दक्षिणपूर्वी चीन में गुआनदोंग नाम का एक प्रांत है. यहां शियांगशान नाम का एक इलाका था. इस जगह की सबसे नामी विरासत हैं सुन यत सेन, रिपब्लिक ऑफ चाइना के फाउंडर. मगर हम आज सुन यत सेन की बात नहीं करेंगे. हम आपको बताएंगे शियांगशान के एक और मशहूर बाशिंदे की कहानी. उनका नाम था- युंग विंग. पैदाइश का साल, 1828. पढ़ने में ख़ूब तेज़. इतने मेधावी कि अगल-बगल के इलाकों में युंग की बातें होती थीं.

ये 1848 के करीब की बात है, जब एक रोज़ युंग के तेज़ दिमाग की चर्चा सैमुअल रॉबिन्स ब्राउन तक पहुंची. ब्राउन अमेरिका के रहने वाले थे. चर्च के कहने पर चीन आकर ईसाई धर्म का प्रचार कर रहे थे. ब्राउन ने सोचा, इतने मेधावी छात्र को तो अमेरिका जाकर पढ़ाई करनी चाहिए. ब्राउन ने मिशनरी से मदद ली और 20 साल के युंग को अमेरिका भेज दिया. पहले एक अकैडमी में रखकर यूनिवर्सिटी लेवल की पढ़ाई के लिए युंग की तैयारी करवाई. फिर 1850 में उनका दाखिला येल यूनिवर्सिटी में करवा दिया. 1854 में यहीं से ग्रेजुऐट होकर निकले युंग. ये पहली दफ़ा था, जब चीन के किसी छात्र ने अमेरिकी यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन किया हो.
युंग की कहानी अभी ख़त्म नहीं हुई
युंग ने पढ़ाई पूरी करने के बाद सोचा कि यूनिवर्सिटी की ये दुनिया तो बिल्कुल अलग है. क्यों न चीन के और भी छात्रों को अमेरिकी यूनिवर्सिटी में पढ़ने का अनुभव मिले. ये सोचकर युंग ने एक चाइनीज़ एजुकेशन मिशन बनाया. इस मिशन की कोशिशों के कारण 10 बरस के भीतर चीन के 120 छात्र पढ़ाई के लिए अमेरिका भेजे गए. ये चीनी छात्र जब अमेरिका से पढ़कर लौटते, तो उन्हें बड़े ओहदे मिलते. मसलन, रेलरोड इंजिनियर झान तिआनयू. जिन्हें चीन की रेलवे क्रांति का पिता माना जाता है.

इस दौर में चीन के भीतर चिंग साम्राज्य का शासन था. उन्होंने सोचा, अगर चीनी छात्रों को अमेरिका की मिलिटरी अकैडमी में दाखिला मिल जाए तो पश्चिमी देशों के युद्ध कौशल का ज्ञान चीन को भी मिलेगा. अमेरिका ने शुरुआत में इसके लिए हामी भी भरी. मगर फिर अविश्वास के कारण अमेरिका ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. चीन इससे बहुत नाराज़ हुआ. 1881 में उसने अमेरिका रहकर पढ़ाई कर रहे अपने छात्रों को वापस चीन बुला लिया. मगर दोनों देशों का टेंशन इतने पर ख़त्म नहीं हुआ. इस वक़्त ओपियम वॉर और प्राकृतिक आपदाओं के कारण चीन की माली हालत बहुत ख़राब थी. वहां से कई सारे लोग कामकाज की तलाश में अमेरिका आ रहे थे. अमेरिका के कुछ हिस्सों में स्थानीय लोगों को चीनियों का अपने यहां आना पसंद नहीं था. चीनियों का बहिष्कार करने के लिए स्थानीय लोग पोस्टर्स छपवाने लगे. इनपर लिखा होता-
शेल वी हैव चाइनीज़? नो नो नो.
ये मुद्दा इतना उछला कि 1882 में अमेरिका ने एक ख़ास क़ानून पास किया. इसका नाम था- चाइनीज़ एक्सक्लूज़न ऐक्ट. इस क़ानून ने चाइनीज़ इमिग्रेंट्स के अमेरिका आने पर पाबंदी लगा दी. दोनों देशों के बीच बढ़े इस तनाव का एक शिकार युंग विंग भी बने. अमेरिका ने उन्हें दी हुई नागरिकता छीन ली.

