मीरा कुमार जी बड़ी भोली हैं. मासूम हैं. उनकी अपील है कि राष्ट्रपति पद के चुनाव में निर्वाचक मंडल अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट करें. इस अपील को सुनकर कुछ युवा नेता वास्तव में चाहने लगे हैं कि वो अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट करें. लेकिन उनकी परेशानी यह है कि उन्हें नहीं मालूम कि यह आवाज़ कैसी होती है? उन्होंने सुना ज़रुर है कि गुज़रे ज़माने में राजनेता राजनीति से ऊपर उठकर अंतरात्मा की आवाज़ सुना करते थे. लेकिन कैसे ? ये कोई बताने वाला नहीं है. संसद-विधानसभा-पंचायतों वगैरह में इस तरह का कोई कोर्स भी कभी नहीं कराया गया, जिसमें राजनेताओं को यह बताया गया हो कि अंतरात्मा की आवाज़ सुनने के क्या तरीके हैं.
अंतरात्मा अपनी आवाज़ किसी स्पीकर में भी नहीं कहती, जिससे उसे आसानी से सुना जा सके. बाहर की दुनिया में इतना बवाल, इत्ता हंगामा है कि असल में बोली हुई बात तो कई बार सुनना मुश्किल होता है, अंतरात्मा की आवाज़ कहां सुनी जाएगी? फिर, संसद-विधानसभा में रहकर नेताओं के कान भी धीमी आवाज़ को सुन नहीं पाते. संसद-विधानसभा वगैरह में पहले ही इतना हल्ला होता है कि कई बार सांसद-विधायक अपनी बात समझाने के लिए इशारों का इस्तेमाल करते हैं. और कई नेता तो हल्ला में गुल्ला मिलाकर ऐसा मारक किस्म का हल्ला-गुल्ला करते हैं कि कान फट जाते हैं. खुद नेता समझ नहीं पाते कि कौन क्या बक रहा है. ऐसे में नेता अंतरात्मा की आवाज़ कैसे सुनें?
कुछ नेताओं को कभी-कभार अंतरात्मा की हल्की-फुल्की आवाज़ सुनाई दे जाती है तो वे उसे नज़रअंदाज करने में ही भलाई समझते हैं. वे जानते हैं कि अंतरात्मा की आवाज़ सुनने से ज्यादा ज़रुरी है आलाकमान की आवाज़ सुनना. आलाकमान वो शख्स होता है, जो बिना कमान के लक्ष्य को भेद देता है. आलाकमान ही टिकट देता है. आलाकमान ही मंत्रीपद देता है. आप कितने ज्ञानी हों, कितने समझदार हों लेकिन आलाकमान की आवाज़ आपको सही-सही सुनाई नहीं देती तो आपकी सारे ज्ञान-समझदारी और अक्लमंदी का लब्बोलुआब शून्य है. समझदार राजनेता जानते हैं कि आलाकमान की आवाज़ ही असल आवाज़ है. क्योंकि टिकट नहीं मिला तो पूरी राजनीति धरी की धरी रह जाएगी और पार्टी के सत्ता में आने के बाद मलाईदार पद नहीं मिला तो राजनेता होने का फायदा ही क्या. आत्मा का क्या है. वो अजर-अमर है. गीता में साफ साफ भगवान कृष्ण ने समझाया है-
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः
आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते. अग्नि जला नहीं सकती. पानी इसे भिगो नहीं सकता. यानी आत्मा तो आत्मा रहनी ही है. आत्मा रहेगी तो उसकी आवाज़ भी रहेगी. इस जन्म में न सुन पाएंगे तो अगले जन्म में सुन लेंगे.

