हमें वर्णमाला में पढ़ाया जाता है अ से अनार, आ से आम, क से कबूतर, ख से खरगोश, घ से घड़ी, च से चरखा. हिंदी की पूरी वर्णमाला ऐसे ही पढ़ाई जाती है. आज भी ये प्रथा कायम है. लेकिन एक हिंदी भाषी राज्य झारखंड में नई तरह से वर्णमाला पढ़ाई जा रही है. दैनिक भास्कर की रिपोर्ट के मुताबिक नई वर्णमाला कुछ ऐसी है.

# अ से अधिग्रहण. सरकार आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण कर लेती है.
# आ से आदिवासी. आदिवासी मूल नागरिक हैं.
# ख से खनिज. खनिज संपदा आदिवासियों की है.
# ग से ग्राम सभा. ये आदिवासियों की परंपरा है.
# घ से घंटी. घंटी बजाने वाला ग्रामीण विरोधी है.
# च से चाचा नेहरू. नेहरू चोरों के प्रधानमंत्री थे.
# छ से छलकपट. सरकारी अधिकारी छलकपट करते हैं.
# व से विदेशी. आदिवासियों को छोड़कर सभी विदेशी हैं.
ये पढ़ाई हो रही है झारखंड की राजधानी रांची से सटे खूंटी जिले में. ये खूंटी जिला फिलहाल एक महीने से चर्चा में है. और इसकी वजह से आदिवासियों की एक पुरानी परंपरा पत्थलगड़ी, जिसपर सरकार और आदिवासी आमने-सामने हैं. दरअसल जिस झारखंड राज्य में ये हो रहा है, उसके नाम का शाब्दिक अर्थ होता है वन क्षेत्र. यानी वो इलाका जो जंगलों से घिरा है. यह भारत का 28वां राज्य है, जो 15 नवंबर 2000 से अस्तित्व में है. ये एक आदिवासी बहुल राज्य है. यहां पर आबादी का एक बड़ा हिस्सा मुंडा, हो और संथाल जनजातियों का है. इन जनजातियों की अपनी कुछ परंपराएं हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं. पत्थलगड़ी भी उनमें से एक है.

1845 में अंग्रेजों के आने के बाद इस आदिवासी बहुल राज्य की एक बड़ी आबादी ने ईसाई धर्म अपना लिया, लेकिन उन्होंने अपनी परंपराओं को बनाए रखा. वहीं कोयला, लोहा, बाक्साइट, तांबा और चूना पत्थर जैसे खनिजों की भरमार की वजह से पूरा इलाका सरकारी और निजी कंपनियों के निशाने पर भी रहा. सरकार हो या निजी कंपनी, उन्होंने इन खनिजों का दोहन तो किया, लेकिन उन्होंने इस पूरे इलाके का उस तरह से विकास नहीं किया, जैसा होना चाहिए था. अब भी स्थिति ये है कि झारखंड के अधिकांश इलाकों में न तो सड़क है, न बिजली है और न पीने का साफ पानी. स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी बुनियादी चीजों तक आदिवासियों की पहुंच दूर की कौड़ी है. ऐसे में आदिवासियों ने अपनी सैकड़ों साल पुरानी पत्थलगड़ी परंपरा का सहारा लिया है, जिसके बाद प्रशासन और आदिवासियों के बीच ठन गई है. आदिवासियों ने पत्थलगड़ी के जरिए गांवों में बाहरी लोगों के घुसने पर रोक लगा दी है, सरकारी शिक्षा का विरोध कर दिया है, खुद की करेंसी लाने की बात कर रहे हैं और केंद्र सरकार और राज्य सरकार के कानूनों को खुले तौर पर चुनौती दे रहे हैं. सरकार भी इन्हें सख्ती से निपटने की बात कह तो रही है, लेकिन अभी तक ऐसी कोई भी बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है.
क्या होती है पत्थलगड़ी?

दरअसल पत्थलगड़ी आदिवासियों की एक परंपरा है. इसके तहत अगर आदिवासी इलाके में कोई भी उल्लेखनीय काम होता है, तो आदिवासी उस इलाके में एक बड़ा सा पत्थर लगा देते हैं और उसपर उस काम को दर्ज कर देते हैं. अगर किसी की मौत हो जाए या फिर किसी का जन्म हो तो आदिवासी पत्थर लगाकर उसे दर्ज करते हैं. इसके अलावा अगर उनके इलाके का कोई शहीद हो जाए या फिर आजादी की लड़ाई में कोई शहीद हुआ हो, तो इलाके के लोग उसके नाम पर पत्थर लगा देते हैं. अगर कुछ आदिवासी लोग मिलकर अपने लिए कोई नया गांव बसाना चाहते हैं, तो वो उस गांव की सीमाएं निर्धारित करते हैं और फिर एक पत्थर लगाकर उस गांव का नाम, उसकी सीमा और उसकी जनसंख्या जैसी चीजें पत्थर पर अंकित कर देते हैं. इस तरह के कुल आठ चीजों में पत्थलगड़ी की प्रथा रही है और ये प्रथा पिछले कई सौ सालों से चली आ रही है.

