अपने भाषणों में नीतीश कुमार… कुछ भूल गए, कुछ याद रहा!
नीतीश कुमार तकरीबन 20 साल तक बिहार की सत्ता चलाते रहे हैं. अब वो अगले 5 साल के लिए जनता के बीच अपनी दावेदारी रख रहे हैं. नीतीश जनता के बीच पहुंच तो रहे हैं, लेकिन इस बार उनके भाषण कुछ अलग नज़र आते हैं. कहीं जुबान फिसल सी जाती हैं, तो बातें ऐसी हैं जहां उन्होंने सायाश या अनायास चुप्पी साध रखी है.

जब नीतीश कुमार के राजनीतिक विरोधी उनको शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ बता रहे हैं..जब पर्चियों पर लिख-लिखकर भविष्यवाणियां की जा रही हैं कि नीतीश 14 नवंबर, 2025 के बाद बिहार के मुख्यमंत्री नहीं होंगे..जब ये कहा जा रहा है कि उनकी पार्टी जेडीयू 25 से कम सीटों में सिमट जाएगी…उस समय नीतीश रोजाना औसतन 2 से 3 जनसभाएं कर रहे हैं. संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि- alive and kicking.
तीर के वीर...बिहार के तकदीर, दो हजार पच्चीस...फिर से नीतीश, पच्चीस से तीस...फिर से नीतीश, जैसे नारों के बीच नीतीश हर सभा में करीब एक घंटे मंच पर होते हैं. लिखा हुआ ही सही पर लगभग 30 मिनट हर सभा में बोलते हैं. तकरीबन 20 साल के शासन के बाद जब वो अगले 5 साल के लिए जनता के बीच अपनी दावेदारी रख रहे हैं तो कह क्या रहे हैं, कहां उनकी जुबान फिसल सी जाती है, और किन चीजों पर उन्होंने सायाश या अनायास चुप्पी साध रक्खी है, ये जानना बेहद दिलचस्प है. दिलचस्प है जानना कि नीतीश के भाषणों में क्या है और कहां उनकी चुप्पी खटकती है.
पहली बात - जंगलराज की याद, परिवारवाद पर तंज लेकिन अपराध पर खामोशी
परिवारवाद का नाम लेकर नीतीश, लालू पर ख़ूब तंज कसते हैं. जेल जाने पर राबड़ी देवी को मुख्मंत्री बनाने और बाद के दिनों में नीतीश के साथ गठबंधन कर तेजस्वी को उपमुख्यमंत्री के लिए चुनने पर भी नीतीश, लालू पर कटाक्ष करते हैं. लोगों से पूछते हैं कि "हम लोग घर में किसी को बनाए हैं? और लोग तो अपना पत्नी को, बेटा को, बेटी को...यही ना करते रहता है. कोई मतलब है? आप बताइए." (डुमरांव जनसभा, बक्सर)
पर इसका दूसरा पहलू भी है. 2020 के विधानसभा चुनाव में यही नीतीश बिहार में सिर्फ “कानून के राज” तक भाषण को सीमित नहीं रखते थे. वे बताते थे कि किस तरह एनसीआरबी के आंकड़े में बिहार में अपराध का ग्राफ गिरा है और वो अपराध के मामले में 23वें नंबर पर चला गया है. लेकिन इस बार नीतीश ऐसा कोई आंकड़ा अपने मंचों से नहीं देते. नीतीश इस पर चुप हैं कि स्टेट क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक 2015 की तुलना में 2024 में बिहार में अपराध 80 फीसदी तक बढ़ा है. जबकि इसी दौरान अपराध बढ़ने का राष्ट्रीय औसत करीब 24 फीसदी रहा. यानी बिहार में राष्ट्रीय औसत से तीन गुना से भी ज्यादा अपराध बढ़े हैं.
