यूपी के चुनाव पर तो खूब बात होती है और होनी भी चाहिए, यूपी बड़ा राज्य जो है. मगर ऐसा तो नहीं हो सकता है कि हम पंजाब को भूल जाएं. वहां भी बहुत कुछ दांव पर लगा है, बहुत कुछ वहां भी घट रहा है और पंजाब की पॉलिटिक्स भी कम इंट्रस्टिंग नहीं है. अभी कांग्रेस की सरकार है, अकाली दल की रह चुकी है और आम आदमी पार्टी की दावेदारी भी इस बार बढ़ रही है. और आज खबर की शुरुआत भी उसी के खेमे से हो रही है.
आम आदमी पार्टी के अध्यक्ष अरविंद केजरीवाल ने कई दिनों की उहापोह के बाद पार्टी के सांसद भगवंत मान को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर दिया.
ऐलान के साथ ही ढोल नगाड़े की धुन पर कार्यकर्ताओं ने पार्टी अध्यक्ष के फैसले का स्वागत किया. केजरीवाल ने नाम पर मुहर लगाई, गले लगकर बधाई दी और फिर आंसू पोछते हुए भगवंत मान ने फैसले को स्वीकार किया. मामला थोड़ा इमोशनल हो गया.
अब दूसरी तरफ नजर डालें तो कांग्रेस ने कैप्टन अमरिदंर सिंह को हटा चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बनाया. शुरू में चरणजीत सिंह चन्नी को पहले नाइट वाचमैन के तौर पर देखा गया. नवजोत सिंह सिद्धू प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो माना यही जा रहा था कि सिद्धू चुनाव को लीड करेंगे, चन्नी सिर्फ प्रशासनिक चेहरा रहेंगे.
और पहले दिन सीएम चन्नी के कंधे पर हाथ रखकर सिद्धू ने संदेश भी यही देने की कोशिश की. लेकिन चन्नी ने कंधे से हाथ झटकने में ज्यादा वक्त नहीं लगाया और चंद दिनों के भीतर ही वो खुद सीएम के तौर पर स्थापित करते चले गए.
प्रशासनिक तौर पर एक के बाद एक कई बड़े फैसले लिए, और लोगों से कनेक्ट करने के लिए कभी सीधे उनके बीच जाने लगे, तो कभी भंगड़ा पाकर पंजाबी दिलों को टटोलने में जुट गए.
इस बीच सिद्धू का उनका मनमुटाव भी साफ होता चला गया, 28 सितंबर को सिद्धू अध्यक्ष पद से इस्तीफा तक दे दिया. लेकिन दिल्ली के दखल के बाद इस्तीफा वापस लेना पड़ा. मगर दोनों के बीच एक दरार साफ समझ आने लगी. अब स्थिति ये है कि सिद्धू के पोस्टरों में चन्नी नजर नहीं आते और चन्नी के पोस्टरों से सिद्धू गायब हैं. चुनाव के वक्त जब एकजुट होकर लड़ना होता है तो वो एकजुटता यहां कांग्रेस के खेमे में दिख नहीं रही. चन्नी अब सिद्धू पर भारी पड़ने लगे, जानकार भी यही मानते हैं
पंजाब यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर गुरमीत सिंह ने कहा
ये दलित वाला एंगल है. अब यह मुश्किल लगता है कि पार्टी चन्नी को हटा कि सिद्धू कोCMका चेहरा घोषित करेगी.
यानी साफ है कि चन्नी रेस में सिद्धू से आगे निकल गए हैं मगर ये कौन नहीं जानता कि सिद्धू खुद सीएम बनने की तमन्ना तहेदिल से रखते हैं. बीते कैप्टन अमरिंदर सिंह से चल रही लड़ाई के बीच सीएम बनने की उनकी मंशा भी खूब दिखी
मगर कहते हैं ना तमन्ना वो तमन्ना है जो लड़कर भी ना पूरी हो
और जो दिल ही दिल में रह जाए उसे अरमान कहते हैं.
तो ये समझ आ रहा है कि सीएम चन्नी ने सिद्धू के सीएम सपने पर पानी फेर दिया है, क्योंकि 17 जनवरी को सोनू सूद के बयान के साथ कांग्रेस के मेन ट्विटर हैंडल से एक वीडियो जारी किया गया. जिसमें सीएम के चेहरे के तौर पर चन्नी को दिखाया गया.