ये प्रथा राज्य के खूंटी ,गुमला ,सिमडेगा ,चाईबासा और सरायकेला जैसे कुल 13 जिलों के करीब 50 गांवों में चल रही है. इनमें से भी चार जिले के 34 गांव सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. फिलहाल हो ये रहा है कि अगर पत्थलगड़ी करके किसी गांव की सीमा निर्धारित कर दी गई है, तो उसका नियम ये है कि उस गांव की ग्रामसभा की इजाजत के बिना कोई भी शख्स उस गांव में दाखिल नहीं हो सकता है. बाहर से आए किसी भी शख्स को पहले ग्रामसभा से इजाजत लेनी पड़ती है और तभी उसे दाखिला मिलता है. अगर कोई जबरदस्ती उस गांव में दाखिल होता है, तो पूरा गांव मिलकर उसे बंधक बना लेता है. फिर ग्रामसभा जो सजा तय करती है, उसे उस शख्स को भुगतना पड़ता है.
फिर विवाद क्यों है?

पत्थलगड़ी पर हाल में सबसे बड़ा विवाद 2017 में सामने आया था. झारखंड की राजधानी रांची से करीब 8 किलोमीटर दूर एक गांव है. इस गांव का नाम है सोहड़ा, जो तुपुदाना ओपी इलाके के नामकुम प्रखंड में पड़ता है. 2017 में दक्षिण कोरिया की ऑटोमोबाइल कंपनी इस गांव के 210 एकड़ जमीन पर कंपनी लगाना चाहती थी. इसके लिए कंपनी के प्रतिनिधियों ने तीन बार गांव का दौरा किया. जमीन को समतल भी करवाया गया, लेकिन मार्च 2017 आते-आते गांव के लोगों ने इस गांव में पत्थलगड़ी कर दी. उन्होंने ऐलान कर दिया कि इस गांव से बाहर का कोई भी आदमी गांव में दाखिल नहीं हो सकता है. उसके बाद कोरियाई कंपनी को पीछे हटना पड़ गया. इस दौरान प्रशासन ने दावा किया था कि जनवरी 2017 से अगस्त 2017 के बीच खूंटी, अड़की व मुरहू इलाके में करीब 50 किलो अफीम बरामद की गई थी. प्रशासन ने गांवों में हो रही अफीम की खेती को बर्बाद कर दिया था, जिससे बौखलाए हुए अपराधियों की शह पर गांववालों ने पत्थलगड़ी करके प्रशासनिक अधिकारियों का विरोध किया.
2017 में ही 25 अगस्त को डीप्टी एसपी रणवीर कुमार खूंटी जिले के सिलादोन गांव में करीब 300 पुलिसवालों के साथ पहुंचे थे. पुलिस को सूचना मिली थी कि गांव में अफीम की खेती हो रही है. इसी की जांच के लिए पुलिस टीम खूंटी पहुंची थी. लेकिन गांववाले इससे नाराज हो गए और हथियारों से लैस गांववालों ने पुलिस के जवानों को बंधक बना लिया. करीब 24 घंटे बाद जब बड़े अधिकारी मौके पर पहुंचे, तो पुलिस टीम को छुड़ाया जा सका.

फरवरी 2018 में एक बार फिर गांववाले और प्रशासन आमने सामने आ गए. पुलिस की एक टीम 21 फरवरी को कोचांग इलाके में नक्सलियों के खिलाफ सर्च अभियान पूरा कर लौट रही थी. रास्ते में उन्हें कुरुंगा गांव के प्रधान सागर मुंडा मिल गए, जिनपर 2017 में पुलिसवालों को बंधक बनाने का केस दर्ज हुआ था. इसी मामले की पूछताछ के लिए पुलिस ने सागर को हिरासत में ले लिया और थाने लेकर जाने लगी. इसी बीच पुलिस के 25 जवान अपनी टुकड़ी से पीछे छूट गए. जब गांववालों को सागर को हिरासत में लेने और 25 जवानों के पीछे छूटने का पता चला, तो वो हथियारों के साथ बाहर आए और पुलिस के छूटे हुए 25 जवानों को बंधक बना लिया. जब पुलिस ने सागर मुंडा को रिहा किया, जब जाकर ये पुलिस के जवान गांववालों के चंगुल से छूट पाए. 28 फरवरी को विवाद फिर भड़क गया. सीआरपीएफ के जवान नक्सलियों के खिलाफ सर्च अभियान चलाते हुए कुरुंगा पहुंचे, तो गांववालों ने सीआरपीएफ के सर्च अभियान का भी विरोध किया.
क्या कहते हैं आदिवासी