दूसरी बात - सामाजिक सौहार्द, हिंदू-मुस्लिम झगड़ा, मुसलमानों के लिए काम
अगले पांच साल का कार्यकाल मांगते हुए नीतीश अपने भाषणों में लालू-राबड़ी शासन की याद दिलाते हैं कि "उन 15 बरसों में सामाजिक सौहार्द बिल्कुल नहीं था, हिंदू-मुस्लिम झगड़ा होता था." और फिर उनके सीएम बनने के बाद ही से बिहार में "कानून का राज" है. “भाईचारा और शांति का माहौल स्थापित हुआ है”, इस एक दावे के लिए वे एक मिसाल देना किसी भी सभा में नहीं भूलते.
कहते हैं कि "पहले कब्रिस्तान को लेकर विवाद होता था. लेकिन साल 2006 ही से हमने बड़े पैमाने पर कब्रिस्तानों की घेराबंदी कराई, जिससे अब झगड़ा-झंझट नहीं होता....बाद में हमने देखा कि बहुत सी जगहों पर जहां हिंदूओं के मंदिर थे, वहां पर भी रात में गडबड़-सड़बड़ होता था. तो इसलिए हमने 2016 में 60 वर्ष से पुराने हिंदू मंदिरों की घेराबंदी कराई, जिससे चोरी आदि की घटनाएं अब नहीं होती." (बिहारशरीफ, नालंदा)
ऐसे दौर में जब अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों की बात सार्वजनिक सभाओं से करने में प्रमुख राजनीतिक दल और खासकर भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी नेता कतराते हैं, नीतीश NDA का हिस्सा होकर भी मुसलमानों के लिए किए गए काम गिनवाने में पीछे नहीं हटते. वे हर सभा में दावा करते हैं कि उनकी सरकार ने "मदरसों को सरकारी मान्यता दिलाई, उनके शिक्षकों को सरकारी शिक्षकों के बराबर का वेतन देकर" मुसलमानों के लिए काफी काम किया. (गोरौल जनसभा, वैशाली)
लेकिन यहीं एक और चीज समझने वाली है, नीतीश अपने भाषणों में मुसलमानों के लिए किए गए बरसों पुराने मदरसों की मान्यता और शिक्षकों की तनख्वाह की तो बात करते हैं. पर साल 2019 में सदन से वॉकवाउट कर राज्यसभा में ट्रिपल तलाक कानून को पारित होने दना, 2020 में सीएए-एनआरसी के समर्थन में सदन में वोट करना, 2025 में वक्फ संशोधन विधेयक पारित कराने में उनकी पार्टी के सहयोग और समर्थन की बात भूल जाते हैं.
इस विधानसभा चुनाव में भी नीतीश से मुस्लिम तबके को ये शिकायत रही कि उन्होंने अपने हिस्से की 101 सीटों में से केवल 4 पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारा. जबकि इनमें भी 3 सीटें ऐसी थीं जहां मुस्लिम आबादी ही 60 फीसदी से अधिक है, यानी वहां नीतीश का मुसलमानों को टिकट देना चयन नहीं बल्कि मजबूरी थी. 
इसके अलावा भी भारतीय जनता पार्टी के कुछ नेताओं की तरफ से मुसलमानों को लेकर दिए जाने वाले बयानों पर भी नीतीश और उनकी पार्टी की चुप्पी मुस्लिम समाज को खलती है.
तीसरी बात - पढ़ाई-दवाई, पोशाक और साइकिल
सभाओं में बच्चों खासकर लड़कियों की पढ़ाई, इलाज के इंतजाम पर नीतीश न बोलें, संभव ही नहीं. भाषणों में वो दावा करते हैं कि किस तरह उन्होंने बड़ी संख्या में स्कूल खोला, नियोजित शिक्षकों की बहाली की, लड़के-लड़कियों के लिए पोशाक और साइकिल योजना चलाई. साथ ही, 2 लाख 58 हजार शिक्षकों की बहाली कर बिहार में कुल शिक्षकों की संख्या को 5 लाख 20 हजार तक पहुंचा दिया. इन प्रयासों से उनका दावा शिक्षा व्यवस्था में सुधार लाने का है.
