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महान फिल्म 'गांधी' के किस्से, जिसे बनाने के लिए एक अंग्रेज़ ने अपने 20 साल झोंक दिए

वो फिल्म, जिसने नसीरुद्दीन शाह के साथ धोखा कर दिया. कांग्रेस ने जिस फिल्म का समर्थन किया और गांधीवादी उसके खिलाफ हो गए.

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नसीर को स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया गया, पर उनके साथ खेला हो गया.
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यमन
13 अगस्त 2022 (Updated: 13 अगस्त 2022, 12:03 PM IST) कॉमेंट्स
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साल 1983. 11 अप्रैल की तारीख. अमेरिकन टॉक शो होस्ट बॉबी वाइगेंत एक इंटरव्यू ले रही थीं. सामने थे एक ब्रिटिश फिल्म डायरेक्टर. 20 साल से एक फिल्म पर काम कर रहे थे. अब आखिरकार उनकी फिल्म रिलीज़ होने जा रही थी. बॉबी ने उनसे पूछा कि आपने इस फिल्म पर 20 साल तक काम किया. क्या अब लगता है कि इसे रिलीज़ करने का ये सही समय है?
इस पर डायरेक्टर का जवाब था,

शॉर्ट में कहूं तो हां. लेकिन कुछ प्रैक्टिकल कारणों की वजह से मुझे लगता है कि एक उफान आ रहा है. खासतौर पर युवाओं में. एक इच्छा जाग रही है. ये जानने में कि इस दुनिया का क्या होगा, अगर हम अपने फंडामेंटल ऐटिट्यूड में बदलाव नहीं करते तो. एक देश दूसरे देश के साथ कैसे रहेगा. 

ये शख्स थे रिचर्ड एटनबरो. फिल्म डायरेक्टर. जिस फिल्म पर वो 20 साल से काम कर रहे थे, उसका नाम था ‘गांधी’. रिचर्ड मानते थे कि जब ऊर्जावान युवा मौलिक स्तर पर मतभेद से जूझे, जब अनिश्चिताओं से भरा भविष्य आशाहीन लगे, तब ‘गांधी’ की तरफ मुड़े. प्रेरणा ले. एक हाड़-मांस वाले इंसान से, जो अपने आदर्शों पर चला. ‘गांधी’ जैसी फिल्म सिर्फ किसी एक साल या कालखंड में रेलेवेंट नहीं रह सकती. ये आज भी उतनी ही ज़रूरी है जितनी अपनी रिलीज़ के वक्त थी. सारी लोकगाथाओं से परे एक इंसान की कहानी दिखाने के लिए बनी थी. ऐसा इंसान जिसमें खामियां थीं. पूर्ण नहीं था, फिर भी महात्मा बना. 

‘गांधी’ को अक्सर कुछ खास बातों के लिए जाना जाता है. कैसे उसने आठ श्रेणियों में ऑस्कर अवॉर्ड जीता. कैसे फिल्म के लिए बेस्ट कॉस्ट्यूम डिज़ाइन का ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली भानु अथैया ऑस्कर जीतने वाली पहली भारतीय बनीं. कैसे फिल्म के एक सीन ने गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में अपना नाम दर्ज करवा दिया. जहां पहली बार किसी सीन में करीब चार लाख लोग एक साथ नज़र आए. ये वो दौर नहीं था, जब विज़ुअल इफेक्ट्स की मदद से आप लोगों को कॉपी पेस्ट कर सकें. 

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ऑस्कर अवॉर्ड जीतने वाली पहली भारतीय महिला भानु अथैया. 

खैर, ‘गांधी’ सिर्फ इन किस्सों से पहचाने जाने वाली फिल्म नहीं. इसलिए परिचित होंगे फिल्म से जुड़े कुछ सुने, अनसुने और कमसुने किस्सों से. रिचर्ड एटनबरो 20 साल तक अपने सपने को कैसे पाल सके? फिल्म को अपना गांधी कैसे मिला? नसीरुद्दीन शाह के साथ कौन सा धोखा हुआ? कांग्रेस के समर्थन के बावजूद गांधीवादी फिल्म का बहिष्कार क्यों कर रहे थे? ऐसे ही और किस्से जानेंगे. 

