दुनिया में आम तौर पर सबसे ज़्यादा दी जाने वाली सलाह कौन सी है?
शायद ये कि ‘अच्छा काम करो’. आसान सलाह है. बस एक पेंच है. अच्छा आख़िर होता क्या है. आसमानी किताब की मानें तो जवाब आसान है. जो लिखा है सो सही है. लेकिन आसमानी किताब भी एक थोड़े ही है. और हर किताब में अच्छे-बुरे का हिसाब अलग-अलग है. दासप्रथा को ही लीजिए. 18 वीं सदी तक ओल्ड टेस्टामेंट का हवाला देकर ग़ुलामी को पश्चिमी देशों में जायज़ ठहराया जाता रहा. यह भी तर्क दिया गया कि मसीहा ने कभी ग़ुलामी को ग़लत नहीं कहा.
आज 21 वीं सदी में भी कुछ लोगों द्वारा ग़ुलामी को वाइट वॉश किया जाता है. इसे इंडेंचर्ड सर्विट्यूड का नाम देकर.
क्या होता है इंडेंचर्ड सर्विट्यूड?
मान लीजिए रामू ने सोमू के कुछ पैसे चुकाने हैं. जो वो नहीं चुका पा रहा है. तो सोमू रामू से कहता ह, कि वो कुछ साल उसके यहां बिना तनख़्वाह की नौकरी कर ले. और इस तरह उसका क़र्ज़ चुकाया हुआ मान लिया जाएगा. बस यही होता है इंडेंचर्ड सर्विट्यूड. इससे पहले कि इंटर्नशिप कर रही जनता खुद से रिलेट करने लगे, बता दें कि असलियत में यह सब इतना सिम्पल नहीं है.
पहले तो फ़ैक्ट ये है कि पश्चिमी देशों मेंइंडेंचर्ड सर्विट्यूड की शुरुआत दास प्रथा के खात्में के बाद हुई थी. दूसरा, इंडेंचर्ड सर्विट्यूड वाले तर्क को मान भी लें तो ये तरीक़ा दास प्रथा के कुछ कम क्रूर नहीं था. 19 वीं सदी की शुरुआत में लाखों गरीब भारतीयों को इसी इंडेंचर्ड सर्विट्यूडका नाम लेकर विदेश ले ज़ाया गया. जहां उन्हें नर्क से भी बदतर हालत में दिन गुज़ारने पड़े.

आज हम इन लोगों को गिरमिटिया मज़दूर के नाम से जानते हैं. कौन थे ये लोग और किस तरह इन्हें बंधुआ मज़दूरी में फ़ंसाया गया, आइए जानते हैं. आज 2 नवंबर है और आज की तारीख़ का संबंध है ‘गिरमिटिया जहाजियों’ से. 1791 और 1800 के बीच ब्रिटिश जहाज़ों ने अटलांटिक महासागर में 1340 यात्राएं की. ये राहुल सांकृत्यायन की ‘अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा’ नहीं बल्कि कारोबारी यात्राएं थी. कारोबार किस चीज़ का?
इंसान का. बराबर वाले नहीं, अपने से नीचे, काले और भूरे इंसानों का कारोबार. 16 वीं और 17 वीं शताब्दी में ब्रिटेन के औपनिवेश बढ़े तो ब्रिटेन में समृद्धि भी बढ़ी. उच्च वर्ग को मिठास का चस्का लगा. और चीनी की मांग बढ़ने लगी. चीनी बनती थी गन्ने से. और गन्ना उगाया जाता था कैरेबियन द्वीपों में. आज के हिसाब से वेस्ट इंडीज़ में. यहां अफ़्रीका से लाए गए ग़ुलामों को गन्ने की खेती में लगाया जाता था. 1791 से 1807 के बीच जहाज़ों में 6 लाख 60 हज़ार ग़ुलामों को खेतों में काम करने के लिए ब्रिटिश कॉलोनियों में ले ज़ाया गया.
स्लेव ट्रेड ऐक्ट
इस स्थिति में अंतर आया 19वीं सदी की शुरुआत में. 1801 में ब्रिटेन में दास प्रथा के ख़िलाफ़ आवाज़ें उठना शुरू हुई. इसके नतीजे में 1807 में ब्रिटिश संसद ने स्लेव ट्रेड ऐक्ट पास किया. तब दुनिया के अधिकतर समुद्री रास्तों पर ब्रिटिश रॉयल नेवी का दबदबा था. स्लेव ट्रेड ऐक्ट के तहत ग़ुलामों को ले जाने वाले जहाज़ों पर पाबंदी लगा दी गई. और ऐसे जहाज़ों को पकड़े जाने पर 100 पाउंड प्रति ग़ुलाम का फ़ाइन लगाया जाने लगा.

