‘रोहांग’, म्यांमार का एक इलाक़ा, जिसे अब रखाइन कहा जाता है. स्थानीय लोग अरकान भी कहते हैं. हालांकि ‘स्थानीय लोग’ एक ग़लत टर्म है, क्योंकि यहां के बाशिंदे अब यहां रहे नहीं. ज़्यादा डीप में ना जाते हुए सिर्फ़ एक शब्द आपसे साझा करेंगे, ‘रोहिंग्या’. पिछले पांच सालों में ये शब्द अपने आप में एक कहानी बन चुका है. इस एक शब्द से अपनी-अपनी मान्यताओं के चलते आपने फ़ैसला कर भी लिया होगा कि ये लोग कौन हैं.
लेकिन जैसे menu इज़ नॉट meal.वैसे ही इस एक शब्द से उन लाखों लोग़ों की कहानी के साथ न्याय नहीं होता, जो एक पराए देश में बांस के बने तंबुओं में रहने को अभिशप्त हैं. जैसा की आमतौर पर होता है. असल ज़िंदगी में कहानी सिर्फ़ हीरो और विलेन वाली नहीं होती. रोहिंग्याओं के भीतर भी ऐसे गुट हैं जो आपदा में अवसर खोज़ रहे हैं. और इस अवसर के नतीजे में ऐसी आवाज़ें कुचली जा रही हैं, जो शांति और समझौते से मसले का निपटारा चाहती हैं.
इन्हीं में एक आवाज़ पर, साथ ही रोहिंग्या शरणार्थियों के वर्तमान हालात क्या हैं? इस पर चर्चा करेंगे.
रोहिंग्या शरणार्थियों के नेता मोहिबुल्ला की हत्या
शुरुआत अगस्त 2019 से, बांग्लादेश का कुटापलोंग शरणार्थी कैंप. इस और इस जैसे कैंप में रह रहे लाखों लोगों की तरह मोहिबुल्ला भी अपने तंबू के बाहर बैठे हुए हैं. कैंप में रह रहे शरणार्थियों की लिस्ट पकड़े मोहिबुल्ला कभी स्कूल में ऐसे ही अटेंडेंस शीट पकड़ के बैठा करते.
अंग्रेज़ी की कहावत है, ‘adversity makes a man’यानी ‘विपदाएं आदमी को बनाती है’.

रोहिंग्या शरणार्थियों की विपदा ने मोहिबुल्ला के कंधे पर भी नई ज़िम्मेदारी डाल दी. प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठे मोहिबुल्ला के हाथ में एक फ़ोन है. जिसमें रह-रह कर मैसेज टोन बज़ रही हैं. हर टोन पर मोहिबुल्ला फ़ोन की तरफ़ नज़र घुमाते और फिर उसे रख देते. कुछ महीने पहले की बात होती तो वो फ़ोन की तरफ़ देखते भी नहीं. क्योंकि लिफ़ाफ़े में ही मज़मून लिखा होता. धमकी के अलावा उसमें कुछ ना होता.
लेकिन अब फ़ोन देखना मजबूरी है. पिछले महीने जेनेवा में UN ह्यूमन राइट्स काउंसिल में शिरकत कर लौटे मोहिबुल्ला के लिए कब कोई ज़रूरी संदेश आ जाए, नहीं पता. लेकिन विपदाएं सिर्फ़ आदमी को ही नहीं बनाती. शैतान भी बनाती हैं. और शैतानों की तरफ़ से ज़हर बुझे संदेश मोहिबुल्ला की नज़र होते रहते. मोहिबुल्ला लास्ट मेसेज देखते हैं. जिसमें लिखा है,
‘मोहिबुल्लाकम्युनिटी का वाइरस है. जहां मिले मार दो.’
धमकी नहीं चेतावनी समझो, वाले अंदाज में लिखे गए इस मैसेज को मोहिबुल्ला ने इग्नोर किया. उनके चेहरे पर एक मुस्कुराहट थी. इसके बावजूद कि मोहिबुल्ला को सर पर मंडराते ख़तरे का पूरा अंदाज़ा था. उसी साल समाचार एज़ंसी रायटर्स को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था,
“अगर मैं मारा भी गया तो कोई बात नहीं. मैं अपनी जान देने के लिए तैयार हूं. कल किसी “ऐक्सिडेंट” में मेरी जान चली जाती है. तो भी कोई बात नहीं. कम्युनिटी का हर साथी अपनी जान देने को तैयार है”
बुधवार 29 सितंबर को उनकी ये बात सच साबित हो गई. जब कुछ हथियारबंद लोगों ने ढाका में उनकी हत्या कर दी. 46 साल के मोहिबुल्ला बांग्लादेश में रह रहे रोहिंग्या शरणार्थियों के सबसे बड़े गुट के नेता थे. कॉक्स बाजार कैंप में अधिकांश रोहिंग्या मुसलमानों ने शरण ली है. इसे दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी शिविर कहा जाता है.
