शनिवार 31 मार्च की शाम ऑनलाइन मीडिया पर एक खबर चमकी. केन्द्रीय कांग्रेस कमिटी में बड़ा बदलाव होने की खबर आई. जनार्दन द्विवेदी की महासचिव पद से छुट्टी करते हुए उनकी जगह अशोक गहलोत को लाया गया था. उन्हें संगठन के मामलों की कमान सौंपी गई. गुजरात में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन के बाद इस बदलाव ने शायद ही किसी को अचम्भे में डाला हो.
राजस्थान के मुख्यमंत्री रह चुके अशोक गहलोत की छवि हमेशा से संगठन के आदमी की रही है. वो कांग्रेस के उन चुनिंदा नेताओं में शामिल हैं जो कांग्रेस के अनुषांगिक संगठनों से होते हुए कांग्रेस में आए हैं. 1971 के युद्ध के समय वो सेवा कांग्रेस में हुआ करते थे और बंगाल के शरणार्थी कैम्पों में काम करते हुए उन्होंने सियासत का ककहरा पढ़ा था. वो कांग्रेस के छात्र मोर्चे NSUI के प्रदेश अध्यक्ष भी रह चुके हैं.

जिस समय यह खबर आई, अशोक गहलोत अपने गृह जिले जोधपुर में थे. कुछ ही घंटों में उन्हें जोधपुर से दिल्ली के लिए उड़ान भरनी थी. लेकिन उन्होंने दिल्ली आने का कार्यक्रम निरस्त कर दिया. इस खबर के राजस्थान पहुंचते ही यह चर्चा तेज हो गई कि मुख्यमंत्री पद के लिए सचिन पायलट की उम्मीदवारी मजबूत हो गई है और अशोक गहलोत को केन्द्रीय नेतृव में जगह देकर राहुल गांधी ने इस बात का साफ़ इशारा दे दिया है.
दरअसल राजस्थान में कांग्रेस फिलहाल साफ तौर पर दो धड़ों में बंटी हुई है. पहले धड़े का नेतृव सचिन पायलट कर रहे हैं. वहीं दूसरे धड़े की वफ़ादारी अशोक गहलोत के साथ में है. सचिन के पिता राजेश पायलट और अशोक गहलोत किसी दौर में एक-दूसरे के काफी करीबी रहे हैं. आज अपने दोस्त के बेटे से उन्हें राजनीतिक चुनौती झेलनी पड़ रही है. पिछले चार महीने में आए दो चुनावी नतीजों ने दोनों खेमों की दावेदारी को पुख्ता करने का काम किया है.
अशोक गहलोत के करीबी बताते हैं कि वो जोधपुर से कितना भी दूर रहें, राखी के रोज हर हाल में जोधपुर पहुंचते हैं. 2017 पहला ऐसा साल था, जब ऐसा नहीं हुआ. वो गुजरात के प्रभारी थे और 9 अगस्त, 2017 को गुजरात में राज्यसभा के चुनाव थे. राखी से ठीक दो दिन बाद. गहलोत अप्रैल 2017 से ही गुजरात में जाकर जम गए थे और विधानसभा चुनाव तक वहीं बने रहे. वो दीपावली के मौके पर भी गुजरात में ही थे. कांग्रेस को इसका फायदा मिला. हालांकि कांग्रेस चुनाव हार गई लेकिन उसने मोदी के घर में बीजेपी को कांटे की टक्कर दी. गुजरात विधानसभा में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन ने गहलोत के सियासी रसूख को खूब मजबूत किया.

गुजरात चुनाव के नतीजे आने के एक महीने बाद राजस्थान में दो लोकसभा और एक विधानसभा सीट पर उप-चुनाव हुए. इन चुनावों की कमान राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट के हाथ में थी. सचिन 2014 में अजमेर लोकसभा सीट से बीजेपी के नेता सांवर लाल जाट के खिलाफ चुनाव हार चुके थे. इससे पहले वो 2009 में इसी सीट से सांसद थे. इस उप-चुनाव की शुरुआत में उनकी उम्मीदवारी के कयास लगाए गए. उस समय सियासी हलकों में यह चर्चा तेज थी कि पायलट को लोकसभा भेजकर गहलोत के लिए रास्ता साफ़ किया जा सकता है. आखिरकार टिकट दिया गया रघु शर्मा को. इस उप-चुनाव में कांग्रेस ने पायलट के नेतृव में तीनों सीटों पर जीत दर्ज की. इसने मुख्यमंत्री पद के लिए पायलट की दावेदारी को मजबूत कर दिया.
गहलोत के AICC का महासचिव बनाए जाने की खबर आने के कुछ ही मिनटों के बाद जोधपुर जिला कांग्रेस कमिटी के दफ्तर पर जश्न मनाया जा रहा था और गहलोत ने खुद को पत्रकारों से घिरा हुआ पाया. उनके एक बयान ने सूबे में कुछ घंटों पहले शुरू हुई कयासबाजी को एकदम से धराशायी कर दिया-
“सूबे का कोना-कोना, हर गांव, हर ढाणी मेरे दिल में बसी हुई है. मैं आपसे दूर नहीं हूं. इससे पहले भी मैं AICC का महासचिव था और मुख्यमंत्री बनके राजस्थान लौटा था.”

गहलोत अपने इस बयान में 2008 का हवाला दे रहे थे. 2003 में चुनाव हारने के बाद उन्हें कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में जगह दे दी गई थी. वो पांच साल तक AICC के महासचिव रहे. 2008 के विधानसभा चुनाव में भी कम-ओ-बेश स्थितियां आज जैसी ही थीं. उस समय मेवाड़ के कद्दावर कांग्रेसी नेता सीपी जोशी गहलोत के प्रबल प्रतिद्वंदी थे. 2008 के विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान वो कार्यकर्ताओं से कहते हुए पाए गए,
“इस बार तो मेरा चांस कम ही है”.
2008 के राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजों में सबसे बड़ा उलटफेर था मुख्यमंत्री पद के प्रमुख दावेदार सीपी जोशी का चुनाव हार जाना. जोशी राजसमंद जिले की नाथद्वारा सीट से महज एक वोट के अंतर से चुनाव हार गए. इसे महज एक संयोग कहा जा सकता है लेकिन जोशी के कई समर्थक इसके लिए गहलोत को जिम्मेदार ठहराते रहे. गहलोत राजस्थान के उन नेताओं में से हैं जिनकी जमीन पर पकड़ बहुत मजबूत है. उनके बारे में यह कहा जाता है कि सभी 200 विधानसभा में उनके दो से पांच हजार समर्थक मिल जाएंगे.

राजस्थान में हुए उप-चुनाव के नतीजे आने के बाद 22 फरवरी को दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान की एक महत्वपूर्ण बैठक हुई. इस बैठक के बाद मीडिया में आई खबरों की सुर्खी थी, ‘राजस्थान में कांग्रेस बिना किसी चेहरे के चुनाव लड़ेगी.’ यह खबर एक तरह से गहलोत का दावा थी कि वो मुख्यमंत्री पद की दावेदारी से पीछे हटने वाले नहीं हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो केंद्रीय नेतृव में जाने से अशोक गहलोत की उम्मीदवारी कमजोर होने की बजाए मजबूत ही हुई है. हालांकि पायलट की तरफ से मिल रही चुनौती काफी कड़ी है.
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