हम सभी क़ैद में हैं, लेकिन हममें से कुछ एक की काल कोठरियों में खिड़कियां और दरवाज़े हैं. ये कहा था अपने देश से बहिष्कृत कर दिए गए ख़लील जिब्रान ने.
दीवारों में खिड़कियों के होने से, दरवाज़ों के होने से, घर एक कहानी से कविता में बदल जाता है. अगर हर घर कुछ कहता है, तो यक़ीन करो हर खिड़की कुछ गुनगुनाती है. हर दरवाज़ा कोई साज बजाता है.
कहीं जाने की रोक हो, तो भी हाथ फैलाने की जगह देती हैं खिड़कियां. यूं इन खिड़कियों को अपना पर्सनल आकाश कहना आज से.
दरवाज़ों को भी नया नाम दे देना. सुनो… इन्हें उम्मीदें कहना. उम्मीदें किसी के आमद की, उम्मीदें उस सुख कि जिसके बारे में विनोद कुमार शुक्ल ने कहा है कि कितना सुख था, मैं बार-बार घर से बाहर निकलूँगा, घर लौटकर आने के लिए.
चाहे कुछ भी हो, अपनी खिड़कियों को खुला रखना. आने देना कमरे में थोड़ी धूप और कुछ मुस्कुराहटें.
चाहे कितना ही कठिन समय हो, दरवाज़ों पर वेलकम वाले पायदान लगाए रखना.
यूं कि जब सब कुछ हो चुकेगा, सारी क्रांतियाँ, सारे युद्ध, तुम देखोगे एक दरवाज़ा तब भी खुला है प्रेम का. देखना, कबूतर की तरह सहमते हुए ही सही, एक-एक कर खिड़कियों के रास्ते आने शुरू होंगे भले दिन.
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