संयुक्त राष्ट्र और एमनेस्टी से लेकर दुनिया की तमाम संस्थाओं ने मोहिबुल्ला की मौत पर दुःख जताया है. और मांग की है कि उनकी हत्या की जांच की जानी चाहिए. हालांकि हत्या किसने की, इसको लेकर अभी कोई पक्की खबर नहीं है. लेकिन पिछले सालों के घटनाक्रम और रिफ्यूजी कैंप के हालात से हत्या के कुछ सुराग मिलते हैं.
रोहिंग्या 50 सालों से दमन के शिकार
रोहिंग्या मुसलमान पिछले 50 सालों से दमन के साए में जीते आए हैं. म्यांमार की सरकार ने इन्हीं कभी भी नागरिक नहीं माना. ना ही जनगणना में इनकी गिनती हुई. म्यांमार की बहुसंख्यक बौद्ध आबादी भी रोहिंग्याओं को स्वीकार नहीं करती थी. वो उन्हें बांग्लादेश से आए ग़ैरक़ानूनी प्रवासी मानती थी. इस कारण छोटे-छोटे गुटों में ये लोग म्यांमार से पलायन करते रहते थे. अगस्त 2017 में हुई एक घटना से रोहिंग्याओं के मसले को विश्व पटल पर लाकर रख लिया. उसी साल जब रोहिंग्या मुसलमानों की बड़ी संख्या ने म्यांमार से पलायन शुरू किया तो इस घटना को ट्रिगर करने वाला एक संगठन था, ARSA (अराकान रोहिंग्या साल्वेशन आर्मी).

हुआ यूं कि 25 अगस्त 2017 को ARSA विद्रोहियों ने म्यांमार की 30 से ज़्यादा पुलिस चौकियों पर हमला कर दिया था. सरकार और सेना को मौक़ा मिला तो उन्होंने जवाबी कार्रवाही शुरू कर दी. और ARSA विद्रोहियों के बहाने आम रोहिंग्या जनता को भी निशाना बनाना शुरू किया. उनके गांव के गांव जला दिए गए. इसमें स्थानीय बौद्ध समुदाय के लोगों का समर्थन भी सेना को हासिल था.
लाखों लोग जब पलायन कर पड़ोसी मुल्क पहुंचे तो मानव अधिकार समूहों ने इनके लिए आवाज़ उठाई. तब म्यांमार की सेना और सरकार ने दमन की बात से इनकार किया. उनका कहना था कि वो केवल उग्रवादियों को निशाना बना रहे थे. जबकि सच ये था कि सरकारी दमन के चलते लगभग पूरी रोहिंग्या आबादी को म्यांमार से पलायन करना पड़ा था. पलायन करने वाले लोगों की सबसे बड़ी संख्या को बांग्लादेश ने अपने यहां आसरा दिया. रोहिंग्या यहां कैंप में रहने को मजबूर थे और एमनेस्टी और ह्यूमन राइट्स काउंसिल जैसी संस्थाओं से इन लोगों की मदद की.

ARSPH की मदद से मोहिबुल्ला ने लोगों को संगठित किया
बाहर से जितनी मदद की जाए, जब तक अंदर से आवाज़ नहीं उठती, तब तक समस्या का हल नहीं निकल सकता. इस समस्या के हल के लिए भी रोहिंग्याओं को पहल करने ही ज़रूरत थी. जिसके लिए ज़रूरी था कम्युनिटी का संगठित होना, ताकि वो अपने हक़ की आवाज़ उठा सकें. ऐसे में नेता के तौर पर एक व्यक्ति उभर कर आया, मोहिबुल्ला. जो 2017 में बने एक संगठन के नेता थे. इस संगठन का नाम था, ‘अराकान रोहिंग्या सोसायटी फ़ॉर पीस एंड ह्यूमन राइट्स’ (ARSPH) इस संगठन की मदद से मोहिबुल्ला ने लोगों को संगठित करने का प्रयास किया.
मोहिबुल्ला और उनके संगठन ने एक-एक तम्बू में जाकर शरणार्थियों की लिस्ट बनाई. इतना ही नहीं ARSPH ने हत्या, रेप और आगज़नी की सभी घटनाओं को डॉक्युमेंट किया और इंटरनेशनल इन्वेस्टिगेटर्स के साथ साझा किया. ARSPH के प्रयासों का फल था कि UN और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर म्यांमार सेना की ज़्यादतियों का पता लग पाया.

