हक़ : ओ स्त्री, तुम सही हो (Haq Movie Review)
इस बड़े जटिल विषय पर क्लियर, क्लीन, अराजनीतिक, पूर्वाग्रहरहित फ़िल्म बना पाना लगभग नामुमकिन सा था. Haq Movie के साथ director Suparn Verma की ये कोशिश कैसी रही है? Yami Gautam Dhar और Emraan Hashmi की एक्टिंग ने कैसा रिएक्शन पैदा किया? जाने ये और एक क्विक विवेचना हमारे इस Haq Movie Review में.

Rating: 3.5 / 5 Stars
1991 में डायरेक्टर ब्रायन गिलबर्ट की फिल्म आई थी - “नॉट विदाउट माय डॉटर.” जीवन में देखी सबसे यादगार फिल्मों में से एक. एक अमेरिकी महिला बेट्टी की कहानी. सच्ची घटना पर आधारित.
उसे और उसकी बेटी को उसका ईरानी पति महमूदी किसी पारिवारिक काम से ईरान लेकर जाता है. लेकिन वहां जाकर वो बदल जाता है. उसके रिश्तेदार बेट्टी पर अपने धर्म की कट्टरता थोपने लगते हैं और उसकी ऑक्सीजन, उसके पश्चिमी मूल्यों को खारिज कर देते हैं. उसे बंधक सा बना लेते हैं. चीजें हद पार कर जाती हैं. अब उसके पास वहां से भागने के अलावा कोई चारा नहीं बचता. एक असंभव सा लक्ष्य.
वो अपनी बेटी को लेकर वहां से कैसे निकलती है या नहीं निकल पाती है ये अंत में दिखता है. कट्टरता के तले महिलाओं की घुटन क्या होती है, वो ख़ौफ क्या होता है, उसे “नॉट विदाउट माय डॉटर” से अच्छा किसी फिल्म ने नहीं दिखाया. 1979 में तेहरान में अमेरिकी दूतावास में फंसे लोगों को बचाने के सीआईए के मिशन पर बनी, बेन एफ्लेक की थ्रिलर “अर्गो” में भी वही भय निर्मित हुआ.
एक आलोचना हो सकती है कि ये फ़िल्में तो वेस्टर्न गेज़ यानी पश्चिमी सभ्यता की दृष्टि से बनी थीं. पर यह भी सच है कि मूल मानवीय मूल्यों के लिहाज से कहीं गलत भी न थीं.
इसी कड़ी में आती है डायरेक्टर सुपर्ण वर्मा की हिंदी फिल्म - “हक़.” जैसा कि फिल्म में शाज़िया बानो (यामी गौतम) का किरदार सुप्रीम कोर्ट में खड़ा होकर कहता है कि पिछड़ों में भी जो सबसे पिछड़ा है वो महिलाएं हैं, तो ये फ़िल्म उन्हीं की बात करती है. इस्लाम के संदर्भ में और ख़ासकर भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में. ये सवाल करती है कि भारत के संविधान में अन्य महिलाओं की तरह मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए क्या जगह है.
कहानी है शाज़िया बानो की जिसे उसका एक नामी वकील पति (इमरान हाशमी) तीन बार तलाक बोलकर बाहर कर देता है. बच्चों और पत्नी को गुजारा भत्ता देने से मना कर देता है. दूसरी शादी वो कर ही चुका होता है. ऐसे में शाज़िया कोर्ट जाती है. उसका पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता है. हुक्का पानी बंद हो जाता है. बरसों की लड़ाई लड़ने के बाद उसे उसका हक़ मिलता है कि नहीं, ये फिल्म बताती है. मूलतः 1985 के शाह बानो केस पर बेस्ड ये फ़िल्म कुछ सिनेमाई लिबर्टी लेती है और उस मसले की मूल भावना को लार्जर गुड में इस्तेमाल करने की कोशिश करती है.
“हक़” एक बेहद सुंदर फिल्म है. मस्ट वॉच है. फिल्म उस तनावयुक्त वायुमंडल को निर्मित करने में सफल रहती है जिसमें शाज़िया का किरदार घुट-घुटकर रहता है. उन पलों में कम्फर्टेबल दर्शक भी नहीं रह पाता है. फिल्म में ऐसा पल जरूर आता है जब ये आपका एक आंसू तो चुरा ही लेती है.
ये फिल्म समाज की निडर, प्रगतिशील महिलाओं को समर्पित है जिन्होंने सामाजिक बहिष्कार, हिंसा, धमकियों, जिल्लतों और सबसे लड़ते हुए गलत और अन्याय के खिलाफ खड़े होने का फैसला किया.