इतनी लंबी कहानी सुनाने का मकसद क्या था?
मकसद था एक संदर्भ देना. बताना कि इतिहास कैसे ख़ुद को दोहरा रहा है. 19वीं सदी की तरह अब भी अमेरिका-चीन के रिश्तों पर अविश्वास और आक्रामकता हावी है. एक बार फिर चीन के छात्र इस तनाव की जद में आए हैं. कैसे? अमेरिका ने चीन के 1,000 से ज़्यादा छात्रों का वीज़ा रद्द कर दिया है. ये फ़ैसला 29 मई, 2020 को ट्रंप प्रशासन द्वारा जारी एक ऐलान के आधार पर हुआ है. इसमें कहा गया था कि राष्ट्रपति ट्रंप ने अमेरिका में पढ़ाई कर रहे कुछ ग्रैजुएट और रिसर्चर लेवल के चीनी छात्रों को ब्लॉक करने का फैसला किया है. इस ऐलान में और क्या चीजें कही गई थीं, ये ब्रीफ पॉइंट्स में बता देते हैं आपको-
1. चीन अपनी मिलिटरी-सिविल फ्यूज़न (MCF) स्ट्रैटिजी के द्वारा सबसे अडवांस्ड मिलिटरी बनाना चाहता है. इसके लिए वो ग़लत तौर-तरीके भी इस्तेमाल करता है.
2. MCF स्ट्रैटिजी के तहत चीनी सेना अपने कुछ छात्रों और रिसर्चर्स को जासूसी के लिए इस्तेमाल कर रही है.
3. चीन इन छात्रों को स्टूडेंट वीज़ा के रास्ते अमेरिका में दाखिल कराता है.
4. ये छात्र और शोधकर्ता चीनी सेना के निर्देश पर अमेरिका के तकनीकी सीक्रेट्स चुराते हैं.
5. हमारी तकनीकी, बौद्धिक संपदा और रिसर्च की ये चोरी अमेरिकन इकॉनमी और सुरक्षा के लिए ख़तरा है.
6. चाइनीज़ मिलिटरी से लिंक्ड ऐसे ही कुछ छात्रों और शोधकर्ताओं पर कार्रवाई करेंगे हम.
7. इस कार्रवाई उन चीनी छात्रों पर होगी, जो चीन की MCF स्ट्रैटिजी को सपोर्ट करने वाले संस्थानों में काम करते हैं. या वहां पढ़ाई और रिसर्च कर चुके हैं.
8. हमारा ये फ़ैसला ईमानदारी से पढ़ाई के लिए अमेरिका आने वाले चीनी छात्रों को प्रभावित नहीं करेगा.
9. हम चीन पर लगातार दबाव बनाते रहेंगे, ताकि वो अमेरिकी हितों को नुकसान न पहुंचा सके.

मिलिटरी सिविल फ्यूज़न स्ट्रैटिजी, MCF. ये क्या चीज है?
अमेरिकी विदेश विभाग के मुताबिक, ये चीन की एक आक्रामक राष्ट्रीय नीति है. इसके सहारे चीन 2049 तक दुनिया की सबसे उन्नत सेना बनाना चाहता है. इसके तहत चीन ने अपने सिविलियन और मिलिटरी मामलों के बीच कोई बाउंड्री नहीं छोड़ी है. सारे सेक्टर्स अपने-अपने स्तर पर सेना की मदद करते हैं. ये मदद विदेशी संस्थानों से रिसर्च चुराकर भी हो सकती है. और, प्राइवेट कंपनियों द्वारा विदेशी नागरिकों की जासूसी करवाकर भी हो सकती है. चीन की इसी MCF स्ट्रैटिजी का एक हिस्सा है ह्वावे जैसी चीनी कंपनियां. जिनपर कारोबार के बहाने दूसरे देशों की जासूसी का आरोप लगता है.
अब वापस लौटते हैं मई में आए ट्रंप प्रशासन के ऐलान पर. इस प्रोक्लेमेशन के बाद से ही आशंका थी कि चीनी स्टूडेंट्स पर गाज गिरने वाली है. 9 सितंबर को ये अनुमान सही साबित हुए. इस रोज़ US स्टेट डिपार्टमेंट का बयान आया. इसमें बताया गया कि 29 मई के फैसले के बाद से ही चीनी छात्रों पर कार्रवाई शुरू हो गई थी. 1 जून से अब तक 1,000 चीनी छात्रों का वीज़ा रद्द भी किया जा चुका है. होमलैंड सिक्यॉरिटी डिपार्टमेंट के कार्यकारी सचिव चाड वुल्फ़ ने इस मामले की जानकारी देते हुए कहा-
चीन स्टूडेंट वीज़ा का ग़लत इस्तेमाल करते हमारे शैक्षणिक संस्थानों का बेजा फ़ायदा उठा रहा था. इसी से निपटने के लिए हम कुछ चीनी छात्रों का वीज़ा ब्लॉक कर रहे हैं. ये वो छात्र हैं, जो चीन की MCF स्ट्रैटिजी से जुड़े हैं.

