने पर विवश होना पड़ता है. वे गांधी के सामने अपने ख़ून से सने हथियार डाल देते हैं. कहते हैं - "हमारी ओर से हिंसा खत्म, ये हमारा वचन है." गांधी कहते हैं - "जाओ. ईश्वर तुम्हारा भला करे." उनके बीच ओमपुरी का किरदार आता है जो "द बेंगॉल फाइल्स" में गोपाल पाठा के समतुल्य है. दोनों में संवाद होता है -
ओमपुरी का पात्र एक रोटी गांधी पर फेंकते हुए कहता है - "ये लो, खाओ! मैं तो नर्क जाऊंगा लेकिन तुम्हारी मौत का पाप नहीं लूंगा अपने सर.
गांधी - ये तो ईश्वर ही जाने कौन नर्क जाएगा.
ओम - मैंने हत्या की है. एक बच्चे का सिर दीवार से दे मारा.
गांधी - क्यों?
ओम - उन्होंने काट डाला. मेरा बच्चा. मुसलमानों ने उसे मार दिया.
गांधी - इस दुःख से बचने का एक उपाय है. एक बच्चा ढूंढो. ऐसा बच्चा जिसके मां बाप की हत्या हुई हो. छोटा सा बच्चा, उसकी परवरिश करो. सिर्फ ये ख़याल रहे कि वो हो मुसलमान. और उसकी वैसी ही परवरिश हो.
ओम का किरदार एक बार के लिए चौंकता है. जाने लगता है. फिर लौटकर आता है. फूट फूट कर रोता और गांधी के पैरों में गिर जाता है.
"गांधी" और "द बेंगॉल फाइल्स" में दो अलग अलग विपरीत चित्रण हैं. एक चीज कॉमन है - गांधी के प्रति इज्जत.
ओम के पात्र का ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और गोपाल पाठा हथियार न तजते हुए भी पैर छूकर जाता है और उसके हिंसा का मार्ग चुनने के बाद भी गांधी हाथ उठाकर आशीर्वाद देते हैं.
"द कश्मीर फाइल्स" (2022) से एक शिकायत यह थी कि उसमें सब मुसलमानों को बुरा ही बताया गया. विवेक की इस फ़िल्म में ऐसा नहीं है. इसमें संभवतः आगा जलील कश्मीरी नाम का पात्र है जिसे राइटर-डायरेक्टर रूमी जाफरी ने प्ले किया. जब जिन्ना भारत छोड़कर जा रहा होता है पाकिस्तान बनने के चंद घंटे पहले, तो हवाई पट्टी पर कुछ लोग मिलने आते हैं. उनमें से एक होता है आगा का किरदार. वह पूछता है - "आपने पाकिस्तान की बात की. लेकिन 4.5 करोड़ मुसलमानों ने भारत में ही रहने का फैसला किया है. आपका उनको क्या मैसेज है?" जिन्ना - "अच्छे सिटीजन बनकर रहें. इंडिया की सेकुलर गवर्नमेंट के अंडर में खुशहाल रहें." इस पर आगा कहते हैं - "तो फिर पार्टीशन की जरूरत क्या थी. मैं आपको बताना चाहता हूं कि मैं लाहौर की चट्टान मैगजीन का एडिटर हूं - आगा जलाल कश्मीरी और मैंने हिंदुस्तान में ही रहने का फैसला लिया है." यह फील-गुड सीन उस आलोचना के खिलाफ खड़ा किया जाता है कि विवेक की यह फिल्म कम्युनल है. इस सीन से लगता है मानो वे भारतीय मुसलमानों के भारतीय होने पर गर्व महसूस करते दिखते हैं. क्योंकि आगा की आखिरी लाइन सुनते हुए जिन्ना का मुंह उतर जाता है. हालांकि ऐसा कोई असल व्यक्ति खोजने से नहीं मिलता. हां, लाहौर स्थित जिस चट्टान मैगजीन की बात हुई है उसके एडिटर आगा शोरिश कश्मीरी थे और उन्होंने भारत के बजाय पाकिस्तान को चुना था.
लेकिन फिर विवेक एक बायस्ड और एक्ट्रीम नजरिया भी रखते हैं. एक सीन में अमर कहता है - "गंदे नदी नाले अगर गंगा मां में मिलकर भी अपना अस्तित्व छोड़ना नहीं चाहते तो उनका इलाज क्या है." हो सकता है ये लाइन हार्मलेस इरादे से कही गई हो लेकिन फिल्म में अमर की टोन से ऐसा नहीं लगता. मानो कि - मुसलमानों को भारत में मिलकर अपना अस्तित्व छोड़ देना होगा, तभी वे स्वीकार्य हैं.
