फिल्म रिव्यू- कुली
कैसी है रजनीकांत और लोकेश कनगराज की पहली फिल्म 'कुली', जानिए ये रिव्यू पढ़कर.

फिल्म- कुली
डायरेक्टर- लोकेश कनगराज
एक्टर्स- रजनीकांत, सौबिन शाहिर, नागार्जुन, श्रुति हासन, सत्यराज, उपेंद्र
रेटिंग- 2.5 स्टार्स
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थलपति विजय अपने करियर के पीक पर थे. तब नेलसन दिलीपकुमार ने उन्हें लेकर 'बीस्ट' बनाई. 'बीस्ट' विजय के लेवल की हिट नहीं हुई. उसके बाद नेलसन ने रजनीकांत को लेकर 'जेलर' डायरेक्ट की. 'जेलर', रजनी के 50 साल लंबे करियर की सबसे बड़ी हिट बनी. लोकेश कनगराज ने कमल हासन को लेकर 'विक्रम' बनाई. जो कि कमल के करियर की सबसे बड़ी हिट साबित हुई. अब उन्हीं लोकेश ने रजनी को लेकर 'कुली' बनाई है. जिसके अनाउंसमेंट के बाद देशभर में खलबली थी. क्योंकि अपनी-अपनी विधा के दो धुरंधर साथ आ रहे थे. उम्मीदें चरम पर थीं. मगर 'कुली' उस तरह की फिल्म बनकर नहीं निकल सकी, जैसी 'विक्रम' थी. या यूं कहें कि ये लोकेश के करियर की सबसे कमज़ोर फिल्म है. ये कंपैरिजन इसलिए ताकि सनद रहे कि अब तक कोई भी फिल्ममेकर हिट फिल्मों का फॉरमूला क्रैक नहीं कर पाया है. अच्छी फिल्म बनाने पर आपका कंट्रोल हो सकता है. हिट फिल्म बनाने पर नहीं. 'कुली', इन दोनों ही कसौटियों पर खरी नहीं उतरती.
लोकेश कनगराज की खासियत ये है कि वो अपनी तरह का सिनेमा बनाते हैं. रजनीकांत अपने आप में जॉनर हैं. मगर लोकेश, रजनीकांत ब्रांड ऑफ सिनेमा बनाना चाहते थे. सबसे भारी मिस्टेक यहीं हो गई. 'कुली' न रजनी की फिल्म बन सकी, न लोकेश की. दूसरी दिक्कत इस फिल्म के साथ रही कि इसे जबरदस्ती पैन-इंडिया बनाने की कोशिश की गई. इस कड़ी में देशभर की इंडस्ट्री से एक्टर्स कास्ट किए गए. तमिल सिनेमा से रजनीकांत, तेलुगु सिनेमा से नागार्जुन, कन्नड़ा सिनेमा से उपेंद्र, मलयालम सिनेमा से सौबिन शाहिर और हिंदी सिनेमा से आमिर खान. मगर इंट्रेस्टिंग बात ये कि रजनीकांत के फैन्स के अलावा ये फिल्म किसी को अपील नहीं करती.
'कुली' की कहानी इतनी जटिल और कंफ्यूज़िंग है कि उसे लोकेश खुद सही से नहीं बता पाए. मगर हम आपको एक बेसिक आउटलाइन दे देते हैं. एक उम्रदराज़ आदमी है. जो अपने वॉयलेंट पास्ट से जैसे-तैसे बाहर आया है. मगर उसके एक करीबी की हत्या हो जाती है. जिसकी वजह से उसे अपने पुराने अवतार में लौटना पड़ता है. उस मौत का बदला लेने के लिए उसे एक क्राइम सिंडिकेट को खत्म करना है. यही 'विक्रम' की कहानी है. माफ कीजिएगा, ये 'कुली' की कहानी है. 'विक्रम' में जो रोल कमल हासन ने किया था, इस फिल्म में वो रोल रजनीकांत ने किया है. मगर रजनीकांत को उस तरह से प्रेज़ेंट नहीं किया गया है, जो प्रेज़ेंटेशन कमल के हिस्से आया था. न ही 'कुली' उतनी मनोरंजक या फन फिल्म बन पाती है. पूरे टाइम फिल्म बड़ी हेवी और लोडेड लगती है. मगर अंत में लगता है कि वो सब सिर्फ वहम था. उतना सीरियस यहां कुछ है ही नहीं.