अमेरिकी प्रशासन कहता है कि वो चीन से आने वाले हर इंसान पर इल्ज़ाम नहीं लगा रहा है. मगर ट्रंप कई बार इससे उलट बयान दे चुके हैं. मसलन, अगस्त 2018 में ट्रंप कुछ CEOs के साथ डिनर कर रहे थे. पॉलिटिको मैगज़ीन के मुताबिक, डिनर के दौरान चीन के बारे में बोलते हुए ट्रंप ने कहा-
वहां से अमेरिका आने वाला तकरीबन हर एक छात्र चीन का जासूस है.
ये थी ट्रंप की राय. ऐसी ही राय उनकी पार्टी के कुछ और नेताओं की भी है. इनमें से ही एक हैं सेनेटर टॉम कॉटन. उन्होंने सुझाव दिया कि चीनी छात्रों को बस शेक्सपियर और हिस्ट्री जैसे विषय पढ़ने के लिए अमेरिका आने दिया जाए. तकनीक और विज्ञान से जुड़े विषयों में उन्हें एडमिशन ही न दिया जाए. ऐसे में एक आशंका ये भी है कि कहीं आने वाले दिनों में ज़्यादा चीनी छात्रों को प्रतिबंध न झेलना पड़े.
टेक्नॉलजी और बौद्धिक संपदा की चोरी बहुत गंभीर मसला है. इससे जुड़े सबसे ज़्यादा इल्ज़ाम चीन पर ही हैं. चीनी सरकार बड़े स्तर पर हैकिंग करके दूसरे देशों की रिसर्च और टेक्नॉलजी चुराने में भी लगी है. ये भी सच है कि चीन प्रतिष्ठित विदेशी संस्थानों में पढ़ने वाले अपने छात्रों और वैज्ञानिकों को रिक्रूट करके उनसे जासूसी करवाता है. ऐसे भी मामले हैं कि चीनी सेना से जुड़े लोगों ने अपनी असली पहचान छुपाकर अमेरिकी यूनिवर्सिटीज़ में दाखिला लिया.

ऐसा ही एक केस था ‘यानचिंग ये’ का
यानचिंग PLA में लेफ्टिनेंट हैं. उन्होंने ख़ुद को छात्र बताकर अमेरिकी वीज़ा लिया. बोस्टन यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया. अक्टूबर 2017 से अप्रैल 2019 तक वहां फिज़िक्स, केमेस्ट्री और बायोमेडिकल इंजिनियरिंग की पढ़ाई की. इस दौरान यानचिंग ने न केवल रिसर्च चुराई. बल्कि अमेरिकी सेना की वेबसाइट्स में सेंध भी लगाई. उन्होंने अमेरिका से जुड़ी संवेदनशील जानकारियां चीन भेजीं.
मगर क्या चीनी छात्रों को अमेरिका में पढ़ने से रोककर इस समस्या का हल निकल जाएगा? क्या ये गारंटी ली जा सकती है कि जिन छात्रों पर कार्रवाई हुई, उनमें से कोई निर्दोष नहीं था? इस मामले में एक और भी पक्ष है. चीन से आने वाले सारे छात्र पढ़ाई करके चीन नहीं लौटते. कई अमेरिका में भी रह जाते हैं. वो अमेरिकी संस्थानों के लिए काम करते हैं. उनकी एक्सपर्टीज़ का फ़ायदा मिलता है अमेरिका को. मसलन, AI यानी आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की फील्ड देखिए. टेक्नॉलजी फील्ड में सबसे हॉटकेक है AI. इस फील्ड में अमेरिका से पीएचडी करने वाले करीब 91 पर्सेंट चीनी छात्र पढ़ाई के बाद चीन नहीं लौटते. कम-से-कम पांच साल अमेरिका में ही रहकर काम करते हैं. इनके इनोवेशन का फ़ायदा अमेरिकी कंपनियों को मिलता है.

अमेरिकी में कितनी चीनी स्टूडेंट्स?
अमेरिका में पढ़ने वाले विदेशी छात्रों में सबसे ज़्यादा संख्या चीनी स्टूडेंट्स की ही है. 2018-19 में चीन के साढ़े तीन लाख से ज़्यादा स्टूडेंट्स ने अमेरिकी संस्थानों में दाखिला लिया. इनमें से ज़्यादातर छात्र ऐसे होते हैं, जिनकी स्कूलिंग और कॉलेज लेवल तक की पढ़ाई चीन में हुई. चीन के एज़ुकेशन सिस्टम में सेना का भी दाखिला है. ऐसे में कई छात्र सेना से जुड़े संस्थानों में भी पढ़ाई करते हैं.
ख़बरों के मुताबिक, जिन छात्रों पर अमेरिका ने कार्रवाई की है, उनमें से कई बस इस तरह के प्रतिष्ठानों में पढ़ाई करने के कारण टारगेट किए गए हैं. ऐसे में इस फैसले को लेकर अमेरिका पर भी कई सवाल उठ रहे हैं. लोग पूछ रहे हैं कि क्या सेना से लिंक्ड संस्थान में पढ़ाई करना किसी के जासूस होने का सबूत हो सकता है? क्या इस आधार पर उससे विदेशी यूनिवर्सिटी में पढ़ने का मौका छीना जा सकता है? एक सवाल ये भी है कि क्या ट्रंप प्रशासन चुनाव के कारण ऐसे फैसले ले रहा है? क्या ट्रंप चुनावी फ़ायदे के लिए चीन के नाम का हौआ बना रहे हैं?
विडियो- अमेरिका चीनी छात्रों को जासूस बता वीज़ा क्यों रद्द कर रहा?