फ़िल्म जहां-जहां मानवीय से पोलिटिकल होती है, वहीं सबसे कमज़ोर होती है. जैसे -
पूरी फिल्म में "we the people of Bharat" बोला जाता है, We the people of India नहीं.
मां भारती के घर से गीता गायब है और संदिग्ध है हुसैनी.
शिवा बंगाल के मीडिया से कहता है - "नहीं, आप मीडिया नहीं हो." फिर वो मास कॉम की पढ़ाई करके निकली एक फ्रैशर को अपने साथ embed होने आने देता है. मानो फिल्ममेकर न्यू मीडिया को साथ लेना चाहता है अपनी विचारधारा, नेरेटिव को कवर करवाने के लिए.
फिल्म बंगाल की पुलिस को भी ट्रस्ट नहीं करती. एक जगह शिवा कहता है - "सबूत तुमने पुलिस को क्यों नहीं दिया?" इस पर वो फ्रैशर पत्रकार लड़की कहती है - "क्या वो पुलिस है भी?"
मुर्शिदाबाद का मुस्लिम एमएलए कहता है - "बंटोगे तो कटोगे." वह डेमोग्राफी बदलवा रहा है. बांग्लादेश से मुसलमानों को ला रहा है. उनके आधार कार्ड बनवा रहा है. अपना वोट बैंक बढ़ा रहा है.
एक पुलिसकर्मी सीबीआई अधिकारी शिवा से कहता है - "ये इंडिया नहीं है. ये पश्चिम बंगाल है. यहां दो संविधान चलते हैं - एक हिंदू का, एक मुसलमान का."
क्राफ्ट फ़िल्म का सबसे प्रशंसनीय पहलू है.
संदर्भों, छवियों, प्रतीकों, संगीत का ख़ूब उपयोग है -- बंगाल का पुनर्जागरण, रबिंद्रनाथ टैगोर, सुभाषचंद्र बोस, विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, मां सारदा, बंकिम चंद्र, गण संगीत, बाऊल संगीत.
जब बंगाल संयुक्त था. शांत था. सुंदर था. तब के रमणीय लैंडस्केप दृश्य आते हैं. पार्वती बाऊल के स्वर में कृष्ण का भजन आता है - "कृष्ण तुमने मुझे पागल कर दिया है (किचुदिन मोने मोने)." अगली बार जब यही भजन आता है तो कलकत्ता की सड़कों पर कत्लेआम हो रहा होता है और भारती लाशों के बीच से बदहवास, आतंकित भाग रही होती है. काली की प्रतिमा जल रही होती है.
फ़िल्म के सेट्स, प्रोडक्शन डिजाइन, म्यूजिक, एडिटिंग उम्दा हैं. बीजीएम अनुपम है. विश्व युद्ध और नाजी यातना पर आधारित फिल्मों के संगीत की याद दिलाने वाला.
1946 के बंगाल को सजीव किया गया है बहुत प्रभावशाली ढंग से. ज्यादातर भारतीय फिल्में पीडियड स्पेसेज को असली लगने वाला नहीं बना पाती हैं. बड़ी बड़ी फिल्में नाकाम रहीं. "द बेंगॉल फाइल्स" इसमें रेयर कामयाबी वाली फिल्म है.
फ़िल्म के एक्शन की ख़ास तारीफ करनी होगी. रक्तपात के दृश्य, वॉयलेंस के दृश्य, लोगों के जलने के दृश्य, काटे जाने, दो टुकड़ों में फाड़ दिए जाने, गोली मारे जाने के दृश्य शार्प और गिरफ्त में लेने वाले हैं. विवेक और उनकी टीम यहां सरप्राइज़ करते हैं.
गली में लाशों पर बैठे, एकदम असली लगते बड़े बड़े गिद्ध न जाने कैसे लाए गए या क्रिएट किए गए हैं. घास बांधकर जिंदा जला दिए जा रहे लोगों के दृश्य टॉप नॉच है. इनमें काफी देर तक वो यूं जलते रहते हैं.
लोमहर्षक दृश्यों से ही दर्शक को हतप्रभ किया जाता है. जलकर राख हो चुके शवों का अंबार दिखता है. कसाईबाड़े में उल्टे टंगे खाल उतरे पशुओं के बराबर ही नरपिशाचों की भीड़ आदमियों को जिंदा हुकों पर टांगती है. बिना किसी ट्रिक के इन सीन्स के कैसे फिल्माया गया, ये हैरानी होती है.
नरपिशाच ग़ुलाम एक स्त्री को गोली मारने के बाद उसके सिर पर जूता रगड़ता है और उसका सिंदूर हटा देता है.
