ओडिशा हाईकोर्ट. हाल ही में एक मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने कहा कि दवा लिखते समय डॉक्टर कैपिटल लेटर का इस्तेमाल करें, ताकि वो असानी से लोगों की समझ में आ सके. कोर्ट ने कहा,
डॉक्टरों की अस्पष्ट लिखावट मरीजों, फार्मासिस्टों, पुलिस, अभियोजन पक्ष, जजों के लिए अनावश्यक परेशानी पैदा करती है. डॉक्टरों के परचे, ओपीडी स्लिप, पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट, चोट आदि की रिपोर्ट ऐसी होनी चाहिए जो आसानी से पढ़ी जा सके और समझ में आए. मेडिकल पर्चे में अस्पष्टता या व्याख्या की जरूरत नहीं होनी चाहिए.
हाईकोर्ट ने अपने आदेश में भारतीय चिकित्सा परिषद (व्यावसायिक आचरण, शिष्टाचार, और नैतिकता) (संशोधन) विनियम, 2016 का जिक्र किया. इसमें सभी डॉक्टरों को दवा और प्रिसक्रिप्शन बड़े अक्षरों में लिखने का आदेश दिया गया है. साथ ही कोर्ट ने मेडिकल प्रोफेशनल्स के बीच इसे लेकर जागरूकता अभियान चलाने का आदेश दिया है.
हैंडराइटिंग को लेकर डॉक्टर्स क्या बोले?
हालांकि ये पहली बार नहीं है जब किसी कोर्ट ने डॉक्टरों की लिखावट को लेकर इस तरह का कमेंट किया है. पहले भी डॉक्टरों की हैंडराइटिंग को लेकर सवाल उठते रहे हैं. पर डॉक्टर्स खुद अपनी हैंडराइटिंग को लेकर क्या सोचते हैं. ये जानने के लिए हमने कुछ डॉक्टरों से बात की. जानते हैं उनका क्या कहना है.
दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल के डॉक्टर रौनक का कहना है,
एमबीबीएस के सेकेंड ईयर में एक सब्जेक्ट होता है. forensic medicine का. हमें सिखाया जाता है कि प्रिस्क्रिप्शन वो डॉक्यूमेंट है जो डॉक्टर एक पेशेंट को देता है. ये मेडिकल लीगल डॉक्युमेंट होता है. कुछ क्राइटेरिया है जो फॉलो करने जरूरी हैं. जैसे डॉक्टर का नाम, पता, रजिस्ट्रेशन नंबर, पेशेंट का नाम पता. दवाइयों के नाम कैपिटल लेटर में लिखे जाएं. इसकी वजह ये है कि दो दवाइयां एक नाम की लगेंगी, लेकिन उनका ग्रुप अलग होगा. अलग काम होगा. उस चीज को अवाइड करने के लिए बोल्ड लेटर्स में लिखने की बात कही जाती है.
डॉक्टरों की खराब हैंडराइटिंग को लेकर डॉक्टर रौनक का कहना है,
मरीज देखना डॉक्टर का काम है, लेकिन उसके इतर भी वो बहुत कुछ कर रहा होता है. उसे बहुत कुछ लिखना पड़ता है. अगर आप किसी डॉक्टर से पूछेंगे कि एक मरीज देखने के क्या स्टेप हैं तो मरीज देखने के बाद दूसरा काम होता है उसकी हिस्ट्री देखना. ये हिस्ट्री दो पेज-तीन पेज की हो सकती है. ये हिस्ट्री किसी डॉक्टर ने लिखी होगी. हिस्ट्री लिखने के बाद पेशंट के ऑर्डर लिखे जाते हैं फिर जांच वाला फॉर्म भरा जाता. इस पूरी चीज को जल्द से जल्द किया जाए फिर भी इसे लिखने के काम में 15-20 मिनट लगेगा. उस दौरान एक मरीज के बाद दूसरा मरीज आ गया तो दिक्कत होती है. ओपीडी में वक्त बड़ा कम होता है. तो लंबी स्ट्रेट लाइनें बनने लगती हैं.
दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में कार्यरत डॉक्टर प्रियंका ने बताया,
एक नॉर्मल ओपीडी में 50 के करीब पेशेंट देखने होते हैं. कई बार 70-80 तक पेशेंट होते हैं. मरीज़ को देखकर जल्दी-जल्दी पर्ची लिखनी होती है. ऐसे में आप अपनी नॉर्मल हैंडराइटिंग में नहीं लिख पाते. आपको पता होता है कि राइटिंग ठीक नहीं है, पर सभी मरीज़ों को देखना ज्यादा ज़रूरी होता है. वैसे, मेरी हैंडराइटिंग काफी साफ है, पर्ची देखकर कई बार लोग चौंक जाते हैं, कहतें हैं कि आपकी राइटिंग तो डॉक्टरों जैसी नहीं है.
गीतांजलि मेडिकल कॉलेज उदयपुर के एमडी डॉक्टर दीपक शुक्ला का कहना है,
कई बार होता क्या है कि ये जो ब्रैंड्स नेम होते हैं, फार्मासिस्ट वो राइटिंग समझ नहीं पाता, पाटिकुलर ब्रांड को लेकर अवतग नहीं रहता. अगर डॉक्टर सॉल्ट लिखे तो समझ में भी आता है. राइटिंग थोड़ी भी इधर-इधर हुई और ब्रांड नेम समझ नहीं आता तो कुछ दवाई का कुछ दे देता है. कई दवाइयों के नाम लगभग-लगभग सेम होते हैं. राइटिंग इधर-उधर होने से कुछ का कुछ मिल जाता है. दवाइयों में डोज होता है. किसी ने 200 लिखा तो 100 समझ आता है. अगर राइटिंग स्पष्ट नहीं होगी तो फार्मासिस्ट को समझ नहीं आएगी. कुछ चीजें ग्रीक में यूज होती हैं. ओडी, बीडी तो कई बार चीजें आम लोगों को समझ नहीं आतीं. ओपीडी में जल्दी-जल्दी पेशेंट देखने के चक्कर में वो राइटिंग पर ध्यान नहीं दे पाता. हालांकि कई डॉक्टर्स और हॉस्पिटल इस पर काम कर रहे हैं कि किसी पेशंट को डिस्चार्ज करते समय जो दवाइयां दी जा रही हैं वो कैपिटल लेटर्स में लिखी हों.