38 सेकेंड के वीडियो में कांग्रेस के सीएम चेहरे के लिए सारे डाउट क्लीयर हो जाते हैं क्योंकि एक भी फ्रेम में सिद्धू या कोई और नजर नहीं आता, सिवाय चरणजीत सिंह चन्नी के. तो यहां से माना जाने लगा कि अब लड़ाई सीधे चन्नी बनाम भगवंत मान के चेहरों के बीच होगी. पंजाब की इस सियासी लड़ाई में दो और स्टेक होल्डर हैं. अकाली दल के सुखबीर बादल और कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने वाले पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह. मगर पंजाब में इस बार मुख्य लड़ाई कांग्रेस और आप में मानी जा रही है तो पहले इन दोनों के चेहरे पर विस्तार से बात कर लेते हैं.
चरणजीत सिंह चन्नी और भगवंत मान. एक दलित सिख, एक जट सिख. दोनों ही लो प्रोफाइल बैकग्राउंड से आते हैं और दोनों की छवि जनता के नेता के तौर पर बनाई जाती है. चन्नी ने अपनी जगह खुद बनाई तो भगवंत मान पर, आम आदमी पार्टी कहती है कि उनसे अपने चेहरे के चुनाव के लिए फोन पर बाकयदा लोकतांत्रिक सर्वे कराया. केजरीवाल का दावा है कि
आप ने 3 दिन तक फोन पर सर्वे किया गया
जिसमें 21.59 लाख लोगों ने अपनी राय रखी
93.3% लोगों ने भगवंत मान के नाम पर मुहर लगाई
और नवजोत सिंह सिद्धू के लिए 3.6% ने हामी भरी
अब यहां एक सवाल है कि आखिर ये सर्वे कराने की जरूरत क्यों पड़ी है ? क्या केजरीवाल को भगवंत मान के नाम पर कोई शंका थी ? और दूसरा सवाल ये भी कि पंजाब में आम आदमी पार्टी के पास भगवंत मान के अलावा दूसरा विकल्प कौन था ? आप के ही सर्वे के मुताबिक दूसरा नाम जो लिया गया वो नवजोत सिंह सिद्धू है. जो आम आदमी पार्टी में है ही नहीं.
वो तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष हैं. तो क्या विकल्प ना होने की स्थिति में भगवंत मान को ही आगे करना केजरीवाल की मजबूरी है ? इस सवाल के जवाब का जवाब जानने के लिए हमने पंजाब की सियासत को समझने वाले दो जानकारों से बात की. एक हैं पंजाब यूनिर्सिटी के प्रोफेसर गुरमीत सिंह और दूसरे इंडियन एक्सप्रेस अखबार के पूर्व पत्रकार विपिन पबी
विपिन वब्बी ने बताया
आम आदमी पार्टी ने अपनाCMकैंडिडेट बताने में काफ़ी टाइम लगाया. भगवंत मान का नाम लग ही रहा था कि इस दौड़ में सबसे आगे रहेगा.
प्रोफेसर गुरमीत सिंह ने बताया
सर्वे के आधार पर भगवंत मान का नाम निकाला गया है यह केवल और केवल एक स्टंट था. केजरीवाल ने इसे एक आयोजन के रूप में किया. यह तरीक़ा है उनका.
यानि दोनों ही जानकारों की बातों से एक बात तो क्लीयर है कि केजरीवाल के पास भगवंत मान के अलावा कोई दूसरा चेहरा नहीं था. दूसरी पार्टी से बड़े नेताओं को लाने की कोशिश कामयाब नहीं हुई तो भगवंत मान के नाम पर ही मुहर लगानी पड़ी. तो अब दोनों चेहरों को सामने रखकर बात कर लेते हैं
चरणजीत सिंह चन्नी रूपनगर जिले की चमकौर साहिब सीट से 3 बार से विधायक हैं तो भगवंत मान संगरूर सीट से लगातार 2 बार के सांसद.
चरणजीत सिंह चन्नी की पहचान खालिस नेता की ही रही, जबकि भगवंत मान ने कॉमेडियन के तौर पर अपनी पहचान बनाई थी
चरणजीत सिंह चन्नी दलित समुदाय से आते हैं तो भगवंत मान पंजाब में राजनीति और आर्थिक रूप से प्रभावशाली जट सिख समुदाय से आते हैं.
लड़ाई इन्हीं दोनों वोटों को अपने तरफ खींच लेने की है. दलित चेहरे के दम पर कांग्रेस और ज्यादा दलित वोटरों को अपनी तरफ खींचने में लगी है. तो आप ने पारंपरिक तौर पर जट सिख को मैदान में उतारा है. अब जरा राजनीतिक वोटबैंक को भी समझते चलिए.