भारत में ये शृंखला शाह बानो से शुरू होती है और अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस रूथ गिन्सबर्ग तक जाती है जिन्होंने अपने फैसलों से महिला अधिकारों और मानव अधिकारों को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया था. जिन पर नायाब डॉक्यूमेंट्री "RBG" बनी.
“हक़” की राइटिंग और एक्टिंग परफॉर्मेंसेज इसकी जान हैं. रेशू नाथ के लिखे निपुण मोनोलॉग्स के जरिए इमरान हाशमी मुस्लिम नज़रिए और यामी गौतम स्त्री नज़रिए को बगैर किसी पूर्वाग्रह या आवेश के तार्किक रूप से व्यक्त कर जाते हैं.
बहुत दिन बाद मुख्यधारा की हिंदी फिल्मों में इतने अच्छे डायलॉग्स और तर्क सुनने को मिले. हाल ही में “जॉली एलएलबी 3” में भी कुछ हद तक ऐसे सार्थक संवाद थे.
एक सीन में जब शाज़िया, पति अहमद खान के दोगलेपन का रास्ता रोकती है तो वो कहता है - Behave your age. यानी अपनी उम्र का लिहाज़ करो. जबकि ख़ुद पत्नी से बड़ी उम्र का है और अपनी ज़िम्मेदारियों को ताक पर रखकर अपनी पहली शादी से भी पहले की प्रेमिका से शादी करके आया है. वो भी पत्नी को धोखा देकर और झूठ बोलकर.
एक सीन में इमरान का पात्र पत्नी से कहता है - “अच्छी मुसलमान होती तो ऐसा नहीं करती (घर की बात कोर्ट में लाकर मज़हब को यूं बदनाम नहीं करती).” इस पर यामी की पात्र शार्प ढंग से रिप्लाई करती हैं - "जो शराब पीता है, सूद रखता है, पांच वक्त की नमाज़ पढ़ना तो दूर, जुमे की नमाज के लिए भी मुझे कहना पड़ता है. तो आप मजहब की बात छोड़ ही दें."
जब वह शाज़िया के आगे कुछ नोट फेंकते हुए तलाक तलाक तलाक बोलता है तो सिर पर हथौड़ा सा बजता है. चक्कर श़ाजिया को ही नहीं आते, हमें भी आते हैं. ये इफेक्ट म्यूजिक, डायरेक्शन, एडिटिंग की बदौलत निर्मित होता है.
ये यामी का करियर बेस्ट परफॉर्मेंस है. एक चीज जो उनके काम में रेखांकित होती है वह है कैरेक्टर के सच को ईमानदारी से पकड़े रहना. वे ऐसी महिलाओं की व्यथा को बख़ूबी महसूस करवा जाती हैं. वहीं, इमरान हाशमी न तो अपने किरदार को शैतानी होने देते हैं और न ही पाक़-साफ़ साबित करते हैं. वे संयत रहते हैं. उनके यादगार निर्वाहों में से एक.
फ़िल्म को लेकर एक संशय यह रहा कि अपने मिजाज में ये पोलिटिकली कितनी बायस्ड होगी. तो उस लिहाज से फ़िल्म सत्यनिष्ठ रहने का प्रयास करती है. वो पॉलिटिक्स से जितना दूर रह सकती है, उतना रहती है. न तो इसमें कोई हीरो है, न कोई विलेन है. ये मुसलमानों को डीमनाइज नहीं करती, ग्रेसफुली दिखाती है. सिर्फ धर्म के रुढ़िवादियों की आलोचना करती है, लेकिन उसमें भी कम से कम ही.
यहां शाज़िया के विरले पिता (दानिश हुसैन) की एक बात याद आती है कि - दुनिया का सबसे आसान काम है घर चलाना. मुश्किल होता है हक पर चलना. सच पर चलना.
फिल्म बस यही करती है. ये एक मस्ट वॉच फिल्म है. ख़ासकर महिलाओं, लड़कियों के लिए. इंडिया सिनेमा की सबसे प्रगतिशील फिल्मों में से एक.
Film: HAQ । Director: Suparn Verma । Screenplay, Dialogues: Reshu Nath । Cast: Yami Gautam Dhar, Emraan Hashmi, Sheeba Chaddha, Danish Husain । Run Time: 134 minutes । Watch at: Cinemas (Released on 07th November, 2025)
वीडियो: कैसी है नीरज घेवान की फिल्म 'होमबाउंड'?


