म्यांमार को मुबारक हो. दुनिया का सबसे बड़ा कब्रगाह बनने के लिए. 6,76,578 किलोमीटर स्क्वायर क्षेत्रफल जितना बड़ा विशाल कब्रगाह बनाने के लिए. रोहिंग्या आबादी के लिए. जो हजारों की तादाद में मार डाले गए. मारे जा रहे हैं. मौत भी ऐसी-वैसी नहीं. भीषण. आरोप सेना और बौद्ध हत्यारों पर है. इन्होंने पहले रोहिंग्या के घरों को घेरा. फिर गांव में आग लगा दी. लोग जान बचाकर भागे, तो अंधाधुंध गोलियां चलाईं. जो गोली से नहीं मरे, उन्हें चाकू से गोदकर मारा. अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंसी ‘ऐमनिस्टी इंटरनेशनल’ ने इस नरसंहार के सबूत दिए हैं. आग लगी तस्वीरें. सैटेलाइट से ली हुई. भागने में कामयाब हुए लोगों के बयान तो रूह कंपाने वाला है. जर्मनी में हुए यहूदी नरसंहार जैसा. वो भी सत्ता के हाथों हुआ था. ये भी सत्ता के हाथों हो रहा है.

म्यांमार की सेना तो जैसे दुश्मन सेना से लड़ रही हो
स्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी. सेना की एक नृशंस रणनीति. अक्सर हमला कर रही दुश्मन सेना के खिलाफ इस्तेमाल होती है. म्यांमार में उल्टा है. वहां एक-एक को चुनकर मारने के काम आ रही है. सेना और स्थानीय लोग रोहिंग्या बहुल इलाकों को घेरते हैं. भाग रहे लोगों को गोली मारते हैं. फिर उनके घरों को आग में झोंक देते हैं. ताकि जो बचकर भाग गए हैं, उनके पास लौटने की जगह न हो. कई बार सेना औचक ही ऑपरेशन करती है. बचने का मौका भी नहीं देती. कई जगहों पर स्थानीय लोगों ने पहले ही रोहिंग्या आबादी को सचेत कर दिया. कहा, भाग जाओ. तुम्हारे घर जलाए जाएंगे. साफ है कि ये हिंसा सुनियोजित है. म्यांमार में सेना, पुलिस और बहुसंख्यक बौद्ध आबादी के हत्यारे एकजुट हैं. ये आरोप अकेले ऐमनिस्टी नहीं लगा रहा. कई मानवाधिकार संगठन इससे मिलती-जुलती बातें कर रहे हैं. कई तस्वीरें आई हैं. म्यांमार के अंदर से उठते घने धुएं की. बिना आग के धुआं तो नहीं उठता.

चरमपंथियों की आड़ में रोहिंग्या मुसलमानों का सफाया कर रही है सेना
सैटेलाइट रेकॉर्ड्स बताते हैं. 25 अगस्त से लेकर अब तक 80 से ज्यादा जगहों पर ऐसी आगजनी हुई है. 25 अगस्त को रोहिंग्या चरमपंथियों ने सेना के एक ठिकाने पर हमला किया. उसके बाद सेना हर रोहिंग्या को आतंकवादी बताने लगी. उसके मुताबिक तो ‘रोहिंग्या=आतंकवादी’ हैं. ये सब प्लानिंग से हो रहा है. बहुत बड़े स्तर पर. सबसे ज्यादा शिकार हुआ है रखाइन स्टेट में. उपग्रह से ली गई तस्वीरें बताती हैं. गांव के गांव जलाए जा रहे हैं. सैटेलाइट सेंसर्स ने पिछले 4 सालों में पूरे राइखिन स्टेट के अंदर इतने बड़े स्तर पर हुई आगजनी को डिटेक्ट नहीं किया. यानी ये आग स्वाभाविक नहीं है. लगाई जा रही है. आगजनी की घटनाएं मौजूदा आंकड़ों से ज्यादा हो सकती हैं. मॉनसून में बादलों के कारण सैटेलाइट सारी आगजनी का रिकॉर्ड नहीं रख पाते. छोटी-छोटी वारदातें नोटिस नहीं हो पा रही हैं. केवल राइखन ही शिकार नहीं हो रहा. मांगदाउ इलाके का भी ये ही हाल है.