पंजाब में 32% दलित वोटर हैं. वो भी दो तरह के एक हिंदू दलित, दूसरे सिख दलित. जबकि जट सिख वोटरों की तादात 25% है
CSDS के आंकड़े कहते हैं कि 2017 के चुनाव में कांग्रेस को 28% जट सिखों के वोट मिले. जबकि अकाली-बीजेपी गठबंधन को 37%. और आप को 30% जट सिख वोट मिले.
2017 में 43% हिंदू दलित वोट कांग्रेस को मिले, अकाली दल को 26% और आप को 21% हिंदू दलित वोट मिले.
वहीं सिख दलितों की बात करें तो 41% वोट कांग्रेस को मिले, 34% अकाली गठबंधन के खाते में गए. आप को सिर्फ 19% सिख दलितों का वोट मिला
आंकड़े इसी बात की ओर इशारा करते हैं कि दलित वोटों का रुझान ज्यादातर कांग्रेस की तरफ रहा. जबकि जट सिख वोट अकाली गठबंधन को मिला. दलितों की आबादी ज्यादा होने के बावजूद अब तक कोई दलित सीएम नहीं बन पाया था, क्योंकि दलितों का एक वैसा नहीं है, जैसे यूपी में है. जानकार कहते हैं इसलिए अब तक प्रभाव भी कम था,
मगर अब कांग्रेस ने पहली बार एक दलित को सीएम बना दिया है. चन्नी पहले दलित सीएम हैं. और उन्हीं के दम पर कांग्रेस अब दलित वोटों को एकमुश्त अपनी तरफ लाना चाहती है. जबकि सुखबीर बादल, कैप्टन अमरिंदर सिंह की तरह भगवंत मान भी जट सिख हैं.
भगवंत मान ने 2012 संगरूर की लहरा सीट से पहली बार चुनाव लड़ा. पार्टी थी मनप्रीत बादल की पंजाब पीपल्स पार्टी. मगर हार गए. 2017 में आप की तरफ से विधानसभा चुनाव लड़ा. फजिल्का जिले की जलालाबाद सीट पर सीधे डिप्टी सीएम रहे अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर बादल को चुनौती देने पहुंचे, वहां भी हार गए. लेकिन इस बार भगवंत मान के कंधे पर आप का पूरा कैंपेन टिका है. पंजाब में विधानपरिषद है नहीं तो फिर से विधायकी का चुनाव भी लड़ना पड़ेगा. तो अब सवाल ये कि सरकार बनाने का दावा कर रही आम आदमी पार्टी कितनी मजबूत है
तो इसके लिए पहले सबसे पहले हमें 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखना होगा
2017 में पंजाब के नतीजे क्या रहे ?
सीट वोट
कांग्रेस- 77 38.64%
आप- 20 23.80%
अकाली-बीजेपी के गठबंधन को 18 सीटें मिलीं और वोट मिले – 30.74%
यानी अकाली गठंधन से कम वोट पाकर भी केजरीवाल की पार्टी ने ज्यादा सीटें हासिल की, दिल्ली से इतर पंजाब में मजबूत स्थिति में आए और मुख्य विपक्षी दल का तमगा भी ले लिया और इस बार भगवंत मान का दावा है कि सरकार बना लेंगे
दावा भगवंत मान है और दावा कांग्रेस समेत बाकी दल भी सरकार बनाने की कर रहे हैं. मगर पंजाब के बाहर के दर्शकों एक बार पंजाब की डेमोग्राफी और उस डेमोग्राफी की सियासी हैसियत को भी समझ लेना चाहिए, आंकलन करने में आसानी होगी. पंजाब में बहने वाली नदियां, पंजाब को तीन मुख्य रीजन में बांटती है.
मालवा, मांझा और दोआबा.
सबसे बड़ा रीजन ये नीचे का हिस्सा मालवा है. सबसे ज्यादा 69 सीट भी यहीं है. मालवा में कुल 15 जिले पड़ते हैं.