आदिवासी इस पत्थलगड़ी की परंपरा को जायज ठहराते हैं. वो कहते हैं कि ये प्रथा तो अंग्रेजों के जमाने में भी थी. अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के महानगर सचिव पवन तिर्की के मुताबिक जब ब्रिटिश अधिकारियों ने मुंडा लोगों से पूछा था कि वो कैसे साबित कर सकते हैं कि वो जमीन उनकी है. इसके जवाब में मुंडा कुछ पत्थरों को लेकर कोलकाता (उस वक्त कलकत्ता) गए थे और अंग्रेजों को पत्थर दिखाए थे, जिनपर उनकी जमीनों का सीमांकन हुआ था. उसस वक्त ब्रिटिश साम्राज्य ने इन पत्थरों को मान्यता दे दी थी. ये सनसिदरी के पत्थर थे और वही उनके लिए आज के खेतों के कागजात के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली चीजें खसरा-खतौनी है. ब्रिटिश जमाने से ही इन सनसिदरी के पत्थरों ने मुंडाओं को उनकी जमीन पर अधिकार दिलाया था.
क्या कहता है भारतीय संविधान

भारतीय संविधान 25 भागों में बंटा है, जिसमें 12 अनुसूचियां और 448 अनुच्छेद हैं. इन्हीं के सहारे पूरा देश चलता है. इस संविधान में पांचवी और छठी अनुसूची आदिवासी इलाकों से जुड़ी हुई है. अनुसूची पांच आदिवासी इलाकों में प्रशासन और नियंत्रण की व्याख्या करता है. वहीं अनुसूची छह असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के लिए निर्धारित है, जिसके तहत वहां का कानून चलता है और ये तय करता है कि वहां पांचवी अनुसूची का कानून लागू नहीं होगा. पांचवी अनुसूची उसी इलाके में लागू होगी, जहां की जनसंख्या का 50 फीसदी से अधिक आदिवासी जनसंख्या है. झारखंड में आदिवासी फिलहाल संविधान की पांचवी अनुसूची के हवाले से ही पत्थलगड़ी कर रहे हैं. पांचवी अनुसूची में अनुच्छेद 244 (1) का जिक्र किया गया है. इसके तहत लिखा है-
1. इस इलाके में संसद और विधानसभा की ओर से पारित कानूनों को लागू करने का अधिकार राज्यपाल के पास है. वो उन कानूनों को यहां लागू करवा सकता है, जो इन इलाकों के लिए बेहतर हों.
2. यह अनुच्छेद राज्यपाल को शक्ति देता है कि वो इस इलाके की बेहतरी और शांति बनाए रखने के लिए कानून बनाए.
3. पांचवी अनुसूची में ट्राइब्स एडवाइजरी काउंसिल बनाने का प्रावधान है. इसके तहत इसमें अधिकतम 20 सदस्य हो सकते हैं. इसके तीन चौथाई सदस्य यानी अधिकतम 15 सदस्य अनुसूचित जनजाति के निर्वाचित विधायक होते हैं. अगर उनकी संख्या इतनी नहीं है, तो फिर दूसरे विधायकों के जरिए इस काउंसिल के सदस्य बनाए जा सकते हैं. इसके लिए भी राज्यपाल के पास ये शक्ति है कि वो इस काउंसिल के लिए नियम बना सके, उनके सदस्यों की संख्या निर्धारित कर सके और इस काउंसिल के लिए चेयरमैन का चुनाव कर सके.
संविधान का 73वां संशोधन और आदिवासी क्षेत्र