फिरोजाबाद सरकारी जिला अस्पताल के डॉक्टर अविरल प्रजापति का कहना है,
ड्यूटी के दौरान इतना प्रेशर होता है कि सोचें कि राइटिंग अच्छी बने तो ये हो नहीं सकता. आप खुद की 10वीं और 12वीं की राइटिंग देखिए और उसके बाद की राइटिंग देखिए. दोनों में बहुत फर्क होता है. सरकारी अस्पताल की ओपीडी में एक डॉक्टर को 200 तक पेशेंट देखना है तो वह राइटिंग बनाने चलेगा तो बहुत टाइम लग जाएगा. गवर्नमेंट ये करे कि कंप्यूटराइज्ड टाइप का हो जाए. कोई राइटर बैठे. उसे ये बोला जाए कि ये मेडिसिन देनी है, तो ये चीज हो सकती है. अगर किसी को प्रैक्टिस करते 10-12 साल हो गया. और उसे कहा जाए कि राइटिंग चेंज कर लो तो ये संभव नहीं है उसके लिए.
कोटा के एक हॉस्पिटल के कंसलटेंट सेक्सोलॉजिस्ट और मेंडल हेल्थ प्रोफेशलन डॉक्टर अखिल अग्रवाल का कहना है,
हैंडराइटिंग की जहां तक बात है तो मेरा मानना है कि आपकी हैंडराइटिंग ऐसी हो कि कम से कम दूसरे डॉक्टर तो पढ़ ही पाएं. बहुत हमारे पास पेशेंट आते हैं. मान लीजिए कि मैं सेक्सोलॉजिस्ट के तौर पर किसी का ट्रीटमेंट कर रहा हूं. और उनका कोई और ट्रीटमेंट चल रहा है. तो मुझे समझ में आना चाहिए कि क्या दवाएं चल रही हैं. मैं जो लिखूं उनको समझ में आना चाहिए कि क्या चल रहा है. या सेम स्पेशलिटी के किसी डॉक्टर का ट्रीटमेंट लिया हो तो वो भी हमें समझ में आना चाहिए.
क्या आपको किसी डॉक्टर का लिखा समझने में कभी दिक्कत हुई. इस सवाल के जवाब में डॉक्टर ने कहा,
बहुत बार ऐसा हुआ. लेकिन डॉक्टर इंप्रूव कर रहे हैं. और इंप्रूव होना चाहिए. जहां तक कैपिटल में लिखने की बात है तो उसमें टाइम ज्यादा लगता है. हालांकि इससे बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ना चाहिए कि कैपिटल में लिखा है या स्मोल में. बस हैंडराइटिंग समझ में आनी चाहिए. पढ़ाई के दौरान जिसकी हैंडराइटिंग अच्छी होती है उसे मार्क्स अच्छे मिलते हैं. मेरी भी राइटिंग अच्छी नहीं है. मुझे कई बार टोका गया. तो मैं वहां तक तो कर पाया कि चीजें समझ में आने लगें. जहां तक प्रिक्रिप्शन का सवाल है तो मैं कोशिश करता हूं कि सबकुछ क्लियर रहे.
साइकोलॉजिस्ट डॉक्टर सीमा जैन ने अपना खुद का अनुभव शेयर किया. उन्होंने बताया,
मैं डॉक्टर के पास गई थी. मेरी बच्ची को डिसेंटरी लग रही थी. डॉक्टर की दवाई से तीन दिन में भी डिसेंटरी नहीं रुकी. हम दूसरे डॉक्टर के पास गए. जब उन्हें प्रिक्रिप्शन दिखाया. डॉक्टर ने कहा कि आपने जिस डॉक्टर को दिखाया है उसने डिसेंटरी लगने की दवाई दी है. डिसेंटरी बंद होने की नहीं. ये जानकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ. क्योंकि जिस डॉक्टर को दिखाया था वो बड़े डॉक्टर थे. हमें समझ नहीं आया एक डॉक्टर जिसके पास हम डिसेंटरी रोकने की दवाई लिखी है. दूसरा डॉक्टर कह रहा है कि ये लगने के लिए ही लिखी है. फिर मुझे लगा कि ऐसी हैंडराइटिंग और प्रिस्क्रिप्शन का क्या फायदा की डॉक्टर के बीच में ही कंफ्यूजन हो जाए.
डॉक्टरों का कहना है कि चीजें बदल रही हैं. नई तकनीक आ रही है. डॉक्टर रौनक का कहना है कि दिल्ली एनसीआर में बहुत सारे डॉक्टर्स कई तरह के ऐप यूज करने लगे हैं. जब भी वो पेशेंट देखते हैं वो अपने आईपैड या कंम्प्यूटर पर पेशंट के सिमटम्स डालेंगे, क्या दवाइयां हैं वो डालेंगे और अंत में प्रिस्क्रिप्शन जो मिलेगा प्रिंडेट होगा. तकनीक का प्रयोग होने लगा है. लेकिन ये प्राइवेट सेटअप में ही है. सरकारी अस्पताल में चीजें धीरे-धीरे बदल रही हैं.
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