म्यांमार दुनिया को पागल समझता है क्या?
भागे हुए शरणार्थियों के बयान भी मिलते-जुलते हैं. पिछले तीन हफ्तों से ये नरसंहार चरम पर है. रोहिंग्या तीन-तरफा मोर्चे पर अकेले पड़ गए हैं. म्यांमार दुनिया को पागल समझता है. कह रहा है, रोहिंग्या खुद अपना घर जला रहे हैं. रोहिंग्या से म्यांमार की पुरानी दुश्मनी है. कई दशकों से वहां भेदभाव हो रहा है. रोहिंग्या मुसलमानों को न सम्मान मिला, न पहचान. 1982 में आए नागरिकता कानून ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी. रोहिंग्या से सारे अधिकार छीन लिए. 1978 से रोहिंग्या देश छोड़कर जाने लगे. समय-समय पर सेना उन्हें निशाना बनाती रही. संयुक्त राष्ट्र (UN) लंबे समय से रोहिंग्या के लिए शिविर चलाता है. ये शिविर कब के भर चुके हैं. कामचलाऊ शिविर भी कब के अट गए. 2016 से हालात बदतर होते गए. आज जो संघर्ष दिखता है, ये दशकों से सुलगता आ रहा था.

5 लाख रोहिंग्या म्यांमार छोड़ने पर मजबूर किए गए
2016 से ही रोहिंग्या संकट पर म्यांमार काफी सतर्क हो गया. उसने इस मामले को दबाने की पूरी कोशिश की. यहां तक कि UN की टीम को भी हालात का जायजा लेने नहीं आने दिया. वहां जाकर कोई स्वतंत्र और निष्पक्ष रिपोर्टिंग करे, इसका स्कोप ही नहीं छोड़ा. कुछ ऐसे भी वाकये हुए जहां रोहिंग्या चरमपंथी दोषी हैं. जहां उन्होंने आग लगाई. खबर है कि उन्होंने बाकी अल्पसंख्यकों पर भी जुल्म किया. लेकिन इनकी पुष्टि नहीं हुई है. UN के आंकड़े देखिए. 25 अगस्त के बाद से अब तक 370,000 रोहिंग्या देश छोड़कर भागे हैं. ज्यादातर रखाइन स्टेट के हैं. 2016 के आखिरी महीनों और 2017 की शुरुआत में भी कई रोहिंग्या भागे. करीब 87,000 लोग. तब भी सेना का ऑपरेशन हुआ था. एक साल के अंदर करीब 5 लाख रोहिंग्या म्यांमार छोड़ने पर मजबूर हुए हैं.

अगर म्यांमार में कच्चा तेल होता, तो रोहिंग्या पहले ही नजर आ गए होते
म्यांमार का अंदाज बताता है कि उसे किसी का खौफ नहीं. अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी बस निंदा कर रही है. इस निंदा से किसी का भला नहीं हुआ. अंतरराष्ट्रीय संगठनों को अब सुध लेनी होगी. म्यांमार पर दबाव बनाना होगा. पहले भी अंतरराष्ट्रीय प्रेशर ने म्यांमार को मजबूर किया है. आंग सान सू की के मामले में. म्यांमार में अमानवीय स्थिति है. सरकार और सेना के हाथों हो रही है. संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में जल्द ही म्यांमार पर चर्चा होनी है. दुनिया के सामने अपनी इंसानियत साबित करने का मौका है. उन्हें रोहिंग्या संकट पर स्टैंड लेना ही होगा.

कितना नुकसान हुआ, इसका पता लगाने को फैक्ट फाइंडिंग मिशन भेजना होगा. ताकि इस अमानवीयता का पूरा कच्चा-चिट्ठा सामने आ सके. इतने वक्त तक ऐक्शन क्यों नहीं लिया गया? इस सवाल का जवाब भी देना होगा. अगर मध्य-पूर्वी एशिया के किसी तेल से भरे देश में ये सब हुआ होता, तो भी क्या इतनी ही तसल्ली दिखाई जाती. सवाल तो बनता ही है. आखिरकार कच्चे तेल से संपन्न और स्ट्रैटजिक अहमियत वाले देशों के मामले में इन्हीं अगुआ देशों (अमेरिका, ब्रिटेन ऐंड कंपनी) को सबसे पहले मानवाधिकार याद आता है. अगर म्यांमार में भी कच्चा तेल होता, तो शायद ए कैटगरी के देशों को रोहिंग्या बहुत पहले ही नजर आ गए होते.
कौन हैं रोहिंग्या मुसलमान, जो जान बचाने के लिए यहां-वहां भाग रहे हैं:
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