# “गांधी को संत की तरह मत दिखाना”

‘गांधी’ फिल्म तीन लोगों को समर्पित की गई. मोतीलाल कोठारी, लुई माउंटबैटन और जवाहरलाल नेहरू. इतिहास के ये तीन किरदार रिचर्ड से कैसे जुड़े, वो भी अपने आप में एक दिलचस्प कहानी है. साल 1962 में रिचर्ड एटनबरो को एक टेलीफोन आया. दूसरी ओर थे मोतीलाल कोठारी. लंदन में रहने वाले एक गुजराती शख्स. ये दोनों लोग एक दूसरे से अनजान थे. फिर भी मोतीलाल ने रिचर्ड से एक रिक्वेस्ट की, कि आप महात्मा गांधी पर एक फिल्म बनाइये. रिचर्ड को बात अज़ीब लगी. फिर भी वो मोतीलाल से मिलने को राज़ी हो गए. मोतीलाल मिलने आए, पर खाली हाथ नहीं. उनके हाथ में थी एक किताब. अमेरिकन राइटर लुई फिशर की गांधी पर लिखी बायोग्राफी. 

richard attenborough
वो एक टेलीफोन कॉल, जिसने ‘गांधी’ की नींव रख दी. 

मोतीलाल व्यक्तिगत रूप से फिशर को जानते थे. उन्होंने फिशर की किताब रिचर्ड को थमा दी. रिचर्ड ने वादा किया कि मैं इसे ज़रूर पढ़ूंगा. वादा पूरा किया भी. इसका नतीजा ये निकला कि वो बेचैन हो उठे. अब वो किसी भी तरह गांधी पर फिल्म बनाना चाहते थे. फिर से मोतीलाल ने सहायता की. उन्होंने रिचर्ड को लुई माउंटबैटन से मिलने को कहा. माउंटबैटन भारत के आखिरी वाइसरॉय थे. जवाहरलाल नेहरू से उनके संबंध भी अच्छे थे. उन्होंने रिचर्ड को सुझाया कि गांधी को नेहरू से बेहतर कोई नहीं जानता. उनसे जाकर मिलो. 1963 में रिचर्ड दिल्ली पहुंच गए. उन्होंने नेहरू को अपना विजन बताया. अप्रूवल मांगा, जो उन्हें मिल गया. बस नेहरू ने उन्हें एक सुझाव दिया. नेहरू ने कहा,

गांधी में तमाम खामियां थीं. रिचर्ड, हमें वो दो. वही किसी इंसान की महानता की पहचान है. 

रिचर्ड अपने इंटरव्यूज़ में एक और बात अनेक बार दोहरा चुके हैं. जो उनके ज़ेहन में बस गई. रिचर्ड चाय पर नेहरू से मिलने गए. बातचीत हुई. नहीं जानते थे कि ये उनकी नेहरू से आखिरी मुलाकात होगी. वो बाहर निकले. टैक्सी ढूंढने के लिए. तभी पीछे से नेहरू सीढ़ियां उतरते हुए आए. रिचर्ड से कहा,

रिचर्ड, एक और बात. तुम्हारी फिल्म में उन्हें ईश्वर की तरह मत दिखाना. हमने यहां उनके साथ यही किया है. वो ईश्वर बनाए जाने के लिहाज़ से बहुत महान इंसान थे. 

27 मई, 1964 को जवाहरलाल नेहरू का निधन हो गया. ‘गांधी’ फिल्म बनाने की उम्मीदें भी ठंडे बस्ते की ओर जाती दिखने लगी. 