अनुसूचित क्षेत्रों के लिए संविधान में 73वां संशोधन किया गया. 24 अप्रैल 1993 को इसे लागू किया गया और नाम दिया गया पेसा ( द प्रोविजिन्स ऑफ द पंचायत ( एक्सटेंशंस टू द शेड्यूल एरियाज) ऐक्ट 1996. इसके जरिए पांचवी अनुसूचि के क्षेत्र, गांव और ग्राम सभा की परिभाषा के साथ ही उनके अधिकारों को फिर से परिभाषित किया गया. पेसा के मुताबिक-
# संविधान की पांचवीं अनुसूची अनुसूचित क्षेत्रों और असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के अलावा अन्य किसी भी राज्य में रहने वाली अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण से संबंधित है. फिलहाल 10 राज्यों आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान और तेलंगाना में पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र मौजूद हैं.
गांव और ग्राम सभा की परिभाषा
# पेसा अधिनियम के तहत आमतौर पर एक बस्ती या बस्तियों के समूह या एक पुरवा या पुरवों के समूह को मिलाकर एक गांव का गठन होता है. इसमें एक समुदाय के लोग रहते हैं और अपनी परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार अपने मामलों के प्रबंधन करते हैं.
# उन सभी व्यक्तियों को लेकर हर गांव में एक ग्राम सभा होगी, जिनके नाम ग्राम स्तर पर पंचायत के लिए मतदाता सूची में शामिल किए गए हैं. ग्राम सभा के लिए विशेष शक्तियों का भी प्रावधान है.
इसके मुताबिक
# लोगों की परंपराओं और रिवाजों, और उनकी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखना
# समुदाय के संसाधन और विवाद के निपटारे की परंपरागत तरीके की रक्षा करना
# सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए योजनाओं, कार्यक्रमों और परियोजनाओं को मंजूरी देना,
# गरीबी उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के अंतर्गत लाभार्थियों के रूप में व्यक्तियों की पहचान करना,
# पंचायत द्वारा योजनाओं; कार्यक्रमों और परियोजनाओं के लिए धन के उपयोग का एक प्रमाण पत्र जारी करना
# भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार

# एक ग्राम सभा या पंचायत द्वारा खान और खनिजों के लिए संभावित लाइसेंस पट्टा, रियायतें देने के लिए अनिवार्य सिफारिशें करने का अधिकार
# भूमि हस्तान्तरण को रोकना और हस्तांतरित भूमि की बहाली
# गांव बाजारों का प्रबंधन
# अनुसूचित जनजाति को दिए जाने वाले ऋण पर नियंत्रण
# सामाजिक क्षेत्र में कार्यकर्ताओ और संस्थानों, जनजातीय उप योजना और संसाधनों सहित स्थानीय योजनाओं पर नियंत्रण
जब इस कानून को पास किया गया था तो कहा गया था कि पेसा की वजह से आदिवासी इलाकों में अलगाव की भावना कम होगी और सार्वजनिक संसाधनों के उपयोग पर बेहतर नियंत्रण होगा. प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण और प्रबंधन से उनकी आजीविका और आय में सुधार होगा, तो उन्हें बाहर जाने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी, पेसा जनजातीय आबादी के शोषण को कम करेगा, क्योंकि वे ऋण देने, शराब की बिक्री खपत एवं गांव बाजारों का प्रबंधन करने में सक्षम होंगे. पेसा के प्रभावी होने से भूमि के अवैध हस्तान्तरण पर रोक लगेगी और आदिवासियों की अवैध रूप से हस्तान्तरित जमीन को बहाल किया जा सकेगा. इसके अलावा पेसा परंपराओं, रीति-रिवाजों और जनजातीय आबादी की सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण के माध्यम से सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देगा.
पत्थलगड़ी और संविधान का क्या लेना-देना है

संविधान की पांचवी अनुसूची ने अनुसूचित क्षेत्रों को जो अधिकार दिए हैं, उसी के तहत आदिवासी पत्थलगड़ी कर रहे हैं. उनका कहना है कि इलाकों में विकास के काम नहीं हुए है, जीने की मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं, पीने का पानी नहीं है और जिंदगी इतनी बदहाल है कि लोग किसी तरह से दो जून की रोटी जुटा पा रहे हैं. राज्य सरकार हमारे लिए कुछ नहीं कर रही है, इसलिए हम अब अपने गांवों में संविधान की ओर से दी गई शक्ति का इस्तेमाल कर रहे हैं और पत्थलगड़ी कर कह रहे हैं कि इस गांव में ग्रामसभा का राज चलेगा. उनका नारा है ‘अबुआ धरती, अबुआ राज ( अपनी धरती, अपना राज) अब चलेगा ग्राम सभा का राज’. और ये सब वो संविधान की पांचवी अनुसूची का हवाला देकर कर रहे हैं.
सरकार का पक्ष क्या है