अच्छे इरादे से बनाए गए इस क़ानून ने ग़ुलामों की ज़िंदगी और बदतर कर दी. होता ये कि ग़ुलामों को छुपाकर ले ज़ाया जाता. अगर कोई रॉयल नेवी का शिप नज़र आता तो फ़ाइन से बचने के लिए ग़ुलामों को पानी में फ़ेंक दिया जाता. इसके अलावा इस क़ानून ने ग़ुलामों की स्मग्लिंग को भी जन्म दिया. काले बाज़ार में ग़ुलामों की क़ीमत बढ़ी. और स्लेव ट्रेड और ज़्यादा मुनाफ़े का कारोबार बन गया.
हिंद महासागर में मॉरीशस तब एक महत्वपूर्ण ट्रेडिंग पोर्ट हुआ करता था. तब ये फ़्रेंच कॉलोनी का हिस्सा हुआ करता था. हिंद महासागर में ग़ुलामों से भरे जहाज़ इसी पोर्ट से होकर गुजरते थे. ब्रिटिश-फ़्रेंच लड़ाइयों के बाद 1814 में ब्रिटिशर्स ने मॉरीशस पर क़ब्ज़ा कर लिया. और स्लेव ट्रेड ऐक्ट के तहत ग़ुलामों से भरे जहाज़ों के पास होने पर बैन लगा दिया. स्लेव ट्रेड से होने वाली कमाई में कमी आई तो ब्रिटिश सरकार ने चीनी के उत्पादन को बढ़ावा दिया. 1820 तक मॉरीशस में 11 हज़ार टन चीनी का उत्पादन होता था जो 1826 तक 21 हज़ार टन हो गया.
इसी बीच ग़ुलामी के ख़ात्मे के लिए 1833 में ब्रिटिश संसद ने एक और ऐक्ट पास किया. नाम था स्लेवरी एबोलिशन ऐक्ट. जिसके तहत ग़ुलामों के कारोबार को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया. कैरेबियन द्वीपों में चीनी का उत्पादन पूरी तरह से स्लेव ट्रेड पर निर्भर करता था. इसलिए नए क़ानून ने वहां चीनी के प्रोडक्शन पर बहुत असर डाला. इसका फ़ायदा हुआ मॉरीशस को. और वो दुनिया में चीनी का सबसे बड़ा स्त्रोत बन गया. दास प्रथा के ख़ात्मे के चलते लेबर सप्लाई में दिक़्क़तें आना शुरू हुई. तब अंग्रेजों ने एक नया तरीक़ा निकाला. और इसे नाम दिया ‘द ग्रेट एक्स्पेरिमेंट’
क्या था ये ‘ग्रेट एक्स्पेरिमेंट’?
18 वीं शताब्दी के अंत तक भारत में ब्रिटिश EIC की पकड़ मज़बूत हो चली थी. रियासतों की आपसी लड़ाई में गरीब जनता पिस रही थी. अंग्रेज भी लूट-खसोट के नित नए तरीक़े ईजाद कर रहे थे. नतीजा हुआ, भुखमरी और अकाल. 18वीं सदी के आख़िरी सालों में अकाल से भारत में 3 करोड़ लोगों की मौत हुई.
लोग दाने-दाने के मोहताज थे. और इसका फ़ायदा उठाया मॉरीशस की ब्रिटिश कंपनियों ने. लोगों को नौकरी का झांसा दिया गया. और इसके लिए बनाया गया एक एग्रीमेंट. जिसमें शामिल था कि मज़दूर को 5 साल तक काम करना होगा. जिसके बाद ही वो भारत वापस लौट सकेगा. कुछ सिर्फ़ इसलिए तैयार हो गए कि खाने का जुगाड़ हो जाएगा तो कुछ को क़र्ज़ वसूली के नाम पर फंसा लिया गया. एग्रीमेंट शब्द भारतीय भाषा में ढाला तो बन गया गिरमिट. और गिरमिट हासिल करने वाले लोग कहलाए गिरमिटिया मज़दूर. चूंकि इन्हें पानी के रास्ते जहाज़ से मॉरीशस ले ज़ाया जाता था. इसलिए इन्हें गिरमिटिया जहाज़ी भी बुलाया जाता है.