# “कोई इंसान गांधी नहीं बन सकता”

जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु के बाद लंबे समय तक ‘गांधी’ पर कोई अपडेट नहीं आया. रिचर्ड अपना खर्चा निकालने के लिए एक्टिंग रोल्स को हां करने लगे. फिर भी ‘गांधी’ बनाने का ख्याल उनके मन में था. बीच-बीच में खबर सुनने को मिलती कि ‘लॉरेंस ऑफ अरेबिया’ बनाने वाले डेविड लीन ‘गांधी’ पर फिल्म बना सकते हैं. लेकिन ये बातें हवा-हवाई ही साबित हुई. रिचर्ड के जीवन और करियर का दूसरा दशक आ चुका था. ‘गांधी’ बनाने की इच्छा उतनी ही प्रबल थी. वो स्टूडियोज़ से मिलने लगे. फिल्म का बजट जमा करने के लिए. रिचर्ड लोकेशन पर जाकर फिल्म शूट करना चाहते थे. इसलिए मोटा खर्चा आना था. 

फिल्म के लिए प्रोड्यूसर मिल तो गए लेकिन फिर भी बजट पूरा नहीं हो रहा था. ऐसे में रिचर्ड ने भारत सरकार से मदद मांगने की सोची. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे. इंदिरा जानती थीं कि रिचर्ड नेहरू से अप्रूवल ले चुके हैं. ऐसे में उन्हें भी कोई आपत्ति नहीं थी. इंदिरा ने बल्कि एक कदम आगे जाकर रिचर्ड की मदद की. तय हुआ कि नैशनल फिल्म डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया यानी NFDC ‘गांधी’ के बजट का एक तिहाई हिस्सा लोन के रूप में देगी. उस वक्त ये रकम थी करीब सात मिलियन डॉलर. उस समय के हिसाब से करीब सात करोड़ रुपए. 

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गांधीवादियों ने ही फिल्म का विरोध किया.  

इंदिरा सरकार के इस फैसले की कड़ी आलोचना हुई. सबसे पहला विरोध जताया गांधीवादियों ने. ‘गांधी’ की मेकिंग पर एक आर्काइव वीडियो है. जहां रिचर्ड बताते हैं कि गांधीवादी नहीं चाहते थे कि महात्मा गांधी पर फिल्म बनाई जाए. फिल्म के विरोध में चिट्ठियां लिखी गईं. एक चिट्ठी में लिखा गया कि कोई इंसान गांधी नहीं बन सकता. अगर आपको फिल्म बनानी है तो उनके किरदार को रोशनी के रूप में दिखा सकते हो. देखते ही देखते ये फिल्म संसद में बहस का मुद्दा बन गई. फिल्म की मंशा पर सवाल उठे. सरकार से पूछा गया कि आप क्यों खर्च उठा रहे हैं. 

न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट में ज़िक्र मिलता है कि पेट्रियट नाम के लेफ्ट विंग अखबार को गुस्साई जनता ने चिट्ठियां भेजी. लिखा कि ब्रिटेन और अमेरिका हमारे खिलाफ साज़िश रच रहे हैं. ताकि हमारे कल्चर को लूटकर मुनाफा कमा सके. उन्होंने ठीक ऐसा ही हमारे बाघों की चमड़ी और हाथी दांत के साथ भी किया था. ‘गांधी’ को लेकर रोष सिर्फ गांधीवादियों और नेताओं तक सीमित नहीं था. मुज़फ्फ़र अली, बासु चैटर्जी, गिरीश कर्नाड़ और सईद मिर्ज़ा समेत 20 दिग्गज इंडियन डायरेक्टर्स ने सूचना और प्रसारण मंत्रालय को चिट्ठी लिखी. जहां उन्होंने सरकार के फिल्म पर पैसे लगाने के फैसले की आलोचना की. 

मामला सिर्फ चिट्ठियों तक नहीं रहा. कोर्ट तक भी पहुंचा. बॉम्बे हाई कोर्ट में रिचर्ड के खिलाफ याचिका दायर की गई. हालांकि, उसका नतीजा रिचर्ड के पक्ष में ही आया. तमाम विरोध के बावजूद उन्हें भारतीय सरकार से हरी झंडी मिल चुकी थी. अपने विरोधियों को सरकार ने बस एक लाइन का जवाब दिया. अगर किसी अंग्रेज़ के गांधी पर फिल्म बनाने से आपत्ति है तो हमने अब तक उन पर कोई भी फिल्म क्यों नहीं बनाई.  

