यह आर्टिकल दी लल्लनटॉप के लिये हिमांशु सिंह ने लिखा है. हिमांशु दिल्ली में रहते हैं और सिविल सेवा परीक्षाओं की तैयारी करते हैं. हिन्दी साहित्य के विद्यार्थी हैं और प्रतिष्ठित करेंट अफेयर्स टुडे पत्रिका में वरिष्ठ संपादक रह चुके हैं. समसामयिक मुद्दों के साथ-साथ विविध विषयों पर स्वतंत्र लेखन करते हैं.
बीते 17 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जन्मदिन था लेकिन युवाओं ने इस दिन राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस मना लिया. इस दिन युवा थाली-चम्मच लेकर सड़क पर उतर आयए. इलाहाबाद में तो बाकायदा थाली पीटते छात्रों ने जुलूस भी निकाले.
दिन भर ट्विटर पर ‘राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस’ ट्रेंड करता रहा, और तभी अचानक एक लट्ठमार अंदाज में गाया गया गीत ट्विटर पर वायरल हो गया. गीत के बोल ऐसे कि पहली मर्तबा सुनते ही ‘आंय!’ निकल जाए.
बिहार की एक 23-24 साल की लड़की भोजपुरी में बेख़ौफ़ होकर उलाहना देने के अंदाज़ में गाये जा रही थी-
रोजगार देबा की करबा ड्रामा, कुर्सिया तोहरे बाप के ना ह
इस गीत के बाद लड़की ने बेरोजगारी के मुद्दे पर ही तीन गीत और गाये, जो हज़ारों बार रिट्वीट और शेयर किए गए.
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रोजगार देबा कि करबा ड्रामा
कुर्सिया तोहरे बाप के ना है…#बेरोजगार_दिवसpic.twitter.com/QHUYGTFCzP— Neha Singh Rathore (@NehaFolksinger) September 17, 2020
#2
बेरोजगारी के आलम में थरिया पीटत बानी…
बिहार से बेरोजगार बोलत बानी.#बेरोजगारी_दिवस#nehasinghrathore#dharoharpic.twitter.com/jdOle2kVNv— Neha Singh Rathore (@NehaFolksinger) September 17, 2020
#3
देत कंपटीशन साहेब झर गइले बार जी…#बेरोजगारी_गीत#Unemployment_Daypic.twitter.com/3sey1CqMOv
— Neha Singh Rathore (@NehaFolksinger) September 17, 2020
#4
अरे इलाहाबाद दिल्ली में खूब पढ़वइया…
है अन्हरी नैय्या के रामै खेवैया#बेरोजगारी_दिवस #17सितम्बर_राष्ट्रीय_बेरोजगार_दिवस #बेरोजगार_दिवस_17_सितम्बर pic.twitter.com/kJVf3ZYB3i— Neha Singh Rathore (@NehaFolksinger) September 17, 2020
कौन है नेहा सिंह?
नेहा सिंह राठौर नाम की ये लड़की दिन भर सोशल मीडिया पर छाई रही. मनोज वाजपेयी, अनुराग कश्यप, अनुभव सिन्हा जैसे बहुत से बड़े नामों ने इसे शेयर किया और सराहा. पर ये पहली बार नहीं है जब नेहा चर्चा में हैं.
इससे पहले कोरोना महामारी की शुरुआत में जब महानगरों से लाखों मजदूरों का पलायन शुरू हुआ था, तब नेहा इस मुद्दे पर पूरी तरह मुखर हुई थीं.
यहां मैं ये कहने से कतई नहीं चूकूंगा कि, उस कठिन समय में, जब जनता के कमाए पैसों से अपना साम्राज्य खड़ा करने वाले तमाम नायक नाकारा साबित हुए; नेहा उन तमाम मजदूरों की आवाज़ बनीं. नेहा ने उनके दुखों को अपने गीतों के माध्यम से व्यक्त किया.
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उस वक़्त जब पूरे बॉलीवुड से अकेले सोनू सूद मजदूरों के लिए डटे हुए थे, नेहा ने भोजपुरी के सम्मान को बचाये रखा था. दुख की बात है कि उस वक़्त तमाम ‘भोजपुरी वीर’ ‘लंहगा में घुसल बा कोरोना’ जैसे गाने बना रहे थे. उस कठिन समय में नेहा ने स्टार, लोकगायक और लोकनायक का फर्क सबको समझा दिया था.