मॉरीशस ले जाए गए पहले गिरमिटिया जहाज़ी atlas नाम के जहाज़ में सवार हुए थे. और एग्रीमेंट बनाने वाले अंग्रेज अधिकारी का नाम था जॉर्ज चार्ल्स. 10 सितम्बर 1834 के दिन जॉर्ज चार्ल्स ने कलकत्ता में 36 भारतीयों से एग्रीमेंट पर साइन करवाए. ये सब बिहार के रहने वाले थे और कलकत्ता में मज़दूरी किया करते थे. एग्रीमेंट के हिसाब से आदमियों को 5 रुपए और औरतों को 4 रुपए प्रति माह मिलने तय हुए थे.
आज ही के दिन यानी 2 नवंबर 1834 को atlas जहाज़ मॉरीशस पहुंचा. और इन पहले 36 भारतीयों ने एंट्वानेट नाम की शुगर फ़ैक्टरी में काम की शुरुआत की. जिस घाट पर ये लोग उतरे थे उसे ‘अप्रवासी घाट’ के नाम से जाना जाता है. आज ये एक वर्ल्ड हेरिटेज साइट है. और हर साल मॉरीशस में 2 नवंबर अप्रवासी दिवस के रूप में मनाया ज़ाता है.
1834 से 1910 के बीच 451,746 भारतीय गिरमिटिया जहाजियों को भारत से मॉरीशस ले ज़ाया गया. मॉरीशस के शुगर प्लांटेशन में गिरमिटिया मज़दूरों की हालत दयनीय रही. मज़दूरी की रक़म भी समय पर नहीं दी जाती. ले जाते समय यह बताया जाता था कि 5 साल में लौट सकते हैं लेकिन वापस लौटने का माध्यम जहाज़ थे. और उन पर अंग्रेजों का कंट्रोल था. ये सिस्टम दास प्रथा से सिर्फ़ नाम में अलग था. 1860 तक ब्रिटिशर्स कहते रहे कि लोगों को वापस जाने की आज़ादी है. लेकिन 1860 में वापस लौटने का क्लॉज़ भी एग्रीमेंट से हटा दिया गया.
गिरमिटिया जहाजियों की कहानी
1860 में बाकी दुनिया में चीनी का प्रोडक्शन बढ़ा. और 1869 में स्वेज कनाल का रास्ता खुला तो भारतीय महासागर में ट्रेड कम होने लगा. 1878 में लेबर लॉ बनाया गया. जिसके तहत पेमेंट नियमित की गई. इन्हीं सब कारणों के चलते 19 वीं सदी के अंत तक गिरमिटिया मज़दूरों के आयात में कमी हुई. और चूंकि खेती का काम पहले जितना प्रॉफ़िट का नहीं रहा तो छोटी-छोटी ज़मीन पर कुछ गिरमिटिया मज़दूरों ने मालिकाना हक़ ख़रीद लिया.

1917 में आंदोलन के चलते ब्रिटिश सरकार ने इंडेंचर्ड सर्विट्यूड को ख़त्म कर दिया. गिरमिटिया मज़दूरों को वापस लौटने का मौक़ा दिया गया. लेकिन अधिकतर लोगों की 3-4 पीढ़ियां इन्हीं ज़मीनों पर पली बढ़ी थीं. उन्होंने मॉरीशस में ही रुकना चुना. 1931 तक मॉरीशस की कुल आबादी का 68 % हिस्सा भारतीयों का था. और इनमें से 90 % ऐसे थे जो वहीं पैदा हुए थे. वर्तमान में मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ के पूर्वज भी गिरमिटिया जहाज़ी के रूप में मॉरीशस पहुंचे थे.
गिरमिटिया जहाजियों की कहानी आज भी प्रासंगिक है. क्योंकि सारे नियम-क़ानूनों के बावजूद आज भी दुनिया में बंधुआ मज़दूरी क़ायम है. भारत में भी गाहे-बगाहे ऐसी खबरें अख़बार का हिस्सा होती हैं. लेकिन आज के गिरमिटिया खाड़ी के देशों में कैद हैं. जहां खाड़ी भारत के 90 लाख लोग अनस्किल्ड या सेमी-स्किल्ड क्षेत्र में काम करते हैं. नौकरी के नाम पर गए ऐसे लाखों लोगों को बेहद अमानवीय हालत में काम करना पड़ता है. इतना ही नहीं कई बार इनके पासपोर्ट भी जमा कर लिए जाते हैं. ताकि ये लोग आसानी से ना लौट सकें.
इतिहास रोज़ खुद को दोहराता है. इसे सिर्फ़ इसलिए नहीं पढ़ा जाना चाहिए कि इसमें रोचक कहानियाँ है. बल्कि इसलिए ताकि हम समझ सकें कि आज जो कुछ दुनिया में हो रहा है उसके क्या कारण थे. परिणाम की सूरतें बदल चुकी हैं. लेकिन उनके कारण वहीं है जो इतिहास में हमेशा से रहते आए हैं.
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