एक सीन में लोगों को जलाने के लिए लकड़ी नहीं बचती. भारती एक लाश को लाई है ठेले पर. शव जलाने वाला कहता है - "न लकड़ी बची है, न जलाने वाले लोग बचे हैं. तुम इसे ठेले पर ही जला दो." फिर पास पड़े तिरंगों से भारती और अमर लाशों को ढकना शुरू करते हैं और अंत में वहां तिरंगे ही तिरंगे बिछे होते हैं और वे दोनों थोड़े खुश होते हैं कि मृतकों को कुछ गरिमा तो दे पाए.
एक सीन है जो विवेक के भीतर बदले डायरेक्टर और क्राफ्टमैन का थोड़ा अंदाजा देता है. वीभत्स हत्यारा ग़ुलाम उस जस्टिस बैनर्जी को अपमानित करता है जिन्होंने कभी उसे बेल दी थी. उनके मुंह को गटर के ढक्कन से कुचलकर ग़ुलाम और अन्य हत्यारे मार देते हैं. रात को एक बच्चा आता है. सड़क पर पड़ा अखबार उठाता है और उनके विकृत हो चुके मुंह को ढक देता है. अख़बार के फ्रंटपेज पर हैडिंग होती है - Calcutta under mob rule.
सिनेमैटोग्राफर अत्तर सिंह सैनी और एक्शन डायरेक्टर परमजीत सिंह के कार्यदलों ने मिलकर मैजिक किया है. राजेंद्र लाल रॉयचौधरी के घर रात को हमले वाला एक्शन पीस हिलाने वाला है. भारतीय सिनेमा के बेस्ट एक्शन दृश्यों में से एक. कलेजा मुंह को लाने वाला सीन.
एक और ऐसा ही सीन है जिसमें सड़क पर कोहराम और कत्लेआम हो रहा है. उसके बीच से भारती भाग रही है. जगह जगह गोलियां चल रही है. लोग मर रहे हैं. बम फूट रहे हैं. यह सीन सिंगल टेक शॉट का आभास देता है. "1917" और "ऑल क्वायट ऑन द वेस्टर्न फ्रंट" के दृश्यों की याद दिलाने वाला.
एक सीन में हत्यारों की भीड़ से बचकर कुछ लोग एक गोदाम में शरण लेते हैं. मौत का ख़ौफ इतना भीषण है और भीड़ इतनी ज्यादा है कि सब एक दूसरे से लिट्रली चिपके हुए. पसीने बह रहे हैं. डर, भूख, प्यास, आतंक. एक पुरुष का पसीना गिरता है. पास खड़े बच्चे को इतनी प्यास लगी है कि वह उन बूंदों को पीता है.
"द बेंगॉल फाइल्स" अपने क्राफ्ट में दमदार है, विचार के स्तर पर विवेचना, अन्वेषण, कसौटी, गहरी बहस के अधीन है.
इस क्रम में जरूर देखें डायरेक्टर अजय भारद्वाज की अद्भुत "रब्बा हुण की करिये."
इस डॉक्युमेंट्री के सबसे अहम पात्र प्रो. करम सिंह चौहान हैं. वे बठिंडा, पंजाब से हैं. वे मुझे देश के सबसे आदर्श व्यक्तियों में से लगते हैं. जैसे हम में से बहुतों ने अपने गांवों में देखें होंगे. मख़मली ज़बान वाले, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, बेहद सहनशील, अनुभवों से समृद्ध, हर किसी के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने वाले. समाज की समग्र भलाई की बात कहने वाले. और उन्हें तक माफ कर देने वाले जो बंटवारे के क़ातिल थे. करम सिंह जी उर्दू के बारे में बात जारी रखते हुए पंजाब के मानसा जिले की बात करते हैं, “कुछ महीने बाद (विभाजन के) मैं मानसा के रेलवे स्टेशन गया. वहां जाकर क्या देखा, कि वहां जो उर्दू में मानसा लिखा हुआ था, वो नाबूद था. बड़ा दुख हुआ. मैंने सोचा, इन्होंने तो जिन्ना साहब को सच्चा कर दिया, जिन्होंने कहा था कि हम आप लोगों के साथ क्या रहें, आप तो हमारी भाषा को भी नहीं रहने देंगे.”
करम सिंह जी बताते हैं कि उनके गांव में कोई स्कूल नहीं था, कोई पढ़ने का उपाय नहीं था, दो कोस दूर स्कूल था. फिर लुधियाना से करम इलाही नाम के एक पटवारी तबादला होकर उनके गांव आए. उनकी पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर उनके कोई बच्चा नहीं था. उनका नाम शम्स-उल-निसा बेग़म चुग़ताई था. उन्होंने उन्हें करमिया कहकर बुलाना, पढ़ाना और स्नेह देना शुरू किया. उन्हीं की बदौलत वे पढ़ पाए. बाद में उन्होंने लाहौर के ओरिएंटल कॉलेज से 1947 में फ़ारसी में एम.ए. की. करम सिंह द्रवित हो कहते हैं, “बीब्बी जी ने मैनूं बड़ा ही मोह दीत्ता, मिसेज करम इलाही पटवारी ने. मैनूं पार्टिशन दा ए बड़ा दुख औन्दा ए. वी मैं एहे जे बंदेया कौळों बिछोड़या गया.”