लुधियाना, पटियाला, फिरोजपुर, फजिल्का, फरीदकोट,फतेहगढ़ साहिब, मुक्तसर, संगरूर, बठिंडा, मांसा, मोगा, S.A.S नगर, बरनाला, रूपनगर और मलेरकोटला
दूसरा है मांझा, जहां कुल 25 सीटें हैं. और 4 जिले
अमृतसर, पठानकोट, तरन तारन, गुरदासपुर हैं
तीसरा है दोआबा, जहां 23 सीटें हैं. और जिले ये 4 होशियारपुर, कपूरथला, जालंधर, नवांशहर
इन्हीं कुल तीन में रीजन में पंजाब को देखा जाता है. मालवा में सबसे ज्यादा सीटें हैं तो ताकत भी यहीं पर ज्यादा है और पंजाब का सियासी इतिहास बताता है कि बेअंत सिंह और दरबारा सिंह को छोड़ दें तो बाकी 12 में से 10 सीएम मालवा इलाके से ही बने हैं.
इस बार वही होने जा रहा है. क्योंकि सीएम चन्नी मालवा इलाके के ही रूपनगर जिले से आते हैं. आम आदमी पार्टी के सीएम चेहरा भगवंत मान भी मालवा रीजन के संगरूर जिले से आते हैं. अकाली दल के सुखबीर बादल भी मालवा रीजन से हैं. फजिल्का जिले की जलालाबाद सीट से चुनाव लड़ते हैं. कैप्टन अरिंदर सिंह भी मालवा से हैं. पटियाला अरबन सीट से चुनाव लड़ेंगे. यानि चारों ही दावेदार मालवा रीजन हैं. आम आदमी पार्टी ने पिछले चुनाव में ज्यादातर सीटें यहीं से जीतीं
मतलब सबसे ज्यादा सीटें होने की वजह से मालवा रीजन पर ही सबसे ज्यादा जोर भी है. क्योंकि सरकारें यहीं से बनती आई हैं. तो अब ये जानना भी जरूरी हो जाता है कि किस इलाके में पिछली बार किसे कितनी सीटें मिली थीं, पंजाब की सियासत का एक अंदाजा आपको इससे भी मिलेगा
मालवा रीजन की 69 सीटों में से 40 सीटें कांग्रेस पार्टी को मिली थीं, 18 आप को, 8 अकाली बीजेपी गठबंधन को और अन्य के खाते में 3 गईं.
पाकिस्तान बॉर्डर से सटने वाले मांझा के इलाके में कांग्रेस ने स्वीप किया, 25 में से 22 सीटें जीत ली, आप का यहां खाता नहीं खुला, अकाली गठबंधन को सिर्फ 2 और अन्य के खाते में 1
दोआबा इलाके की 23 सीटों पर भी कांग्रेस ने भारी बढ़त बनाई, 15 सीटें उसे मिली, आप को 2, अकाली गठबंधन को 5 और अन्य को 1
अब यहां से दो बातें साफ होती हैं कि पिछले चुनाव में मालवा इलाके से इतर बाकी जगहों पर आम आदमी पार्टी का ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा, इस बार कोशिश है कि वो बाकी इलाकों में भी पैठ बना सके, जबकि कांग्रेस की पकड़ पैन पंजाब दिखाई पड़ती है. और इन दोनों के मुकाबले में लंबे समय तक पंजाब की सत्ता में काबिज रहा अकाली दल कहां खड़ा है ये पंजाब के जानकारों से ही जान लेते हैं
आशुतोष कुमार जो पंजाब यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं उन्होंने बताया
अकाली दल के लिए लोगों का ग़ुस्सा है. क्योंकि अकाली दल ने शुरू में कृषि कानूनों को समर्थन दे दिया था. बाद में भले ही उन्होंने अपना हृदय परिवर्तन कर लिया. लेकिन किसानों का इस पर कहना है कि आपने यह चुनावी आकलन को देखते हुए किया. यह फैक्टर भी अकाली दल को नुक़सान करेगा.
जानकारों की मानें तो अकाली दल से नाराजगी अब तक दूर नहीं हो पाई है. इसलिए मुख्य मुकाबला आप और कांग्रेस के बीच ही दिखाई पड़ रहा है. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने नई पार्टी जरूर बनाई है, कांग्रेस को कुछ सीटों पर नुकसान भले पहुंचा सकते हैं, मगर सगंठन के तौर पर स्थिति उतनी मजबूत नहीं है. कैप्टन ने बीजेपी के साथ गठबंधन किया है. मगर किसान आंदोलन की वजह से बीजेपी से नाराजगी है और वैसे भी पंजाब में बीजेपी कभी बड़े दावेदार के तौर नहीं रही, वो अकाली दल के सहारे ही सत्ता में आ पाती थी.
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