आज कल मुझे एक शौक चढ़ा हुआ है. वेब सीरीज देखने का. और वो भी देसी नहीं, विदेसी वाली. इसी क्रम में आजकल ‘हाउस ऑफ़ कार्ड्स’ देख रहा हूं. इस वेब सीरीज की कहानी अमेरिका की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमती है. वहां की प्रेसिडेंसी, सिनेट (संसद), सिनेटर्स, उनकी फंक्शनिंग वगैरह-वगैरह. कुल मिलाकर एक शानदार पॉलिटिकल ड्रामा सीरीज है ये.
इस सीरीज को देखते हुए मैंने कुछ ऐसी चीज़ें नोट की, जो कहीं न कहीं मेरे ज़हन में अटक कर रह गई हैं. जैसा कि मैंने पहले बताया ये पूरी तरह से राजनीति पर बेस्ड सीरीज है. तो इसमें भी वो सब बातें हैं, जो पॉलिटिक्स का – गंभीर, निर्दयी पॉलिटिक्स का – का हिस्सा होती हैं. धोखेबाजी, क्रूरता, मैनीपुलेशन वगैरह-वगैरह. लेकिन मेरी नज़र में जो खटक रहा है, वो कुछ और ही है.
वहां के चुने हुए जनप्रतिनिधि संसद में जब भी किसी बिल को पास कराने या उसका विरोध करने का मन बनाते हैं, तो उन्हें सबसे पहले ये सवाल सताता है कि उनके वोटर्स क्या कहेंगे. चाहे कोई जनता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से जुड़ा बिल हो, या इंटरनेशनल मामलों का. टैक्स रिफॉर्म हो, जॉब्स से रिलेटेड कोई विधेयक हो या आर्म्स एक्ट से जुड़ी कोई बात.
उन्हें इस बात का हमेशा डर रहता है कि जनता क्या सोचेगी? यहां तक कि प्रेसिडेंट तक इस खौफ़ से आज़ाद नहीं. मैं ये सब देखता हूं. अखबारों में इन मुल्कों की जनता की पॉलिटिकल अवेयरनेस के बारे में पढ़ता हूं. फिर अपने देश का हाल सोच लेता हूं. भयंकर चिढ़ होने लगती है मुझे.

इन मुल्कों में जनता अपने तमाम अधिकार जानती है. उसे पता है कि गवर्नमेंट उसके लिए काम करने के लिए ही अपॉइंट की गई है. उसकी नौकर है. उसको जवाबदेह है. हमारे यहां बरसों से सत्ता को माई-बाप मानने की परिपाटी जारी है. चरणों में लहालोट होते रहना ही हमारा परम कर्तव्य है. हमारे लिए नेताजी माने भगवान. अब वो जो मर्ज़ी करे.

आज तक भारत में किसी आर्थिक बिल पर ओपन बहस होती नहीं देखी गई. जीएसटी जैसा इतना बड़ा फैसला ले लिया गया है और लगभग सारा भारत अंजान है कि ये है क्या बला! किसी को ढंग से कुछ आईडिया नहीं है. आपकी जेब से जुड़ा इतना बड़ा बदलाव अगर वहां हो रहा होता, तो महीनों वहां लोग डिबेट में लगे रहते. इसके फायदे-नुकसान को तबियत से खंगालते. संसद के सामने धरना देते कि हमें ढंग से समझाओ. यहां हमें जीएसटी पर चुटकुले बनाने से ही फुरसत नहीं है.
ये मुल्क गाय, गोमूत्र, लव-जिहाद इन्हीं सब में उलझकर रह जाता है. किसी को नहीं परवाह कि हमारे आर्थिक मामलों में हमारी चुनी हुई सरकार क्या कर रही है! कैसे उसके फैसले सीधे-सीधे हमारी ज़िंदगी पर असर डालते हैं. ये किसी नरेंद्र मोदी, अरविंद केजरीवाल या राहुल गांधी की बात नहीं है. जनरल बात है. सत्ता में बैठी हर पार्टी इस देश की जनता की नौकर है. उससे सवाल-जवाब करना इस देश के नागरिक का हक़ है. लेकिन ये तमाम हुक्मरान हमें इस हक़ की भनक भी नहीं लगने देते. हमें गैरज़रूरी मुद्दों में अटकाए रखते हैं.
सही कहती है पाकिस्तान वाली आंटी. ये सारे मिल के हमें पागल बना रहे हैं (आगे की बातें सेंसर्ड है, वीडियो खुद खोज लीजिए).
और कमाल की बात ये कि हम पागल बन रहे हैं. ख़ुशी से. अपनी मर्ज़ी से.
गोरमिंट नहीं, हम बिक चुके हैं.
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