# “किसी भारतीय को गांधी नहीं बना सकते”

रॉयल शेक्सपियर कंपनी. ब्रिटेन की सबसे बड़ी और पुरानी थिएटर कंपनियों में से एक. किसी शाम को उनका एक प्ले चल रहा था. शेक्सपियर का ‘हैम्लेट’. कलाकार अपना काम कर रहे थे. सामने बैठी भीड़ उन्हें देख रही थी. उसी भीड़ में बैठा था एक लड़का. नाम था माइकल एटनबरो. माइकल जानते थे कि उनके पिता रिचर्ड ‘गांधी’ फिल्म के लिए अपना नायक खोज रहे थे. किसी गोरे एक्टर को वो गांधी नहीं बनाना चाहते थे. भारतीय एक्टर को लेने में भी मसला था, कि उसके नाम पर विदेशी जनता फिल्म नहीं खरीदेगी. 

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‘हैम्लेट’ में अभिनय करते बेन किंग्सले (बाएं). 

माइकल को अपने पिता की समस्या हल होती दिख रही थी. सामने स्टेज पर एक एक्टर था. माइकल ने उसका नाम पता किया. घर पहुंचे. अपने पिता को उस थिएटर एक्टर के बारे में बताया. कुछ दिन बीते. उधर माइकल और रिचर्ड की बातचीत से अनजान वो एक्टर एक और प्ले कर रहा था. प्ले का नाम था ‘निकोलस निकलबाय’. आठ घंटे का प्ले था. चार-चार घंटों के दो पार्ट्स में बंटा. पहला पार्ट खत्म होने के बाद ये एक्टर बैकस्टेज आया. अपना मेकअप उतारने लगा. तभी डोरमैन ने उसका नाम पुकारा,

बेन किंग्सले टू द डोर प्लीज़. 

बेन स्टेज पर ही खप चुके थे. ऊपर से डोरमैन बार-बार बुला रहा था. बेन बिल्कुल भी उससे पूछने के मूड में नहीं थे कि हुआ क्या है. फिर भी झुंझलाहट में पहुंचे. डोरमैन ने बताया कि आपके लिए एक टेलीफोन आया है. बेन ने टेलीफोन का रिसीवर उठाया. दूसरी ओर से एक गहरी आवाज़ सुनाई दी,

हैलो बेन, मैं रिचर्ड एटनबरो हूं. मैंने आखिरकार अपनी फिल्म ‘गांधी’ के लिए पैसा जुटा लिया है. मेरे बेटे ने तुम्हारा प्ले ‘हैम्लेट’ देखा और कहा कि तुम गांधी के रोल में फिट बैठोगे. 

कट की आवाज़ के साथ दोनों तरफ रिसीवर रखे जा चुके थे. बेन वापस बैकस्टेज लौट आए. मेकअप किया और प्ले का दूसरा पार्ट परफॉर्म करने स्टेज पर पहुंच गए. दिल में उत्साह उमड़ रहा था. उसे दबाया. प्ले पूरा किया.

# जब नसीर के साथ धोखा हो गया 

सेवंटीज़ में रिचर्ड के इंडिया दौरे बढ़ते जा रहे थे. उस समय खबरें चल रही थीं कि वो लीड एक्टर ढूंढ रहे हैं. चूंकि ये एक इंटरनेशनल प्रोजेक्ट था और देश-विदेश की दुनिया देखेगी, यही सोचकर नसीरुद्दीन शाह उनसे मिले. नसीर को स्क्रीन टेस्ट के लिए लंदन बुलाया गया. उधर इंडियन प्रेस में सुर्खियां गरम हो गईं. कोई भारतीय एक्टर ही गांधी बनेगा. नसीर का टेस्ट हुआ. बस उन्हें कभी फाइनल नहीं किया गया. या उन्हें कभी फाइनल ही नहीं किया जाना था. 

नसीर अपने संस्मरण ‘एंड देन वन डे’ में लिखते हैं कि बेन को पहले ही फाइनल किया जा चुका था. उन्हें लंदन स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाने का सिर्फ एक ही कारण था. इंडियन मीडिया में खबरें चलती रहें कि कोई भारतीय एक्टर ही गांधी बनने वाला है. रिचर्ड की फिल्म को गांधी के देश में विरोध नहीं झेलना पड़े. ये उन्हें देर से समझ आया. हालांकि, फिल्म में न चुने जाने का उन्हें कोई मलाल नहीं. वो मानते हैं कि उस दौर में वो बेन जितने मंझे हुए एक्टर नहीं थे.   