इसी तरह, वे स्वास्थ्य व्यवस्था का जिक्र करते हुए कहते हैं कि लालू-राबड़ी के शासनकाल में एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हर महीने केवल 39 लोग ही पहुंचते थे. लेकिन उनकी सरकार आने के बाद "2006 में अस्पतालों में मुख्य दवा और इलाज की पूरी व्यवस्था की गई... जिससे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में हर महीने औसतन 11,600 मरीज आने लगे."
नीतीश दावा करते हैं कि लालू-राबड़ी के शासन से पहले के वर्षों में बिहार में 6 मेडिकल कॉलेज बने थे पर राष्ट्रीय जनता दल या उनके गठबंधन की सरकार में एक भी मेडिकल कॉलेज नहीं बनाए गए. जबकि उनका दावा है कि अब इनकी संख्या 12 हो चुकी है और इसे लेकर 27 जिलों में काम चल रहा है.
पर काश इते भर से बिहार की हालत बेहतर हो गई होती. अस्पतालों में मरीजों की संख्या बढ़ाने, मेडिकल कॉलेज बनाने पर बोलने वाले नीतीश ही इसका माकूल जवाब दें कि 20 बरस के शासन के बाद उनको आज भी रूटीन मेडिकल चेकअप के लिए दिल्ली एम्स क्यों जाना पड़ता है. वहीं, काफी हद तक खस्ताहाल शिक्षा व्यवस्था और शिक्षकों की तैनाती पढ़ाई के काम में कम और सरकारी योजनाओं, चुनावों में अधिक, से भी अनभिज्ञ नजर आते हैं.
चौथी बात - महिलाएं, जीविका दीदी और नौकरी-रोजगार
नीतीश कुमार के भाषणों का काफी हिस्सा महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए किए गए उनके कामों को जाता है. वे अपने भाषणों में 2006 में पंचायत और 2007 में नगर निकायों में महिलाओं के लिए लागू किए गए 50 फीसदी आरक्षण को अपनी बड़ी उपलब्धियों में शुमार करते हैं. साथ ही, 2006 ही में सरकारी नौकरियों में महिलाओं को 35% आरक्षण, 2013 में पुलिस विभाग में भी 35% आरक्षण के जरिये महिला कर्मचारियों की बढ़ी तादाद की बात याद दिलाते हैं.
नीतीश का सबसे अधिक जोर अपने भाषणों में उस स्वयं सहायता समूह पर हैं, जिन्हें बिहार में जीविका दीदी कहते हैं. नीतीश कहते हैं कि "2006 से ही विश्व बैंक से कर्ज लेकर राज्य में स्वयं सहायता समूह का गठन हम लोगों ने किया और उसका हम लोगों ने जीविका नाम दिया...आप जानते हैं कि जीविका दीदियों की संख्या 1 करोड़ 40 लाख हो गई है". जीविका दीदियों का गांवों के अलावा अब शहरों मे भी विस्तार करने को नीतीश एक अहम काम बताते हैं. (डुमरांव जनसभा, बक्सर)
नौकरी और रोजगार को लेकर नीतीश अपनी रैलियों में कहते हैं कि उन्होंने 2020 में 10 लाख नौकरी और 10 लाख रोजगार देने का वादा किया था. जबकि उनका दावा है कि उन्होंने न सिर्फ 10 लाख नौकरी दिए, बल्कि कुल 40 लाख लोगों को रोजगार दिया है. इस तरह उनका दावा 50 लाख नकौरी-रोजगार लोगों को दे देना का है. साथ ही, इस चुनाव में वादा कर रहे हैं कि "अगले 5 वर्षों में 1 करोड़ युवाओं को नौकरी और रोजगार देंगे".
महिलाओं के लिए अपने शासन में काफी कुछ करने वाले यही नीतीश बिहार में 5 अप्रैल 2016 को गाजे-बाजे के साथ शराबबंदी कानून लेकर आए थे. नीतीश पिछले विधानसभा चुनाव में भाषणों और मीडिया इंटरव्यू में थोड़ा ही सही पर जरुर इसे अपनी उपलब्धि बताते थे और दूसरी सरकार आ जाने पर ‘दारूबाजों’ की वापसी की बात किया करते थे. लेकिन इस बार वे शराबबंदी का जिक्र, उसकी सफलता-असफलता पर रत्ती भर भी नहीं बोलते.