लाखों लोग नेहा के गीतों को सुन चुके हैं, और उनकी ये मुहिम अभी जारी है. फेसबुक और यूट्यूब के माध्यम से वो आम जनता में अपना संदेश पहुंचा रहीं हैं, और करोड़ों रुपये कमाने वाले भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के धुरंधरों को लजवा रही हैं. हमने उनसे बात की तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बताया –
उन्होंने जो कुछ भी सीखा है, वो उनके समाज और देश का उनपर कर्ज है, जिसे लौटाना उनका नैतिक दायित्त्व है. एक कलाकार के रूप में लोक के सुख-दुख उनके गीतों के मुख्य विषय हैं.
नेहा ने न सिर्फ मजदूरों के दुख को समझा, बल्कि उन स्त्रियों को भी आवाज़ दी, जो पुरुष मजदूरों की भीड़ में बच्चे जनती, ईंटे ढोतीं दोहरी जिम्मेदारियों का बोझ उठाती हैं. नेहा ने उस मजदूर स्त्री को भी अपने गीत का विषय बनाया, जिसने महानगर से घर लौटने की पैदल यात्रा के बीच बच्चे को जन्म दिया, और अगले ही दिन बच्चे को हाथ मे लेकर फिर से महायात्रा पर निकल पड़ी.
सवाल ये है कि जरूरतमंद और दबे-कुचलों की मदद कर रहे इन लोकनायकों को अब तक मीडिया कवरेज क्यों नहीं मिला? क्यों उनके हिस्से का महत्त्व और प्रतिष्ठा दूसरे लोग हड़पते रहे?
जबकि सच ये है कि उनकी लिखी कविताएँ भी मजदूरों की पीड़ा को ही अपना विषय बनाती रही हैं.
एक बानगी देखिए
मजूर कबिता
ऊ ठेहुना ना टेकलें
ना झुकलें बदहाली के आगे
मरज़ाद के पूंजी कांख में दबाइके
निकल पड़लें छोड़ ई महादेश के भटूरा नगरी
महानगरन के ई किसान
सड़की के थरिया बनाके
खइलें दाल-भात-सतुआ-पिसान
सुति गइलें उहे थरिये में
जगले, औरि चल पड़िले थरियवे में
केहू पहुंचले ठेकाना ले
केहू थरिये के भेंट चढ़ि गइलें
कहरत, बकबकात मुर्छाइल कहे
परदेस आपन ना ह
देसौ आपन ना ह.
यहां समझने की बात है कि लोक-कला वो नहीं है जहां लोक की आड़ में अपनी रोटियां सेंकी जाएं, और लोक की संस्कृति विकृत हो, बल्कि लोककला तो वो है जो लोक के पक्ष को कला के माध्यम से फलक तक ले जाए, और लोक की छवि को बेहतर बनाते हुए उसे समृद्ध करे. ऐसे में जो व्यक्ति अपनी कला के माध्यम से ये करने का बीड़ा उठाता है, वही असली लोक-कलाकार है.
कहीं सुना था कि शे’र और शायरी कविताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली होते हैं, क्योंकि शे’र कहे जाते हैं और कविताएं पढ़ी जाती हैं. कही हुई चीज़ पढ़ी हुई चीज से ज्यादा ताकतवर होती ही है.
ऐसे में, अगर कोई व्यक्ति लोक की बात, मजबूत तरीके से अपनी कोमल भदेस आवाज़ में सटीक शब्दों के साथ गाकर कहे, तो वो व्यक्ति न सिर्फ लोकगायक है, बल्कि लोकनायक भी है.
आज नेहा जैसे लोक-कलाकार असली भोजपुरी गीत-संगीत को उसकी जड़ों से जोड़ने में लगे हुए हैं. ऐसे लोग ही भोजपुरी के असल नायक हैं, जो भोजपुरी को ‘देवर-भाभी संवाद’ और ‘परधान की रहरिया’ से निकाल कर वापस भिखारी ठाकुर और शारदा सिन्हा की परंपरा से जोड़ेंगे.
यही लोकनायक भोजपुरी गीतों को भोजपुरी के उन कपूतों से निजात दिलाएंगे, जिन्होंने भोजपुरी को बदनाम करके रख दिया, और जिनपर ये कहावत एकदम सटीक है-
कुल्हाड़ी में लकड़ी का दस्ता न होता
तो लकड़ी के कटने का रस्ता न होता.
उम्मीद है भोजपुरी गीत-संगीत जल्दी ही अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस पा जाएगा, जो बीते कुछ दशकों से धूमिल हो रही है, और जिसके चलते शेष भारत में भोजपुरी अश्लीलता और मजाक की विषयवस्तु समझी जा रही है. पूरी उम्मीद है कि नेहा जैसी लोकगायिका ही एक दिन भोजपुरी को राजभाषा का दर्जा भी दिलवाएंगी.
विडियो- ‘राष्ट्रीय बेरोजगार दिवस’ ट्रेंड होने पीछे की क्रोनोलॉजी क्या थी?