ये देवताओं के भोज का मौसम है. शहरों गांवों की देगची चढ़ चुकी है.
आसमान में कोयला बढ़ा रहा ईश्वर. छतें उबलने लगीं हैं.
नदी भाप होकर टपक रही है तिहत्तर के रामबचन या राम अवतार की आंखों से.
शहर से गांव जाते हुए बोतल बंद नदी लपक रहे हैं मजदूर.
इंसान के जिस्म में सबसे ज़्यादा है पानी. आग, मिट्टी, हवा और आसमान से भी ज़्यादा.
कहते हैं इन्हीं पांच तत्वों को गूंथकर बना है ये शरीर.
शहर की आग से बचने को अपनी मिट्टी की तरफ़ लौटता, खुले आसमान के नीचे कोई निहार रहा है पानी.
हम सबके चेहरों जैसा है पानी. इसीलिए पानी की अपनी शक्ल नहीं होती.
प्यास का कोई रंग नहीं होता. प्यास का सिर्फ़ एक रंग होता है, और वो है बेरंग पानी.
हर दिन बदलती दुनिया में भी कोई रंग नहीं चढ़ा पानी पर.
नदी ने इठलाते हुए कभी नहीं ली कोई तस्वीर, इंसान को प्यास भर पानी देते हुए.
पानी ने फ़ायदा पहचाना ही नहीं कभी. पानी धरती पर हिलोरें लेता बलखाता देवता है.
ये देवभोज का मौसम है.
क्या देवता लोग मद्धम आंच पर उबालकर ‘प्रेम’ खाते हैं? नदी भाप बनकर उमड़ती है हम सबकी आंखों में.
प्यास का एक ही रंग है, पानी.
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