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‘गांधी’ फिल्म के एक सीन में बेन और रोहिणीहट्टंगडी. 

नसीर तो फिल्म से नहीं जुड़ सके पर उनके दोस्त को ‘गांधी’ में रोल ज़रूर मिला. रिचर्ड एटनबरो ने गोविंद निहलानी के निर्देशन में बनी ‘आक्रोश’ देखी. वो ओम पुरी को किसी भी तरह अपनी फिल्म में यूज़ करना चाहते थे. ‘गांधी’ में ओम पुरी के लिए कोई बड़ा रोल नहीं था. इसलिए उन्हें एक छोटा किरदार मिला. हालांकि, उनका सीन फिल्म के ख़ास सीन्स में से एक था. ओम पुरी अपने एक इंटरव्यू में बताते हैं कि ‘गांधी’ तक उन्होंने ज़्यादा काम नहीं किया था. उस लिहाज़ से ये फिल्म उनके करियर की टर्निंग पॉइंट रही.     

जब नसीर को स्क्रीन टेस्ट के लिए बुलाया गया था, उस वक्त उनके साथ एक और भारतीय एक्ट्रेस थीं. रिचर्ड ने नसीर और स्मिता पाटिल का टेस्ट साथ में लिया. ये देखने के लिए कि वो दोनों मोहनदास गांधी और कस्तूरबा गांधी के लुक में कैसे लगते हैं. जिस तरह गुप्त रूप से बेन फाइनल हो चुके थे, ठीक उसी तरह रिचर्ड ने कस्तूरबा को भी चुन लिया था. दरअसल, ‘गांधी’ की कास्टिंग का काम देख रही थीं डॉली ठाकुर. जो खुद एक थिएटर अदाकारा थीं. कस्तूरबा के लिए डॉली के दिमाग में एक कमाल की थिएटर एक्ट्रेस थीं. रोहिणी हट्टंगडी मराठी थिएटर में लगातार एक्टिव रहतीं. डॉली उनके काम से भी वाकिफ थीं. उन्होंने रोहिणी को कास्टिंग के बारे में बताया. 

रोहिणी रिचर्ड से मिलीं. फिल्म का ज़िक्र तक नहीं छेड़ा. रंगमच, अभिनय की कला जैसे विषयों पर गहन चर्चा हुई. रिचर्ड विदा लेकर चले गए. अगले दिन डॉली ने रोहिणी को फोन किया. बताया कि ‘गांधी’ के लिए उन्हें फाइनल कर लिया गया है. पहली फ्लाइट से उन्हें लंदन पहुंचना होगा. ताकि जल्दी से शूटिंग शुरू हो सके. 

# “यह गांधी की नहीं, मेरी आवाज़ है”

बेन किंग्सले के पूर्वज़ भारतीय थे. उनके परिवार की जड़ें गुजरात से जुड़ी थीं. बस बेन अपनी विरासत से दूर थे. उसी विरासत की अब उन्हें ज़रूरत पड़ने वाली थी. भारत की धरती पर कदम रखते ही वो समझ गए कि बहुत मेहनत करनी पड़ेगी. सिर्फ गांधी की नकल कर के पूरी तरह गांधी नहीं कहलाएंगे. उन्हें गांधी बनना पड़ेगा. इसकी शुरुआत उन्होंने वजन घटाने से की. मछली खाने के शौकीन बेन अचानक से सात्विक भोजन पर उतर आए. धूप में अपनी त्वचा को तपाया. रंग गाढ़ा किया.    

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बेन ने अपने किरदार के लिए चर्खा चलाना सीखा और कपड़े भी बनाये. 