द्वैत के नियम के अनुसार कोई सिक्का सिर्फ़ एक पहलू का नहीं होता. और इस सिक्के का दूसरा पहलू था, ARSA. जिसने 2017 में म्यांमार पुलिस चौकियों पर हमला किया था. कहने को ये संगठन खुद को फ़्रीडम फ़ाइटर बुलाता है लेकिन इसमें धार्मिक चरम पंथियों का बोलबाला है.
ARSPH और ARSA के रास्ते अलग
ARSPH जहां शांति और समझौते से रोहिंग्या समस्या का हल चाहता है, वहीं ARSA सशस्त्र विद्रोह में यक़ीन रखता है. 2017 से पहले भी मोहिबुल्ला म्यांमार में लोकल पॉलिटिक्स में इनवॉल्व थे. तब भी ARSA उन पर म्यांमार सरकार से नज़दीकी का आरोप लगता रहता था.
ख़ैर मानवतावादी कोशिशों के चलते ARSPH को अपने प्रयासों में सफलता मिली. अहिंसक विरोध प्रदर्शनों के चलते उन्होंने बांग्लादेश सरकार से रिफ़्यूजी कैंप्स के लिए रियायतें मांगी. लोगों को ID कार्ड दिलवाए. मोहिबुल्ला धीरे-धीरे रोहिंग्याओं के सर्वमान्य नेता की तरह उभरने लगे. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी उनकी पहचान बनी. साल 2019 में अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने उन्हें व्हाइट हाउस में आमंत्रित किया. उसी साल उन्होंने UN ह्यूमन राइट्स काउंसिल में शिरकत की और वहां रोहिंग्याओं के हक़ का मुद्दा उठाया. उन्हें बड़ी जीत मिली जब UN में इस बात पर सहमति बनी कि रोहिंग्याओं के भविष्य के निर्णय में उनकी आवाज़ भी शामिल की जाएगी.

जहां एक ओर मोहिबुल्ला शांति से मसले का हल निकालने की कोशिश कर रहे थे. वाहीं ARSA गुट मोहिबुल्ला के बढ़ते क़द से खुश नहीं था.ARSA का एक और नाम है हराकाह -अल -यक़ीन. 2019 की रायटर्स की रिपोर्ट अनुसार अल-यक़ीन के लोग दिन में सामान्य लोगों की तरह कैंप में रहते और रात को अपना असली चेहरा दिखाते. इसी कारण इनका नाम पड़ गया, नाइट मूव्मेंट. कारण कि रात को हथियार लेकर ये लोग लोगों के तम्बुओं में घुस जाते और ARSPH के लोगों को धमकाते. साथ ही कैम्प में रहने वाली औरतों को भी ये लोग कट्टर इस्लामिक नियमों के पालन करने के लिए धमकी देते.
ये लोग ARSPH और मोहिबुल्ला के प्रयासों पर पानी फेर रहे थे. साल 2020 में म्यांमार सरकार ने बांग्लादेश को चेतावनी दी कि ARSA बांग्लादेश की धरती का उपयोग म्यांमार पर हमले के लिए कर रहे हैं. उसी साल ARSA ने बॉर्डर के इलाक़े से म्यांमार पर कुछ रॉकेट भी दागे.

मोहिबुल्ला ने बांग्लादेश से सुरक्षा मांगी थी!
चूंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मोहिबुल्ला रोहिंग्याओं के नेता थे इसलिए ARSA गुट से उन्हें लगातार धमकियां मिल रही थीं. इसी के चलते मोहिबुल्ला लगातार अपना ठिकाना बदल रहे थे. ARSPH के अनुसार उन्होंने बांग्लादेश सरकार से अपने लिए सुरक्षा की मांग की थी . हालांकि सरकारी अधिकारियों का कहना है कि अगर मोहिबुल्ला ने ऐसी कोई मांग की होती तो उन्हें ज़रूर मदद दी जाती.
यूं होता तो क्या होता और सरकारी बयानबाज़ी से इतर सत्य ये कि बुधवार 29 तारीख़ को रोहिंग्याओं के हक़ की सबसे बुलंद आवाज़ को ख़ामोश कर दिया गया. बुधवार शाम जब मोहिबुल्ला शाम की नमाज़ अदा कर लौट रहे थे तो चंद हथियारबंद हमलावरों ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी.