फिर हम हनीफ मोहम्मद से मिलते हैं. वे अटालां गांव के हैं जो समराला-खन्ना रोड पर स्थित है. अहमदगढ़ के जसविंदर सिंह धालीवाल हैं. ये दोनों विभाजन के वक्त के क़त्ल-ए-आम के चश्मदीद रहे हैं. हनीफ बच्चे थे और उन्होंने वो वक्त भी देखा जब उनके गांव की गली में पैर रखने को जगह नहीं बची थी, बस चारों ओर लाशें और ख़ून था. जसविंदर ने अपनी छत से खड़े होकर सामने से गुजरते शरणार्थियों के काफिले देखे. क़त्ल होते देखे. वो दौर जब मांओं ने अपनी जान बचाने के लिए अपने बच्चे पीछे छोड़ दिए. करम सिंह जी भी उस दौर के नरसंहार के किस्से बताते हैं. ये भी मालूम चलता है कि, वो लोग जिन्होंने निर्दोषों की बेदर्दी से जान ली और बाद में अपनी क़ौम से शाबाशियां पाईं, बहुत बुरी मौत मरे. तड़प-तड़प कर, धीरे-धीरे.
विभाजन के दौर की ये सीधी कहानियां हैं जो इतनी करीब से पहले नहीं सुनाई गईं. ‘उठ गए गवांडो यार, रब्बा हुण की करिये...” वो पंक्ति है जो बींध जाती है. आप पश्चिमी पंजाब के आज के लोगों के मन में तब सरहद खींच उधर कर दिए गए पड़ोसियों, दोस्तों के लिए अपार प्रेम देखते हैं. ये गीत रातों को और स्याह बनाता है, मन करता है बस सुनते रहें. कि, उन्हें याद करने को और रब से शिकायत करने को, मुझसे कोई नहीं छीन सकता.
डॉक्युमेंट्री के आखिर में करम सिंह जी जो कहते हैं, वो हमारी सामूहिक प्रार्थना है. 1947 की मानवीय त्रासदी के प्रति. बर्बरता से, नृशंसता से मार दिए गए दूसरी क़ौम के हमारे ही भाइयों, बहनों, बुजुर्गों, रिश्तेदारों, मनुष्यों से क्षमा-याचना है. उनकी रूहों की शांति के लिए. जिन्होंने क्रूरता की हदें पार की, उनके लिए भी. उनकी रूहों को भी नेक रास्ते लाने के लिए. वे प्रार्थना पढ़ते हैं, हम भी...
“ मज़लूमों, थोड्डा
थोड्डा
इल्ज़ाना देण वाला
अल्ला-पाक़ ए
रहमान-ओ-रहीम ए
ओस ने थोड्डा
होया नुकसान
थ्वानूं देणा ए
ते मैं दुआ करदा हां,
परमात्मा थ्वानूं जन्नत बख़्शे
ओन्ना मूर्खा नूं
ओन्ना पूलयां नूं वी
रब्ब
ओन्ना दीयां रूहां नूं
किसे पले रा पावे
किसे नेक रा पावे
ओन्ना उत्ते तेरी मेहरबानी होवे
इनसान आख़िर नूं
तेरा इ रूप ए
तेरा इ बंदा ए
इनसान ने इनसान उत्ते कहर करेया
जिदे उत्ते इनसान सदा रौंदा रहू
जेड़ा इनसानियत नूं समझदा ए
या अल्ला
तेरी मेहर…”
"द बेंगॉल फाइल्स" स्वयं देखें. एजेंडा से बचें. क्राफ्ट को सराहें. और अपनी स्वस्थ, सुलझी, सच्ची राय बनाएं.
(फ़िल्म 21 नवंबर को Zee5 पर रिलीज हो रही है)
Film: The Bengal Files । Writer-Director: Vivek Agnihotri । Cast: Mithun Chakraborty, Anupam Kher, Pallavi Joshi, Namashi Chakraborty, Darshan Kumar, Simrat Kaur, Eklavya Sood, Saswata Chatterjee, Dibyendu Bhattacharya, Sourav, Das, Mohan Kapur, Priyanshu Chatterjee, Rajesh Khera । Run Time: 3.24 Hours । Release: 21 November, 2025 । Watch at: Zee5 । Rated: A
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