हम कई ग्राउंड रिपोर्ट्स में ये देख चुके हैं कि बिहार में शराबबंदी सिर्फ कागजों पर है, शराब की दुकाने बंद है और होम डिलिवरी चालू है. साथ ही, शराबबंदी के कानून के कारण जो हजारों लोग जेलों में बंद हैं, जिन पर ट्रायल चला, जिनकी जिंदगी खराब हुई, उनका क्या होगा, नीतीश अपनी भाषणों में इससे बेफिक्र नजर आते हैं. वहीं सरकारी नौकरी को लेकर राज्य में एक के बाद एक सरकारी भर्ती परीक्षाओं में हुई धांधली, वो पुलिसिया तंत्र जो जब जी चाहे प्रदर्शन कर रहे लोगों पर लाठी बरसा देती है, नीतीश इन चीजों पर सायाश चुप्पी साध उन्हें कम से कम मतदान की तारीख तक भूला देना चाहते हैं.
पांचवी बात - केंद्र का सहयोग और हाल के काम
नीतीश भाषणों के आखिर में केंद्र की तरफ से बिहार को मिल रहे सहयोग के लिए प्रधानमंत्री मोदी का धन्यवाद करना नहीं भूलते. खासकर, जुलाई 2024 के केंद्रीय बजट में बिहार को मिले विशेष आर्थिक मदद, फरवरी 2025 के बजट में मखाना बोर्ड, एयरपोर्ट की स्थापना वगैरा-वगैरा.
वहीं, अपनी सरकार की हाल की घोषणाएं, जिसे विपक्ष ने चुनाव से पहले जनता को देने वाला ‘घूस’ कहा, बिल्कुल भाषण के आखिर में गिनवाते हैं, कहते हैं कि उनकी सरकार ने वृद्धजनों, दिव्यांगजनों और विधवा महिलाओं की पेंशन को 400 रुपये से बढ़ाकर 1,100 रुपये करने और घरेलू उपभोक्ताओं के लिए 150 यूनिट बिजली मुफ्त कर लोगों के लिए बड़ा काम किया है.
इसके अलावा, नीतीश महिलाओं को रोजगार के लिए एक नई योजना - 'मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना' का जिक्र करते हैं. जिसमें हर घर की एक महिला को रोजगार शुरू करने के लिए 10 हजार रुपये की राशि दी जा रही है. नीतीश कहते हैं कि “अब तक 1 करोड़ 21 लाख महिलाओं को ये राशि दे चुकी है. साथ ही, बाकी बची महिलाओं को राशि देने के लिए तारीख तय कर दी गई है. जिनका रोजगार अच्छा चलेगा, उनको 2 लाख रुपये तक अतिरिक्त सहायता भी दी जाएगी.” (गोरौल जनसभा, वैशाली)
नीतीश अपने भाषण के आखिर में  जिस विधानसभा सीट या जिन प्रत्याशियों के लिए वोट मांग रहे हों, वहां के प्रखंड, विधानसभा और जिले में किए गए  विकास कार्यों,  जिनमें सड़क, पुल, पुलिया से लेकर दूसरे काम शामिल है, गिनवाते हैं. विकसित बिहार के इस वादे के साथ कि इस दफा अगर उन्हें मौका मिला तो “तो बिहार बहुत विकसित होगा और आप समझ लीजिए इस देश में दो-तीन राज्य आगे हैं, उसी तरह से अगली बार बिहार भी बहुत आगे और विकसित बनेगा” (डुमरांव जनसभा, बक्सर)
नीतीश 2020 के अपने चुनावी भाषणों में लोगों की आमदनी और बिहार के विकास की रफ्तार पर खूब बोलते थे.