लेकिन जिन राजनेताओं को अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट करने की अपील बड़ी ‘फैसिनेटिंग’ लग रही है, वो समझ नहीं पा रहे कि क्या करें ? इस आवाज़ का कोई रिकॉर्ड नहीं है, किसी सीडी में उपलब्ध नहीं है, किसी पैन ड्राइव में सेव करके रखा नहीं गया तो परेशानी ज्यादा है. कुछ राजनेता सोच रहे हैं कि विज्ञापन दे दें –
” प्रिय अंतरात्मा की आवाज़, तुम जहां कहीं हो लौट आओ. तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा. तुम्हें अभी तक हमने भले न सुना हो लेकिन अब हम सुनेंगे. राष्ट्रपति पद का चुनाव नजदीक है. इस वक्त अंतरात्मा की आवाज़ सुनने की अपील की जा रही है. प्लीज लौट आओ.”
कुछ जानकार बताते हैं कि अंतरात्मा सीने में होती है, नेता चेक करके देखता है तो पाता है कि वहां तो हार्ट होता है, जो नेताओं में या तो होता ही नहीं या अक्सर फेल हो जाता है.
ऐसा नहीं है कि नेताओं को कभी भी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती. कभी-कभी ऐसे मौके भी आते हैं, जब राजनेताओं को एक साथ अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई देती है. जब कभी राजनेताओं के वेतन-भत्ते की बढ़ोतरी का प्रस्ताव पेश किया जाता है तो सभी राजनेता अपनी अंतरात्मा की आवाज़ पर उसे बढ़ाने के पक्ष में वोट देते हैं. सबकी अंतरात्मा एक सुर में बोलती हैं. फिर-प्रस्ताव भले खज़ाने को मोटा चूना लगाने वाला हो. प्रस्ताव भले सबसे बड़ी दुश्मन पार्टी ने रखा हो.

वैसे, सच ये भी है कि इन दिनों राजनेताओं को क्या किसी को भी अंतरात्मा की आवाज़ सुनाई नहीं देती. बलात्कार की घटनाओं से पटे पेज को देखकर कभी हमारी अंतरात्मा नहीं कहती कि इस मुद्दे पर आंदोलन हो. भ्रष्टाचारी राजनेताओं को जीभर कर कोसने वाले हम लोग मौका पड़ने पर रिश्वत देने-लेने से नहीं हिचकते और उस वक्त हमारी अंतरात्मा नहीं कहती कि यह गलत है. सड़क दुर्घटना में घायल शख्स को वहीं पड़ा रहने देते हुए हमें अपनी मीटिंग का महत्व ज़्यादा दिखाई देता है. किसानों की खुदकुशी एक आंकड़े में तब्दील हो गईं, लेकिन हमारी अंतरात्मा की आवाज़ कभी नहीं कहती कि किसानों की मदद की जानी चाहिए.
दरअसल, ऐसा लगता है कि बीते कई साल से अंतरात्मा की आवाज़ ही लंबी छुट्टी पर चली गई है और छुट्टी खत्म होने का नाम नहीं ले रही.
पीयूष पांडे टीवी पत्रकार हैं. व्यंग्यकार हैं. किताबें भी लिखी हैं, हाल ही में आई ‘धंधे मातरम’. पीयूष जी अब हमारे-आपके लिए भी लिख रहे हैं. पाठक उन्हें ‘लौंझड़’ नाम की इस सीरीज में पढ़ रहे हैं.
धंधे मातरम ऑनलाइन खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें.
‘दी लल्लनटॉप’ की महामहिम सीरीज़ की पहली किस्त यहां देखें:
लौंझड़ की पिछली किस्तें यहां पढ़ेंः
अच्छा बताइए ‘कॉमरेड’ क्या होता है?
जब मम्मी कहती थीं, ‘तुम्हारे फोन में आग लगे’, सही कहती थीं
यहां पांच मिनट में टीवी चैनलों का एक्सपर्ट बनना सिखाया जाता है
CBSE 12वीं नतीजेः 97.35 फीसद से कम नंबर वाले ये पढ़ें
एक चीयरलीडर का दर्द- ‘पीएम चीयरलीडरिंग पर भी मन की बात करें’
लौंझड़- हमारे यहां 100 फीसदी टंच सत्याग्रही बनाए जाते हैं
सरकार ने स्वच्छता अभियान भारतीयों पर थोपकर एक महान परंपरा भंड कर दी