रिचर्ड से महात्मा गांधी की न्यूज़ फुटेज मंगवाई. ताकि उनके हावभाव समझ सकें. एक सिनेमाघर बुक किया. पांच घंटे की ये फुटेज देखी. पूरी फुटेज देखने के बाद बेन को एहसास हुआ कि ये असंभव है. वो गांधी नहीं बन सकते. बेन भले ही पूरी तरह गांधी नहीं बन सकते थे, लेकिन वो अपनी एक खासियत से वाकिफ थे. वो किसी को भी देखकर उसकी हूबहू नकल कर लेते थे. बचपन में अपने स्कूल के दोस्तों का ऐसे ही मनोरंजन करते. उन्होंने गांधी को जिस हद तक मुमकिन हो, खुद में उतारने की कोशिश की. 

किरदार की तैयारी ज़ोरों पर चल रही थी. इसी बीच वो एक दिन साइमन के पास पहुंचे. साइमन उस फिल्म पर बतौर साउंड इंजीनियर काम कर रहे थे. बेन ने साइमन को एक ऑडियो सुनाया. साइमन ने शांति से उस ऑडियो को सुना. पूरा होने के बाद बेन की तरफ मुड़े. कहा कि मैंने गांधी की इतनी साफ आवाज़ आज तक नहीं सुनी. बेन ने जवाब दिया,

साइमन, ये गांधी की नहीं, मेरी आवाज़ है. 

# भीड़ मुंह पर फूल मारकर परेशान करने लगी 

‘गांधी’ की शूटिंग पूरी होने को आई. आखिरी सीन शूट होना था. जहां महात्मा गांधी का अंतिम संस्कार होने वाला है. रिचर्ड सीन को वास्तविकता के करीब रखना चाहते थे. भारी तादाद में भीड़ जुटाई गई. करीब चार लाख एक्स्ट्रा सेट पर थे. महात्मा गांधी के शव के रूप में डमी को इस्तेमाल किया गया. बेन रिचर्ड के साथ कैमरे के पीछे खड़े थे. कफन में लिपटी डमी को देखकर रिचर्ड को अच्छा नहीं लगा. फ़ील नहीं आ रही थी. इसलिए उन्होंने बेन को ही जाकर लेटने को कहा. 

थोड़ी ही देर बाद बेन आंखें मूंदकर लेटे थे. उनके इर्द-गिर्द लोगों की भीड़ थी. किसी बड़े जलाशय की लहरों के समान. दोनों को ही गिना नहीं जा सकता. आंख बंद किए बेन लेटे हुए थे. तभी उन्हें चेहरे पर कुछ महसूस हुआ. गुलाब की कलियां उनके चेहरे पर आकर लग रही थीं. वो भी लगातार. उनके बगल में चल रही भीड़ ऐसा जानबूझकर कर रही थी. ताकि बेन परेशान हों, आंखें खोलें, गुस्सा हों, और सीन खराब हो जाए. लेकिन बेन ने इनमें से कुछ भी नहीं किया. 

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फिल्म का वो सीन जिसने रिकॉर्ड बना दिया.  

वो जस-के-तस लेटे रहें. बेन अपने इंटरव्यू में बताते हैं कि कुछ समय बाद चेहरे पर फूल पड़ना बंद हो गए. उनकी जगह चेहरे को गुलाब की पंखुड़ियां छू रही थीं. भीड़ ने उन्हें परेशान करना बंद कर दिया. वो उसकी जगह गाने लगे. थोड़ी देर के बाद ये गाना रोने में तब्दील हो गया. भीड़ ने कुछ और कदम चले और सन्नाटा पसर गया. बेन बताते हैं कि उस वक्त उन्हें सिर्फ पुलिसवालों के जूतों की आवाज़ सुनाई दे रही थी. उन्होंने सेट पर असिस्टेंट से पूछा कि हमारे आसपास कितने लोग हैं. जवाब आया कि 80,000. असिस्टेंट ने बताया कि इतने लोग तो सिर्फ हमारे वाले हिस्से में हैं. कुल संख्या तो चार लाख तक जाती है. बेन हैरान थे. चार लाख लोग थे. लेकिन आवाज़ सिर्फ पुलिसवालों के जूतों की आ रही थी. शायद यही उनका गांधी से जुड़ाव था. किसी हद तक रिचर्ड एटनबरो अपनी कोशिश में सार्थक हो चुके थे..        

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