2020 के ऐसे ही एक भाषण में वे कहते हैं कि "...आप जान लीजिए इस देश में जो विकास का दर है, सर्वाधिक विकास का दर साढ़े 12 प्रतिशत हर वर्ष बिहार का बढ़ा है. और प्रति व्यक्ति आमदनी में वृद्धि... हर वर्ष साढ़े 10 फीसदी की बढ़ोतरी हो रही है. ये आंकड़े हमारे नहीं हैं. ये आंकड़े प्रकाशित होते हैं केंद्र सरकार के द्वारा देश भर के बारे में और उन आंकड़ों के बारे में हम आपको बता रहे हैं..." (नीतीश चुनावी भाषण, 2020)
लेकिन इस बार ये सब गायब है. शायद इसकी एक वजह ये है कि नीतीश जो पांच बरसे पहले बिहार को देश में सबसे तेज आर्थिक वृद्धि दर वाला राज्य कहते थे. वो 2024-25 में 8.6 फीसदी की दर से छठे पायदान पर फिसल चुका है. जाहिर सी बात है कि पहले ही से पिछड़े राज्य की तरक्की के लिए ये विकास दर कहीं से पर्याप्त नहीं है. नीतीश भी इसे बताने में हिचकते दिखते हैं.
आखिरी बात - कुछ भूल गए, कुछ याद रहा!
बहरहाल, ये तो वे बाते हैं जो नीतीश को 20 साल के शासन के बाद बता और छुपा रहे हैं. पर बताने, छुपाने के अलावा भी इस चुनाव में एक चीज दर्ज करने वाली है. नीतीश अपने चुनावी भाषणों में कुछ-कुछ अपनी सेहत की वजह से भूलते हुए भी दिखलाई पड़ते हैं. इस चुनाव में उनके भाषणों को देखने या फिर उनके वायरल होने की एक वजह उनका स्मृतिलोप या फिर कई जगहों पर जुबान का फिसल जाना भी है.
मसलन - समस्तीपुर की रैली में “आए हुए” की जगह “भागे हुए आदरणीय पीएम मोदी जी....” कह देने को राजद और उसके समर्थकों ने खूब वायरल किया.
इसी तरह कुछ रैली में नीतीश ये स्पष्टता से कहते हैं कि हम इस बार सरकार में आने पर घर-घर सोलर पैनल लगवा देंगे. लेकिन जब ये बात वो बिना कागज देखे कहने की कोशिश कुछ एक रैलियों में करते हैं तो कहते हैं कि “हम तो चाहते हैं कि आप लोगों के घर के ऊपर भी हम कुछ बना देंगे…और उस से भी आपको फायदा होगा” वो क्या बनवा देंगे, लगता है जैसे वो भूल गए हैं और फिर उस बात से आगे निकल जाते हैं. (डुमरांव जनसभा, बक्सर)
ऐसे ही, भाषण के बीच में अचानक से मंच पर बैठे अपने उम्मीदवारों को डपटते हुए कहते हैं… “ऐ...खड़ा होइये…” जिसका उस वक्त कोई औचित्य नहीं नजर आता, और फिर कुछ ही सेकेंड बाद अचानक से उनसे बड़े प्रेम से कहते हैं, "सब बैठ जाइये…:".
इस तरह हम देखते हैं कि 2020 के विधानसभा चुनाव में एक-एक आंकड़े कंठस्थ रखने वाले, सिर्फ जनता के लिए ही नहीं बल्कि सरकार बनने पर जानवरोें के लिए भी काम (पशु चिकित्साल्य खोलने का वादा) करने की अलहदा बातें करने वाले नीतीश इस बार लिखे हुए भाषण को भी मिला-मिलाकर पढ़ते और कुछ एक आंकड़े भूलते दिखलाई देते हैं.
फिर भी, अपने भाषणों में ये रट लगाने वाले नीतीश को कि "हमने तो काम किया है...काम कर रहे हैं...मौका देंगे तो काम करेंगे." बिहार की जनता एक मौका और देती है या फिर उनके अंत की भविष्यवाणी लिख रहे भविष्यवक्ताओं की चेहरे पर मुस्कान? जवाब के लिए 14 नवंबर तक का इंतजार करना होगा. तब तक आप भी, मेरी तरह काम पर लौट सकते हैं.
वीडियो: राजधानी: बिहार में तेजस्वी का 'कन्फ्यूजन' वाला दांव, मोदी-नीतीश पर पड़ेगा भारी?