मुख्यमंत्री रघुवर दास ने कहा है कि पत्थलगड़ी झारखंड की पुरानी परंपरा है. इसमें किसी को कोई शक नहीं है. लेकिन फिलहाल पत्थलगड़ी करके किसी के आने-जाने पर रोक लगाना कानून के खिलाफ है. इसके लिए देशविरोधी शक्तियां भोले भाले आदिवासियों को भड़का रही हैं और ऐसी पत्थलगड़ी करवा रही हैं. ऐसे में सरकार इनसे सख्ती से निपटेगी. ऐसी ही शक्तियों ने आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा को भी अंग्रेजों के हाथों पकड़वा दिया था. हालांकि खुद मुख्यमंत्री रघुबर दास ने माना है कि जितना विकास का काम आदिवासी इलाकों में होना चाहिए था, वो नहीं हो पाया है. इसकी वजह 14 साल की राजनैतिक अस्थिरता है. वहीं मुख्यमंत्री ने कहा है कि पत्थलगड़ी उन इलाकों में ही की जा रही है, जहां सबसे ज्यादा अवैध तरीके से अफीम की खेती की जाती है. वहीं एक तथ्य ये भी है कि झारखंड में होने वाली अफीम की खेती का कुल 58 फीसदी हिस्सा खूंटी जिले में ही पैदा होता है.
फिलहाल हो क्या रहा है झारखंड में

झारखंड में कुल 13 जिले ऐसे हैं, जो संविधान की पांचवी अनुसूचि और पेसा कानून के तहत आते हैं. वैसे तो इन सभी 13 जिलों के अलग-अलग गावों में आदिवासी फिलहाल पत्थलगड़ी कर रहे हैं. कुछ जगहों पर सख्ती कम है, तो कुछ जगहों पर ज्यादा है. कुछ गांव ऐसे भी हैं, जिनके प्रधान या फिर ग्राम सभा पत्थलगड़ी करने के लिए राजी नहीं है. लेकिन चार जिलों खूंटी, गुमला, सिमडेगा और रांची के 34 गांवों के लोगों ने पत्थलगड़ी करके दिकू (बाहरी लोग) के गांव में अंदर घुसने पर रोक लगा दी है. बाहरी लोगों में हर वो आदमी है, जो उस गांव का नहीं है. अगर किसी बाहरी को उस गांव में घुसना होता है, तो उसे ग्रामसभा की इजाजत लेनी ही पड़ती है. पिछले एक महीने से इन चारों जिलों के 34 गांवों के लोग हर सुबह एक घंटे के लिए बैठक करते हैं और पत्थगड़ी को कायम रखते हैं. इन गांवों में कई गांव ऐसे हैं, जहां सरकारी शिक्षा को पूरी तरह से बंद कर दिया गया है. गांव के ही लोग स्कूलों में पढ़ाने लगे हैं और वो नए तरह से वर्णमाला पढ़ा रहे हैं. कुछ गांवों के लोगों ने भारतीय रुपये का बहिष्कार कर दिया है और वो लोग अपनी करेंसी लाने की बात कर रहे हैं. कुछ गांवों ने मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को पत्र लिखकर स्थानीय स्तर से जिला प्रशासन और पुलिस प्रशासन को हटाने को कहा है. नक्सलियों से निपटने के लिए बनाए गए सीआरपीएफ कैम्पों को भी हटाने के लिए पत्र लिखा गया है.
वजहें और भी हैं

ये पत्थलगड़ी अभी ही क्यों शुरू हुई है, इसको लेकर झारखंड में अलग-अलग तरह की बातें हैं. आदिवासियों के इस अभियान के समर्थकों का मानना है कि पूरे इलाके में विकास का काम जरा सा भी नहीं हुआ है. केंद्र में पिछले चार साल से बीजेपी की सरकार है. वहीं राज्य में भी तीन साल से अधिक वक्त से बीजेपी की सरकार है. ऐसे में आदिवासियों की नाराजगी स्वाभाविक है. वहीं कुछ लोग इसे मिशनरियों की साजिश करार दे रहे हैं. झारखंड के आदिवासियों की एक बड़ी संख्या ईसाई है. लोगों का कहना है कि केंद्र और उसके बाद राज्य में भी बीजेपी की सरकार बनने के बाद विदेशों से मिशनरियों को मिलने वाले पैसे पर लगाम लग गई है. ऐसे में ये मिशनरी पीएलएफआई जैसे उग्रवादी संगठनों की मदद से आदिवासियों को भड़का रहे हैं और उन्हें सरकार के खिलाफ पत्थलगड़ी करने के लिए कह रहे हैं.
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