लोकेश किसी कहानी को नए नज़रिए से देखने के लिए जाने जाते हैं. कुछ नया ट्राय करने वाला फिल्ममेकर. मगर इस दफे वो ट्राइड एंड टेस्टेड फॉरमूले की ओर गए. क्योंकि उन पर रजनीकांत के स्टारडम को जस्टिफाई करने का प्रेशर था. मगर ऐसा करने में वो कॉन्फिडेंट नहीं दिखते. ये चीज़ फिल्म में साफ तौर पर नज़र आती है. जबकि रजनीकांत ने ये फिल्म इसलिए की क्योंकि वो लोकेश कनगराज स्टाइल सिनेमा करना चाहते थे. इस फेर में हुआ ये कि न माया मिली, न राम!
'कुली' एक सीधी सपाट कहानी हो सकती थी. जो शायद उससे बेहतर और एंटरटेनिंग होती, जो 'कुली' है. मगर इस फिल्म में इतने सब-प्लॉट्स, बैकस्टोरी और फ्लैशबैक्स हैं कि पिक्चर में रियल टाइम में जो हो रहा है, उसमें आपका इंट्रेस्ट ही नहीं बचता. हर 15 मिनट में एक नया ट्विस्ट आता है. जो आगे चलकर एक दूसरे ट्विस्ट का कारण बनता है. आपको समझ नहीं आता कि आप लोकेश कनगराज की फिल्म देख रहे हैं या अब्बास-मुस्तन की. फर्क बस ये है कि अब्बास-मुस्तन के काम में कन्विक्शन था. 'कुली' की कहानी पूरे टाइम घूमती रहती है. मगर कहीं पहुंचती नहीं है.
कुछ चीज़ें तो ऐसी हैं, जो समझ से बिल्कुल ही परे लगती हैं. जिसका कोई तर्क नहीं है. मसलन, फिल्म का एक सीन है. जिसमें रजनीकांत का किरदार देवा कहता है कि जीवन में एक मौके ऐसा आया, जब उसे अपने परिवार और साथी कुलियों में से किसी एक को चुनना था. उसने कुलियों को चुना. इस सीन से ट्राइंग टू हार्ड वाली फीलिंग आती है. चूंकि फिल्म का नाम 'कुली' है, इसलिए उसका औचित्य सिद्ध करना ज़्यादा ज़रूरी है. परिवार जाए चूल्हे-भाड़ में.
दूसरी चीज़ ये कि देवा अपने दोस्त राजशेखर की तीन बेटियों को सुरक्षित रखने की ज़िम्मेदारी लेता है. मगर पूरी फिल्म में वो सिर्फ प्रीति को बचाता है. शायद इसलिए कि फिल्म में उसका रोल श्रुति हासन ने किया है. जो कि एक तरह से फिल्म की हीरोइन हैं. बाकी दो बहनें बीच-बीच में दिखती रहती हैं. मगर उनकी फिक्र किसी को नहीं है. इस तरह की विसंगतियां से ये पूरी फिल्म पटी पड़ी है.
मात्र दो लोग ऐसे हैं, जिन्होंने फिल्म में वो किया है, जिसके लिए उन्हें लिया गया था. सबसे पहला नाम है सौबिन शाहिर का. उन्होंने दयाल नाम के किलर का रोल किया है. उसका काम है अपने मालिक के हाथों मारे गए लोगों की लाश को ठिकाने लगाना. मगर ये इस किरदार की सिर्फ ऊपरी परत है. दयाल लेयर्ड पात्र है. और इस रोल में सौबिन ने जो काम किया है, वो बहुत संतुष्ट करता है. वैसे तो फिल्म का विलन साइमन है, जो रोल नागार्जुन ने किया है. मगर दयाल पूरी फिल्म में उस पर भारी पड़ता है. दूसरे नाम हैं अनिरुद्ध रविचंदर. अनिरुद्ध हर फिल्म में खुद को री-इनवेंट करते हैं. इस फिल्म में भी उनका बैकग्राउंड स्कोर एकदम तोड़फोड़ है. मगर फिल्म में जो हो रहा है, वो बहुत हल्का है. अनिरुद्ध का म्यूज़िक उसके लिए बहुत हेवी हो जाता है.
'कुली' की लंबाई अगर कम होती, तो शायद इसकी कुछ कमियां छुप सकती थीं. मगर उस पर उतना ध्यान नहीं दिया गया. फिल्म के आखिर में एक कैमियो है, जिसे लोकेश 'रोलेक्स' के तर्ज पर रखना चाहते थे. मगर वो इतनी कम प्रभावी है कि उसके होने या नहीं होने से फिल्म पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ता. मेकर्स ने अपनी ओर से पूरी कोशिश की है कि फिल्म का कोई भी सिरा अधूरा न छूटे. मगर फिल्म खत्म होने के बाद भी आपके सारे डाउट्स क्लीयर नहीं होते. ये चीज़ दर्शक होने के नाते परेशान और दुखी, दोनों करती है.
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