भाई ने कहा हत्या में ARSA का हाथ
पुलिस के अनुसार हमलावरों ने 5 राउंड गोलियां चलाई और वहां से फ़रार हो गए. हमला किसने किया पुलिस ने अभी इसका खुलासा नहीं किया है. और तहक़ीक़ात जारी है. लेकिन सोशल मीडिया में चल रहे एक वीडियो में मोहिबुल्ला के भाई हबीबुल्ला ने दावा किया है कि वो घटना के चश्मदीद थे और इस हत्या में ARSA का हाथ है. वीडियो में हबीबुल्ला कहते है,
“उन्होंने मोहिबुल्ला की हत्या कर दी क्योंकि वो रोहिंग्याओं के सर्वमान्य नेता थे. गोली चलाने से पहले हमलावरों ने कहा कि मोहिबुल्ला रोहिंग्याओं के नेता नहीं हो सकते, कोई भी उनका नेता नहीं हो सकता.”
मोहिबुल्ला की मौत के बाद शरणार्थी कैंप में मातम का माहौल है. रायटर्स से बात करते हुए कैंप के लोगों ने बताया कि मोहिबुल्ला की मौत कैप में बढ़ती हिंसा और कट्टरपंथियों की बढ़ती ताक़त का सबूत है.
इस्लामिक कट्टरपंथियों का दख़ल कैंप में बढ़ा
पिछले दिनों बांग्लादेश सरकार और एमनेस्टी इंटेरनेशनल ने भी कैंप में इस्लामिक कट्टरपंथियों के दख़ल पर चिंता जताई थी. उनका कहना था कि आतंकी समूह लोगों को रिक्रूट करने के लिए ऐसे हालात का फ़ायदा उठा रहे हैं. रिफ़्यूजी कैंप में ड्रग्स कार्टेल का धंधा भी खूब फल फूल रहा है और लोगों को अगवा किए जाने की वारदातें भी बढ़ रही हैं.
मीनाक्षी गांगुली वैश्विक मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की दक्षिण एशिया की निदेशक हैं. उन्होंने भी मोहिबुल्लाह की मौत पर गहरी चिंता जाहिर की है. उन्होंने एक बयान जारी करते हुए कहा कि मोहिबुल्ला अपने समुदाय की एक सशक्त आवाज़ थे और उनके जाने से रोहिंग्याओं के पुनर्वास प्रयासों को बड़ा झटका लगा है. साथ- साथ उन्होंने इस घटना की जांच की मांग की है ताकी दोषियों को जल्द से जल्द सजा मिल सके. अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने एक बयान में कहा,
“हम मोहिबुल्ला की हत्या से बहुत दुखी हैं. वो रोहिंग्या लोगों के हितों के रक्षक एवं समुदाय के नेता थे. हम आग्रह करते हैं कि इस जघन्य अपराध की पारदर्शी जांच हो और दोषियों को सजा मिले.
तख्तापलट के बाद 15 हज़ार लोग भारत की सीमा में घुसे
ब्लिंकन ने आगे कहा कि अमेरिका रोहिंग्या मुसलमानों के हितों की आवाज़ उठाता रहेगा. रोहिंग्याओं को लेकर कल संयुक्त राष्ट्र की महासभा में भी चर्चा हुई. इस दौरान UN अध्यक्ष एंतोनियो गुटेरस ने एक रिपोर्ट पेश करते हुए बताया कि इसी साल फ़रवरी म्यांमार में हुए तख्तापलट के बाद से अब तक 15 हज़ार लोग भारत की सीमा में घुस चुके हैं.
रिपोर्ट के अनुसार 1 फ़रवरी के बाद से म्यांमार के सीमावर्ती इलाक़ों में सैन्य टकराव बड़ा है. जिसका असर भारत, चीन और थाईलैंड पर भी पड़ा है. आगे आने वाले दिनों में इन इलाक़ों में रहने वाले लोगों और बॉर्डर पार कर आने वाले लोगों में जातीय संघर्ष और तेज हो सकता है. जो चिंता बढ़ाने वाली बात है. ग़ौरतलब है कि भारत और म्यांमार के बीच 1600 किलोमीटर की बाउंड्री है. जिसमें सुरक्षा कि कोई ख़ास इंतज़ाम नहीं है. साथ ही बंगाल की खाड़ी में भारत और म्यांमार की समुद्री सीमा भी पड़ती है.
मोहिबुल्ला की हत्या से रोहिंग्याओं की तरफ़ से उठने वाली एक शांति की आवाज़ कुचल दी गई है. और द्वैत के नियम को फिर से दोहराते हुए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को ये समझना होगा कि शांति का पौधा उखाड़ दिया जाएगा उससे बने वैक्यूम में अशांति के बीज अपनी जड़े जमाएंगे. आख़िर मुहल्ले में बीमारी फैल रही तो हो तो आपका घर कितना देर तक बचा रह सकता है.
दुनियादारी: रोहिंग्या संकट को लेकर भारत के लिए UN की नई चेतावनी